संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बस्तर के लोग नक्सलियों पर भरोसा न करें तो क्या करें?
17-Jul-2022 1:40 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  बस्तर के लोग नक्सलियों पर भरोसा न करें तो क्या करें?

पिछले चार दिनों में दो खबरें विचलित करने वाली आई हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासियों के बीच काम करने वाले एक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार को सुप्रीम कोर्ट में उनकी लगाई हुई एक जनहित याचिका की सजा दी गई है। 2009 में बस्तर में सत्रह आदिवासी मारे गए थे, इसे लेकर आदिवासी समाज और सामाजिक कार्यकर्ताओं का यह शक और आरोप था कि इसके पीछे सुरक्षा बल थे। इस पर उसी इलाके की पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करना निरर्थक मानकर हिमांशु कुमार सुप्रीम कोर्ट गए थे, और वहां से दस-बारह बरस बाद अब अदालत ने यह जनहित याचिका खारिज कर दी है, और इसे दायर करने के लिए हिमांशु कुमार पर पांच लाख रूपए का जुर्माना लगाया है। साथ ही अदालत ने छत्तीसगढ़ सरकार या सीबीआई को यह सुझाव भी दिया है कि वे याचिकाकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक साजिश रचने, और पुलिस और सुरक्षाबलों पर झूठा आरोप लगाने के लिए कार्रवाई भी कर सकते हैं, जिनमें दूसरी धाराएं भी लगाई जा सकती हैं। यह याचिका लगाने वाले हिमांशु कुमार तो थे ही, उनके साथ इस मानवसंहार में मारे गए लोगों के परिवार के लोग भी थे। इस फैसले के बाद हिमांशु कुमार ने कहा है कि यह फैसला बेइंसाफ है, और वे इसका विरोध करते हुए जेल जाएंगे, उनके पास ऐसा जुर्माना पटाने के पैसे नहीं हैं, और वे जुर्माना पटाना भी नहीं चाहते। उन्होंने गांधी की मिसाल देते हुए कहा है कि अन्याय का विरोध करना जरूरी है। देश भर से सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच पैदा बेचैनी सोशल मीडिया और बयानों में सामने आ रही है, इसकी एक दूसरी वजह यह भी है कि अभी कुछ ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात के एक दूसरे मामले में वहां के 2002 के दंगों को लेकर सडक़ से अदालत तक सक्रिय एक सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ फैसले में सरकार को सुझाव दिया था कि वह तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ मुकदमा चला सकती है, और गुजरात सरकार ने आनन-फानन, अगले ही दिन तीस्ता के खिलाफ जुर्म दर्ज करके उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया। लोगों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले में सामाजिक कार्यकर्ता के खिलाफ इस तरह की बात सुझाना अटपटा भी लगा है, लेकिन हम अभी उसकी कानूनी बारीकियों पर जाना नहीं चाहते हैं, देश में सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के रूख से पैदा हुई फिक्र की बात करना चाहते हैं।

