संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बोल कि लब आजाद हैं तेरे, बोल कि सोशल मीडिया अब तक फ्री है
19-Jul-2022 4:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बोल कि लब आजाद हैं तेरे, बोल कि सोशल मीडिया अब तक फ्री है

उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक मॉल को अचानक ढेर सी शोहरत और उतनी ही बदनामी मिल रही है। किसी भी कारोबारी के लिए मुफ्त की पब्लिसिटी, बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ, किस्म की होती है। और केरल के एक मुस्लिम कारोबारी के बनाए हुए सैकड़ों करोड़ के इस मॉल का नाम एकाएक पूरे हिन्दुस्तान की जुबान पर चढ़ गया है। लुलु मॉल में कुछ लोगों ने जाकर अचानक ही गलियारे में नमाज पढ़ी, या नमाज पढऩे का नाटक किया, उसका वीडियो बनाया गया, उसे चारों तरफ फैलाया गया, और अब उत्तरप्रदेश के हिन्दूवादी संगठन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से इस मॉल पर बुलडोजर चलाने की मांग कर रहे हैं, जिसका कि उद्घाटन ही योगी ने किया था। शुरुआती खबरों से जो पता लगता है उनमें इस मॉल में आकर नमाज पढऩे का यह नाटक किया गया था क्योंकि इसे कुल 18 सेकेंड तक किया गया, जैसी कि कोई नमाज नहीं होती है। जाहिर तौर पर इसका मकसद मॉल को बदनाम करना, और साम्प्रदायिक तनाव खड़ा करना है। अब नमाज के इस नाटक के बाद हिन्दूवादी संगठन वहां हनुमान चालीसा पढऩे पहुंच गए, और पुलिस के जिम्मे इन्हीं सबको काबू करने का काम रह गया है।

हिन्दुस्तान में अब हर दो-चार दिन में कोई न कोई साम्प्रदायिक या भावनात्मक मामला इस तरह उठते दिखता है जिससे कि जिंदगी के असल मुद्दे दब जाएं। गांधी की स्मृति में बनी राष्ट्रीय सरकारी समिति की पत्रिका का ताजा अंक अभी सावरकर की स्तुति में आया है, और देश-दुनिया के गांधीवादी हक्का-बक्का हैं कि क्या गांधी को ये दिन देखना भी नसीब में लिक्खा हुआ था? फिर यह भी हो रहा है कि कल से जब देश में आटे-दाल के भाव बढऩे थे, और हर गरीब की रसोई में परिवार के बाकी लोगों के साथ बैठकर जीएसटी खाना खाने लगा है, तब देश भर में हो रहे हाहाकार को खबरों से पीछे धकेलकर 18 सेकेंड की नमाज और उसके मुकाबले हनुमान चालीसा टीवी स्क्रीन पर छाई हुई हैं। मीडिया और राजनीति की जुबान में इसे स्पिन डॉक्टरी कहते हैं, कि चर्चा में छाए मुद्दों का रूख मोड़ देना, और वहां पर दूसरे मुद्दों को ले आना। आज जब हिन्दुस्तान के हर गरीब और मध्यमवर्गीय घर के चूल्हों पर खतरा आया हुआ है, हर गरीब की थाली से कुछ कौर छीन लिए गए हैं, जब आजाद हिन्दुस्तान के इतिहास में किसी केन्द्र सरकार ने पहली बार सबसे गरीब की सबसे बुनियादी जरूरत से भी खून चूसने का काम किया है, उस वक्त देश के एक बड़े तबके को नमाज और हनुमान चालीसा में उलझाने का काम अनायास नहीं हो सकता। जिस साजिश के तहत ऐसा वीडियो बनाया गया, जिस साजिश के तहत इसका संगठित और सुनियोजित विरोध किया गया, उसी साजिश के तहत देश के दुख-दर्द को ढांकने का काम भी हो रहा है, खबरों के पन्नों से अनाज की जगह छीनी जा रही है।

लेकिन लोकतंत्र, चाहे वह जिस हद तक भी हिन्दुस्तान में बाकी हो, के तहत सत्ता से परे की बाकी ताकतों को भी ऐसे मौके पर कुछ करने की गुंजाइश हासिल रहती है। आज यह गुंजाइश जनजागरण की है। आज अगर हिन्दुस्तान की विपक्षी राजनीतिक ताकतें, मीडिया का जो भी छोटा-मोटा हिस्सा अब भी जनहित के लिए फिक्र रखता हो वह, सोशल मीडिया पर असरदार मौजूदगी रखने वाले और सही राजनीति की वकालत करने वाले लोग, ऐसे कई तबके हैं जो कि इस तरह की स्पिन डॉक्टरी का भांडाफोड़ कर सकते हैं, और लोगों को जागरूक कर सकते हैं कि कुछ खास मौकों पर कुछ जानी-पहचानी ताकतें राष्ट्रवादी, साम्प्रदायिक, भावनात्मक, और उन्मादी मुद्दों को लेकर क्यों सक्रिय हो जाती हैं, और जिंदगी की किन तकलीफदेह हकीकतों को दबाना उनकी नीयत रहती है। लोकतंत्र में जितनी जिम्मेदारी सरकारी काम करने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी की रहती है, उतनी ही जिम्मेदारी सरकारी नाकामयाबी को उजागर करने के लिए विपक्ष और देश के जागरूक तबकों की रहती है। फिर यह भी है कि अब देश की संसद में आलोचना के जिन विशेषणों पर रोक लगाने की खबरें आ रही हैं, उनसे परे संसद के बाहर की खुली हवा में तो उन तमाम विशेषणों का इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि वे सारे के सारे लोकतांत्रिक हैं। सत्ता अपने असर से संसद के भीतर चाहे जो करवा ले, संसद के बाहर खुली हवा में लोग आज भी बोल सकते हैं, चाहे कुछ खतरा उठाकर ही क्यों न बोलना हों।

लोगों को यह याद रखना चाहिए कि बीते बरसों में कब-कब किन बातों को पहले पन्ने से धकेलकर भीतर के पन्नों पर भेजने के लिए, या टीवी के समाचार बुलेटिनों से पूरी तरह बाहर करवाकर किसी फर्जी मुद्दे पर नाटकीय बहस की नूरा कुश्ती करवाने के लिए साजिशें की गई हैं। आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से देश के जागरूक और जिम्मेदार तबके को भी अपनी बात कहने और लिखने की गुंजाइश हासिल है, जो कि अखबारी पन्नों से तकरीबन गायब हो चुकी है, और टीवी के पर्दों पर जो कभी थी भी नहीं। इसलिए इसका इस्तेमाल होना चाहिए। फैज़ की कही बात को आज के संदर्भ में देखें तो यह कहा जा सकता है कि बोल कि लब आजाद हैं तेरे, बोल कि सोशल मीडिया अब तक फ्री है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

 

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