संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जज साहब, बुलडोजर पर नहीं, उसके पीछे की साम्प्रदायिक नीयत पर रोक की जरूरत थी...
14-Jul-2022 4:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जज साहब, बुलडोजर पर नहीं, उसके पीछे की साम्प्रदायिक नीयत पर रोक की जरूरत थी...

सुप्रीम कोर्ट के रूख ने एक बार फिर हिन्दुस्तानियों को निराश किया है। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश जैसे भाजपा राज्यों में सरकार को नापसंद अल्पसंख्यक मुस्लिम लोगों के किसी प्रदर्शन में शामिल होने, या उन पर दूसरे जुर्मों के आरोप रहने पर सरकार बुलडोजर से उनके घर, उनकी दुकानें गिरा दे रही हैं। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में की गई अपील पर अदालत ने नगर निगमों पर एक साथ कोई रोक लगाने से इंकार कर दिया क्योंकि उसका मानना है कि इससे नगर निगमों की ताकत घट जाएगी। जबकि इस मामले में याचिका से लेकर मीडिया की खबरों तक हर जगह यह बात साफ है कि सरकारों ने मोटेतौर पर छांट-छांटकर मुस्लिमों को निशाना बनाया है। उत्तरप्रदेश का एक ताजा मामला तो ऐसा है जिसमें आदमी के किसी प्रदर्शन में शामिल होने का आरोप लगाते हुए उसकी बीवी के नाम का मकान गिरा दिया गया। अब सुप्रीम कोर्ट ने कानपुर और प्रयागराज प्रशासन की तरफ से पेश हुए सीनियर वकील हरीश साल्वे के तर्कों को मानते हुए अवैध निर्माण पर तोडफ़ोड़ का सामान्य प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट कोई एक दिल और एक दिमाग नहीं है। अलग-अलग जजों की बेंच रहती हैं, और किसी एक मुद्दे पर भी अलग-अलग बेंच का रूख अलग-अलग भी रहता है। कुछ बड़े संवैधानिक मामलों में अधिक बड़ी बेंच बनती है, और उनमें कुछ जज असहमति का फैसला भी लिखते हैं। इसलिए किसी एक मुद्दे पर पूरे सुप्रीम कोर्ट के रूख को एक मान लेना ठीक नहीं होगा। फिलहाल भाजपा-राज्यों में भाजपा पदाधिकारियों की चिट्ठी पर जिला प्रशासन और पुलिस द्वारा करवाई गई ऐसी कार्रवाई सबके सामने है। टीवी कैमरों पर नेताओं और अफसरों के बयान यह बताते हैं कि किसे निशाना बनाना है, यह फैसला किसी न्यायसंगत पैमाने पर नहीं लिया जा रहा है, यह फैसला किसी साम्प्रदायिक तनाव या टकराव के बाद मुस्लिम समुदाय के लोगों को निशाना बनाने के लिए लिया जा रहा है। अब म्युनिसिपल तो अधिकतर मामलों में यह बात साबित कर सकती है कि उसने इन लोगों को पहले से नोटिस दिए हुए थे। और दरअसल पूरे देश में म्युनिसिपलों का तौर-तरीका यही रहता है कि हर अवैध निर्माण, हर अवैध कब्जे पर नोटिस दे दिए जाते हैं, और फिर चुनिंदा नोटिसों पर आगे कार्रवाई होती है, बाकी नोटिसों को दबाकर रख दिया जाता है। इसी मामले की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता के वकील दुष्यंत दवे ने अदालत को याद दिलाया कि दिल्ली में बने हुए सभी फॉर्महाउस लगभग अवैध हैं, लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। और अदालत की इस बहस से बाहर देश में हकीकत यही है कि राजनीतिक पसंद और नापसंद के आधार पर म्युनिसिपल की तोडफ़ोड़ होती है। हमने कुछ महीने पहले दिल्ली में शिवसेना के साथ अभिनेत्री कंगना रणौत की जुबानी लड़ाई देखी है, और उसके बाद किस तरह कुछ घंटों के भीतर म्युनिसिपल कंगना रणौत के अवैध निर्माण