आज के ही एक और समाचार को साथ जोडक़र देखने की जरूरत है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में दंतेवाड़ा के एनआईए कोर्ट ने दो दिन पहले एक फैसला सुनाया है जिसमें वहां के 121 आदिवासियों को बरी किया गया है जो कि एक नक्सल हमले में भागीदार होने के आरोप में यूएपीए जैसे कड़े कानून के तहत पांच बरस से जेल में बंद थे। बुर्कापाल हमला नाम का यह बड़ा माओवादी हमला सीआरपीएफ के 25 लोगों को मारने वाला था, और इसी हमले के आरोप में 121 स्थानीय आदिवासियों को भी गिरफ्तार करके जेल में डाला गया था। अब अदालत ने पाया है कि इनके खिलाफ कोई सुबूत नहीं थे, और यह बात भी याद रखने की है कि इन पांच बरसों में इन्हें जमानत भी नहीं मिली थी। अदालत ने कहा है कि इन लोगों के खिलाफ न तो कोई सुबूत साबित हुए और न ही कोई बयान, और एनआईए यह भी नहीं दिखा पाया कि इन लोगों का नक्सलियों से या इस हमले से कोई लेना-देना था। अब सवाल यह है कि इसी बस्तर में सुरक्षाबलों और नक्सलियों के बीच पिसते हुए गरीब आदिवासियों के हक के लिए लडऩे वाले हिमांशु कुमार को भाजपा और कांग्रेस दोनों की राज्य और केन्द्र सरकारें मिलकर नक्सली साबित करने का मुकदमा चलाती हैं, या उनकी जनहित याचिका को खारिज करवाते हुए उन्हें बदनीयत साबित करती हैं, तो फिर देश में और राजनीतिक ताकतें बचती कौन सी हैं जो कि आदिवासियों या सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ रहमदिली दिखाएं? ये दोनों फैसले देश में सामाजिक और सरकारी अन्याय के खिलाफ अदालत तक कोशिश करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का हौसला खत्म करने वाले साबित हुए हैं, और अब लोगों को यह लग रहा है कि सरकारी बेइंसाफी, सरकारी हिंसा के खिलाफ अदालत तक की जाने वाली लोकतांत्रिक कोशिश उनके लिए जानलेवा साबित हो सकती है। खासकर बस्तर के बारे में देखें तो वहां पर केन्द्र सरकार और राज्य के सुरक्षाबल दोनों ही सरकारों में अलग-अलग पार्टियों का राज रहने पर भी आदिवासियों पर जुल्म के मामले में एक ही सोच चलती आ रही है। जब कोई पार्टी विपक्ष में रहे तब तो उसका मुंह थोड़ा-बहुत खुल भी जाता है, लेकिन सत्ता में रहते हुए पार्टियों का रूख एक सरीखा रहता है, और हालात बहुत भयानक साबित हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ में मौजूदा कांग्रेस सरकार के आने के बाद बस्तर के सार्केगुड़ा में सत्रह बेकसूर आदिवासियों को माओवादी बताकर मुठभेड़ में मारा गया था, और 2019 में एक न्यायिक जांच में उन्हें बेकसूर पाया गया। इसके अलावा 2013 में एड्समेटा में आठ आदिवासियों को नक्सली बताकर मारा गया था, और न्यायिक जांच में 2022 में उन्हें बेकसूर पाया गया। इन दोनों जांच आयोग की रिपोर्ट पर प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की है, और न ही उसका कुछ करने का इरादा दिख रहा है। अब भाजपा के राज के वक्त थोक में बेकसूर आदिवासियों को इस तरह मारने पर भी आज की कांग्रेस सरकार अगर कुछ नहीं करती है, तो फिर लोकतंत्र इंसाफ के लिए डेमोक्रेटिक, रिपब्लिकन, और कंजरवेटिव पार्टियों का आयात तो नहीं कर सकता। जब देश की दोनों बड़ी पार्टियां, या उनकी गठबंधन सरकारें, और देश की अदालतें, इन सबका कुल जमा रूख बेकसूर आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के हक खारिज करने का हो जाए, जब सामाजिक कार्यकर्ता सबकी आंखों में खटकने लगें, जब सामाजिक कार्यकर्ताओं पर पांच लाख जैसा बड़ा जुर्माना लगाया जाए, उनके खिलाफ कार्रवाई करने का सुझाव सरकारों को दिया जाए, तो फिर सामाजिक कार्यकर्ताओं से नफरत करने वाली सरकारों को और चाहिए क्या?

देश की आज की हवा लोकतंत्र के दो बड़े स्तम्भों के बीच एक अभूतपूर्व हमखयाली दिखा रही है। ऐसा लगता है कि लोकतांत्रिक मुद्दों पर सरकार और अदालत की समझ एक हो गई है। यह एकता, एकजुटता, या हमखयाली लोकतंत्र को खत्म करने का माहौल बना चुकी है। इस देश में अब कोई भी महफूज नहीं रह गए हैं, और खासकर वे लोग जो कि कमजोर लोगों के हक के लिए ताकतवर सरकारों, बड़ी-बड़ी पार्टियों, और उनके अन्नदाता कारोबारियों को किसी भी वजह से नाराज करने का काम करते हैं। लोकतंत्र के लिए ये ताजा अदालती फैसले शर्मनाक भी हैं, और हौसला तोडऩे वाले भी हैं।
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