संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...हिन्दुस्तानियों के सीने का फौलाद परखने वाली तस्वीर
11-Jul-2022 12:36 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...हिन्दुस्तानियों के सीने का फौलाद परखने वाली तस्वीर

जिंदगी में कई बार दर्द का अहसास खत्म हो जाता है। ऐसा कभी-कभी उस वक्त भी होता है जब किसी दूसरे के ऐसे दर्द को देखना हो जाए जिसकी कल्पना भी न की हो, जिसकी कल्पना करना आसान भी न हो, तो दिल-दिमाग ऐसे सुन्न हो जाते हैं कि किसी दर्द का अहसास नहीं रह जाता। कुछ ऐसा ही मध्यप्रदेश के मुरैना की एक फोटो और उसके वीडियो को देखकर हो रहा है। एक गांव का गरीब आदमी अपने दो बरस के बीमार बच्चे को इलाज के लिए मुरैना जिला अस्पताल लेकर आया था, वहां इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। अस्पताल से कोई शव वाहन नहीं मिला, तो यह आदमी, पूजाराम, अपने बेटे राजा के शव को लेकर अस्पताल के बाहर आया, और वहां से कोई एम्बुलेंस डेढ़ हजार रूपये से कम में ले जाने तैयार नहीं थी, और उसके पास उतने पैसे नहीं थे। उसने अपने साथ के आठ बरस के बेटे को सडक़ किनारे बिठा दिया, और उसकी गोद में छोटे भाई की लाश रख दी, और कोई सस्ती गाड़ी ढूंढने निकला। यह बड़ा भाई गुलशन कभी रो रहा था, कभी छोटे भाई के शव को लाड़ कर रहा था, और जैसा कि किसी सार्वजनिक जगह पर होता है चारों तरफ तमाशबीन थे, जो कि फोटो खींच रहे थे, और वीडियो बना रहे थे। चारों तरफ हॉर्न की आवाज के बीच अपने और भाई पर बैठती मक्खियों के बीच वह बच्चा समझ भी नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा है। इसका एक वीडियो ऐसा भी है जिसमें कोई आदमी इस बच्चे को कह रहा है- इधर देखो बेटा। जाहिर है कि उसके कैमरे में बच्चे के चेहरा साफ नहीं आ रहा होगा।

अब इससे बड़ा दर्द और क्या हो सकता है? यूक्रेन छोडक़र जाते हुए, या अफगानिस्तान और सीरिया छोडक़र जाते हुए कई बच्चों की, और उनकी लाशों की तस्वीरें बीच-बीच में आती हैं, लेकिन वे गृहयुद्ध या दूसरे देशों के साथ जंग से गुजरते हुए हालात के बीच की तस्वीरें हैं। वे तस्वीरें किसी ऐसे देश की नहीं हैं, किसी ऐसे प्रदेश की नहीं हैं, जहां पर मुख्यमंत्री प्रदेश की हर बच्ची का मामा होने का दावा करता है। जिस प्रदेश में बड़े-बड़े विख्यात तीर्थ हैं, जहां पर अर्धकुंभ होता है, जहां पर शक्तिपीठ है, और जहां जाने क्या-क्या नहीं हैं। यह बात किसी जंग से घिरी सरहद की नहीं है, यह बात एक विकसित प्रदेश के एक जिला मुख्यालय में गाडिय़ों के हॉर्न के बीच सडक़ किनारे की बात है। ट्विटर पर किसी ने इसकी तस्वीर के साथ यह पोस्टर ठीक ही बनाया है कि बच्चे की गोद में उसका भाई नहीं, हमारी, आपकी, हम सबकी लाश है।

