संपादकीय
मध्यप्रदेश में भोपाल में बीटेक की पढ़ाई करने वाले 21 बरस के एक छात्र, निशांक राठौर की लाश एक पटरी पर कटी हुई मिली, और उसके फोन से उसके पिता को भेजा गया ऐसा मैसेज मिला जो मुस्लिमों द्वारा दी गई धमकी सरीखा लग रहा था। उसमें लिखा था- नबी से गुस्ताखी नहीं, राठौर साहब आपका बेटा बहुत बहादुर था। इस छात्र के इंस्टाग्राम अकाऊंट पर भी ऐसा लिखा मिला- सारे हिन्दू कायरों देख लो, अगर नबी के बारे में गलत बोलोगे तो यही हश्र होगा। इससे अधिक टीवी चैनलों को और क्या लगता था। भडक़ाने वाले पोस्टर बनाकर टीवी समाचार बुलेटिन चलने लगे, और इस घटना को राजस्थान में कन्हैयालाल हत्याकांड और अमरावती के उमेश कोल्हे हत्याकांड की अगली कड़ी की तरह पेश किया जाने लगा। अब भाजपा शासित मध्यप्रदेश की पुलिस ने इस मामले की जांच करने के बाद यह पाया है कि इस नौजवान का फोन स्क्रीन लॉक किया हुआ था, और उसे किसी और ने नहीं खोला था। पुलिस ने जांच में यह भी पाया कि इस छात्र ने कर्ज न चुका पाने की वजह से परेशान होकर आत्महत्या कर ली थी, न कि उसकी हत्या हुई। जांच अफसर ने बताया कि उसने करीब 18 ऑनलाईन ऐप्प से लोन ले रखा था, और दोस्तों से भी कर्ज ले रखा था, और चुकाने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे। ऐसे में उसने आत्महत्या करने के पहले अपने पिता को साम्प्रदायिक किस्म का मैसेज भेजा जिसमें सिर तन से जुदा करने की बात लिखी, ऐसी ही बात उसने अपने इंस्टाग्राम अकाऊंट पर डाली।
लेकिन 24 जुलाई की शाम मिली इस लाश को लेकर 25 जुलाई से ही सोशल मीडिया पर इसे एक हिन्दू पर मुस्लिम हमला बताते हुए, इसे एक साम्प्रदायिक हत्या बताते हुए मुहिम छेड़ दी गई थी, जो कि टीवी चैनलों की मेहरबानी से जंगल की आग की तरह फैल रही थी। यह तो गनीमत है कि यह हादसा एक भाजपा शासित राज्य में हुआ है जहां एक हिन्दू नौजवान की ऐसी मौत का शक मुस्लिमों पर होने के बावजूद पुलिस ने यह पाया है कि इसमें कोई बाहरी व्यक्ति शामिल नहीं था, और यह आत्महत्या थी। अगर यह मामला किसी गैरभाजपा राज्य का रहता, तो वहां की पुलिस पर मुस्लिमों को बचाने की तोहमत लग सकती थी, कम से कम भाजपा के राज्य में यह तोहमत तो नहीं लग सकती। लेकिन अब ऐसे में सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वाले लोगों, और देश के टीवी समाचार चैनलों के बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि किसी एक घटना की जांच भी पूरी होने के पहले उसे लेकर नफरत का सैलाब फैला देने की इनकी नीयत का क्या किया जाए? अभी चार दिन पहले ही देश के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने बड़ी तल्खी के साथ देश के टीवी समाचार चैनलों को कोसा था, और सोशल मीडिया को उससे भी अधिक खराब बताया था। सोशल मीडिया तो खैर किसी एक दिमाग से नियंत्रित मीडिया नहीं है, और वहां पर करोड़ों लोग लगातार लिखते रहते हैं। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो मीडिया को मिलने वाले तमाम किस्म के विशेषाधिकार, और पहुंच का इस्तेमाल करता है, और उसके बाद नफरत फैलाने का गैरजिम्मेदार काम, बल्कि बेहतर यह कहना होगा कि जुर्म भी करता है। अब भोपाल की यह घटना इसका एक ताजा सुबूत है कि मुस्लिमों की तरफ इशारा करने वाले ऐसे संदेशों के बीच एक हिन्दू मौत की जांच कर रही पुलिस वैसे ही दुनिया भर के दबाव में रही होगी, और उस पर सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का हमला होते रहा। यह तो गनीमत है कि पुलिस ने एक हफ्ते की शुरुआती जांच में ही पूरी तरह से यह स्थापित कर दिया कि यह बिना किसी बाहरी हरकत के, सीधी-सीधी आत्महत्या है, वरना अब तक तो सडक़ों पर मुस्लिमों पर हमले होने लगते।
हर कुछ दिनों में ऐसी नौबत आती है जब हमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक बड़े हिस्से के बारे में यह बात लिखनी पड़ती है कि भारत सरकार अपने पास सुरक्षित बड़े कड़े अधिकारों पर बैठी हुई क्यों है, और देश में नफरत और साम्प्रदायिकता फैलाकर अपना कारोबार बढ़ाने की ऐसी खुली साजिश के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती है? देश के मुख्य न्यायाधीश कुछ ही दिन पहले सार्वजनिक भाषण में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में दुनिया भर का कहकर जाते हैं, और उसके बाद भी आज ऐसी हरकत जारी है। बल्कि मुख्य न्यायाधीश के बयान के दिन से ही यह ताजा नफरती सैलाब चल रहा है। इस देश में केन्द्र सरकार ने टीवी चैनलों के कामकाज की निगरानी के लिए एक संस्था बना रखी है, दूसरी तरफ पहले से चली आ रही प्रेस कौंसिल है जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज रहते हैं, हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि भोपाल के इस मामले को ही एक नमूना मानकर इस पर टीवी चैनलों के कवरेज की जांच करवाए, और उस पर केन्द्र सरकार को कार्रवाई करने के लिए कहे। आज टीवी समाचार चैनलों का एक बड़ा हिस्सा देश के किसी भी साम्प्रदायिक संगठन के मुकाबले अधिक साम्प्रदायिक हो चुका है, और वह किसी भी दूसरे साम्प्रदायिक संगठन के मुकाबले अधिक सक्रिय भी है। देश में बनाए गए बड़े कड़े कानून धरे हुए हैं, और हिंसा भडक़ाने की यह हरकतें चल रही हैं जिनके बारे में मुख्य न्यायाधीश यह भी कह चुके हैं कि मीडिया पर मानो एक मुकदमा चलाया जाता है, और उसके दबाव में जजों के लिए भी काम करना मुश्किल हो जाता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, हम आज की बात को खत्म करते हुए एक बार फिर दुहरा रहे हैं कि अखबारों को मीडिया नाम की इस बड़ी छतरी से बाहर निकल जाना चाहिए, और अपने को टीवी से अलग, अपने पुराने नाम प्रेस का इस्तेमाल करना चाहिए। नफरती टीवी मीडिया के खिलाफ एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगनी चाहिए, और देखें कि मौजूदा मुख्य न्यायाधीश अपने कार्यकाल के इन आखिरी कुछ हफ्तों में उस पर कुछ करते हैं या नहीं।
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