पर टूट पड़ी थी, और बड़े वकीलों ने अगले कुछ घंटों के भीतर कंगना को अदालती राहत भी दिलवा दी थी। अभी भी उत्तरप्रदेश सरकार और वहां के स्थानीय प्रशासनों को जो अदालती राहत मिली है, उसके पीछे हरीश साल्वे जैसे बड़े वकील का वजन भी है जो कि ब्रिटेन और हिन्दुस्तान दोनों जगह वकालत करते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश में बड़ा निराश इसलिए किया है कि इन जजों ने इस मामले को बहुत तकनीकी आधार पर देखा, और यह मान लिया कि बुलडोजर से तोडफ़ोड़ पर एक व्यापक रोक लगा देने से देश भर में स्थानीय संस्थाओं के अधिकार थम जाएंगे। यहां पर मुद्दा अवैध निर्माण नहीं था, यहां पर मुद्दा अल्पसंख्यक समुदाय के, सरकार को नापसंद चुनिंदा लोगों को निशाना बनाकर उन्हीं के निर्माण तोडऩा था, जो कि बहुसंख्यक समुदाय के उससे सौ गुना अधिक संख्या के अवैध निर्माणों जितने ही अवैध रहे होंगे। अदालत ने सरकार और स्थानीय संस्थाओं की मिलीजुली साम्प्रदायिक साजिश को देखने-समझने से भी परहेज किया, और इसे सिर्फ एक सरकारी काम में बाधा न डालने वाला मामला समझा। जब देश की सबसे बड़ी अदालत तक कोई मामला पहुंचता है, तो उसे जिला अदालत जैसे तंगनजरिये की कानूनी सीमाओं से ऊपर उठकर काम करना चाहिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट संविधान की भी व्याख्या अपने हिसाब से कर सकता है, और हाल के महीनों में जिस तरह डंके की चोट पर हिन्दू नेताओं ने मुस्लिमों के निर्माण गिराने की बात कही, और आनन-फानन वहां बुलडोजर पहुंचकर उन्हें जमींदोज करने में लग गए। मध्यप्रदेश में तो वहां के एक सबसे ताकतवर मंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस ले-लेकर ऐसे इरादे की घोषणा की, और फिर वैसी ही कार्रवाई हुई। इसलिए सुप्रीम कोर्ट की यह व्याख्या बेबुनियाद है कि यह म्युनिसिपल का मामला है। जब राज्य सरकार म्युनिसिपल को सामने रखकर म्युनिसिपल के अधिकारों का इस्तेमाल करके खुद फैसले लेती है, खुद उसकी घोषणा करती है, तो फिर म्युनिसिपल के अधिकारों की फिक्र सुप्रीम कोर्ट को क्यों करना चाहिए? और अभी के तो कम से कम इन दो राज्यों के मामले ऐसे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को न्यायिक जांच का आदेश देना था कि क्या ऐसे व्यापक तोडफ़ोड़ के पीछे साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह भी था। यह एक राष्ट्रीय फिक्र का मुद्दा है, और सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह कन्नी काट ली है। महीनों से यह मामला अदालत में चल रहा है, और सुप्रीम कोर्ट्र के चाहे-अनचाहे इस मामले में सरकारों के घोर साम्प्रदायिक रूख को बढ़ावा मिल रहा है। यह बात जितने बड़े पैमाने पर मीडिया में सामने आ चुकी है, अदालत को अपनी निगरानी में किसी हाईकोर्ट जज से इसकी जांच करवा लेनी थी, और उसी एक आदेश से अगले कुछ महीने तो सरकारें साम्प्रदायिक बदला लेने का काम नहीं करतीं। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से निराशा यही होती है कि जो बात पूरे देश को दिख रही है, और जो बात इन राज्यों के सत्तारूढ़ नेता और हिन्दू संगठनों के नेता लाउडस्पीकर पर कह रहे हैं, उनका नोटिस लेना भी सुप्रीम कोर्ट ने जरूरी नहीं समझा।
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