यह कैसा प्रदेश है जहां पर सरकार का मुख्यमंत्री रात-दिन अपने को मामा कहते नहीं थकता! यह प्रदेश बड़े-बड़े तीर्थों वाला, और उनमें बड़े-बड़े चढ़ावे वाला प्रदेश है। इसी प्रदेश में सबसे बड़ा कारोबारी शहर इस बात के लिए विख्यात है कि वहां हर शाम से लेकर देर रात तक किस तरह खाने-पीने का कारोबार चलता है, और खाते-पीते घरों के लोग रात का खाने के बाद और खाने के लिए इन बाजारों में उमड़े रहते हैं। इस बच्चे के इर्द-गिर्द चारों तरफ घंटे भर गाडिय़ों के हॉर्न ही बज और गूंज रहे थे, लेकिन इसकी गोद में धरती का जो बोझ रखा हुआ था, उसे कोई अदना सी गाड़ी भी नसीब नहीं हो रही थी। लोग अक्सर लिखते हैं कि सबसे वजनी ताबूत वे होते हैं, जो सबसे छोटे होते हैं। अब आठ बरस के इस बच्चे की गोद में छोटे भाई की यह लाश एक पूरी धरती के वजन से कम तो क्या होगी?

इस पर लिखने का मकसद महज मध्यप्रदेश की सरकार को कोसना नहीं है। ऐसा हिन्दुस्तान के किसी भी प्रदेश में हो सकता है, कई जगहों पर होता भी है, लेकिन अगर वहां मोबाइल फोन के कैमरे नहीं रहते हैं, तो बात अनदेखी रह जाती है। सोशल मीडिया पर मध्यप्रदेश के मंत्रियों के नाम लिखकर लोग याद दिला रहे हैं कि इस प्रदेश में ऐसे मंत्री फलां-फलां पाखंडी बाबा को चढ़ावा चढ़ाते हैं, और वहां गरीब का यह हाल है। लेकिन मंत्रियों और सरकार की जिम्मेदारी से परे भी देखें, तो समाज की सोच को यह क्या हो गया है कि ऐसी तकलीफदेह तस्वीर देखते हुए भी लोग वीडियो बनाते रहे, लेकिन मदद को सामने नहीं आए। जिस हिन्दुस्तान में इन दिनों धार्मिक भावनाएं आहत होने के लिए एक पैर पर तैयार खड़ी रहती हैं, वहां पर लोगों की इंसानी भावनाएं किसी भी तरह से आहत नहीं होती हैं, और वे फौलादी मजबूती के साथ महज वीडियो रिकॉर्डिंग करती हैं। एक एम्बुलेंस या शव वाहन का इंतजाम न हो पाना एक सरकारी नाकामयाबी है, लेकिन धर्म के मामले में नाजुक भावनाएं किसी सामाजिक जवाबदेही के मानवीय मामले में फौलादी बन जाती हैं, तो वह एक अधिक फिक्र की बात है, और उस बारे में लोगों को सोचना चाहिए।

यह खबर, इसकी तस्वीर, और इसका वीडियो जिन लोगों को नहीं हिला पाया है, उन्हें शायद कुछ भी नहीं हिला पाएगा। ऐसे लोग ईश्वर पर अपनी सोच को इस हद तक केन्द्रित कर चुके हैं कि उनकी कोई संवेदना दूसरों के लिए बाकी रह गई नहीं दिखती हैं। लोगों का संवेदनाशून्य हो जाना नेताओं की आपराधिक लापरवाही के मुकाबले अधिक खतरनाक नौबत है, और इससे यह आत्मगौरवान्वित भारतीय समाज कैसे उबर सकेगा, इसके बारे में सोचना चाहिए। वहां से गुजरते हुए, फोटो और वीडियो खींचते हुए सैकड़ों लोगों को जिस मानसिक चिकित्सा की जरूरत है, उस बारे में भी सोचना चाहिए। इस बारे में और क्या कह सकते हैं, सिवाय इसके कि हर किसी को अपने बच्चों को इस नौबत में सोचना चाहिए, और उसके बाद अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के बारे में एक बार फिर सोचना चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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