संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आदिवासी दिवस का पाखंड खत्म करने की जरूरत, और एक लंबी लड़ाई लडऩे की भी
09-Aug-2022 3:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आदिवासी दिवस का पाखंड खत्म करने की जरूरत, और एक लंबी लड़ाई लडऩे की भी

आज 9 अगस्त को दुनिया भर में मूल निवासियों का अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाया जा रहा है। हिन्दुस्तान में इन्हें आदिवासी कहा जाता है, लेकिन एक राजनीतिक सोच इस शब्द के खिलाफ है, और वह इन्हें वनवासी कहने पर अड़ी रहती है। खैर, आज की चर्चा इस छोटी सोच से परे की है, और आदिवासियों के मुद्दे पर इस सीमित जगह में एक व्यापक बात करने के लिए है। 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर दुनिया भर में बिखरी आदिवासियों या मूल निवासियों की दुनिया के अस्तित्व को मान्यता देने के हिसाब से, उनका सम्मान करने के हिसाब से 9 अगस्त को यह दिन मनाना तय किया गया। हिन्दुस्तान में भी आदिवासियों की एक बड़ी आबादी है, और आज इस सालाना जलसे में क्या सचमुच उनके लिए खुशी मनाने का कुछ है?  

दुनिया के विकसित देशों में पिछले कुछ दशकों में यह जागरूकता पैदा हुई है कि वहां के शहरी शासकों ने लोकतंत्र के नाम पर, और शहरी-संगठित धर्म के नाम पर मूल निवासियों के साथ पीढिय़ों तक जो जुल्म किया, उनके लिए आज की सरकार, और संसद को माफी मांगनी चाहिए। कुछ ऐसा ही कैथोलिक ईसाईयों के मुखिया पोप को भी लगा, और उन्होंने अभी कनाडा जाकर वहां के मूल निवासियों से माफी मांगी कि चर्च ने पीढिय़ों तक उनके साथ उन्हें ‘शहरी और सभ्य’ बनाने के नाम पर जुल्म किए। आज जब हिन्दुस्तान में केन्द्र और राज्य सरकारों की तरफ से आदिवासी समुदाय को बधाई दी जा रही है, तो ऐन उसी वक्त उन पर तरह-तरह के गैरकानूनी, कानूनी, और संवैधानिक जुल्म जारी हैं। लोगों को लग सकता है कि भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में संवैधानिक जुल्म कैसे ढहाए जा सकते हैं, लेकिन इस बात के पुख्ता सुबूत हैं कि इस देश में आदिवासियों पर गैरकानूनी मार जितनी पड़ रही है, उतनी ही मार उन शहरी कानूनों की पड़ रही है जो कि शहरियों ने अपनी सहूलियत के लिए बनाए हैं, और जिन्हें आदिवासियों पर लादा जा रहा है।

छत्तीसगढ़ में ही आदिवासी इलाके, हसदेव, के सबसे घने जंगल आज केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, और अडानी के निशाने पर हैं, और वहां की प्रकृति का क्या होगा, वहां बसे लोगों का क्या होगा, और छत्तीसगढ़ के इस फेंफड़े का क्या होगा, कुछ भी तय नहीं है। इसी छत्तीसगढ़ के एक दूसरे सिरे पर बस्तर में आदिवासियों के साथ हिंसा का एक लंबा इतिहास है, और पन्द्रह बरस की भाजपा सरकार के वक्त जो जुल्म हुए हैं, आदिवासियों को थोक में मारा गया है, उसकी जांच रिपोर्ट आ जाने के बाद भी मौजूदा कांग्रेस सरकार उन पर कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। आदिवासियों के मामले में इन दो अलग-अलग पार्टियों के रूख में क्या फर्क समझा जाए? क्या कुछ आदिवासियों को मंत्री बना देने से ही देश-प्रदेश में आदिवासियों को हक मिल जाते हैं? हकीकत तो यह है कि दलित, आदिवासी, या ओबीसी, किसी भी तबके के नेता सत्ता पर पहुंचने के बाद अपने वर्ग-चरित्र को खो बैठते हैं, अपने वर्गहित को इस्तेमाल किए गए कंडोम की तरह फेंक देते हैं, और सत्ता-चरित्र में ढल जाते हैं। इसलिए किसी सरकार की आदिवासी नीति वही मानी जानी चाहिए जो काम उसने किए हैं। आज भारत सरकार का एक फैसला खबरों में अधिक नहीं आया है, खुद आदिवासी समाज के भीतर इस पर अधिक चर्चा नहीं हुई है, लेकिन आदिवासियों के बीच के कुछ जागरूक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस बात को उठाया है, और इस बात पर तुरंत ही आगे व्यापक चर्चा होनी चाहिए।

अंग्रेजों के वक्त हिन्दुस्तान में 1872 से हर दस बरस में की जा रही जनगणना को अगर देखें तो शुरू से लेकर 1941 तक जनगणना में आदिवासियों, या मूल निवासियों के लिए अलग से एक दर्जा था। बाकी धर्मों के लिए अलग कॉलम थे, और आदिवासियों के लिए अलग कॉलम। पूरी दुनिया की तरह हिन्दुस्तान के आदिवासी भी किसी भी आधुनिक, शहरी, और संगठित धर्म से अलग थे, और अंग्रेजों की जनगणना में उन्हें वैसा रखा भी गया था। लेकिन आजादी के बाद 1951 की पहली जनगणना में आदिवासियों का कॉलम हटा दिया गया, और ‘अन्य’ नाम के कॉलम में उन्होंने अपनी जगह पाई। वह सिलसिला भी 2011 तक चलते रहा, जब छह प्रमुख शहरी धर्मों को कॉलम मिले, और आदिवासियों को ‘अन्य’ कॉलम में खड़े रहने की जगह मिली। अभी झारखंड की एक आदिवासी कार्यकर्ता गीताश्री उरांव ने एक इंटरव्यू में इस मुद्दे को उठाया है कि 2021 की जनगणना में इस ‘अन्य’ कॉलम को ही खत्म कर दिया गया है, और इसके साथ ही आदिवासियों की पहचान ही जनगणना में खत्म हो गई है। कोरोना की वजह से यह जनगणना समय पर नहीं हो पाई है, और 2023 में यह होने वाली है। लेकिन आज सवाल यह उठता है कि अगर हाल के तीन हजार बरस में पैदा हुए शहरी धर्मों के बीच दसियों हजार बरस से चले आ रहे आदिवासियों की पहचान को बांटने पर इस देश की सरकार आमादा है, तो फिर आज आदिवासी दिवस मनाने की क्या जरूरत है?

संविधान में आदिवासी इलाकों में से कुछ इलाकों में आदिवासी समुदायों, और गांवों को विशेष अधिकार दिए गए हैं। उनकी ग्रामसभाओं के फैसलों को शहरी लोकतंत्र भी नहीं कुचल सकता। लेकिन हो इसका ठीक उल्टा रहा है, छत्तीसगढ़ में ही राज्यपाल ने पिछली रमन सिंह सरकार को भी चिट्ठियां लिखी थीं कि आदिवासी अधिसूचित क्षेत्रों में राज्य सरकार अपने अधिकार से बाहर जाकर काम कर रही है। और वैसी ही चिट्ठियां राज्यपाल ने आज की कांग्रेस सरकार को भी लिखी हैं। लेकिन इन चिट्ठियों ने सरकारों को आदिवासी अधिसूचित क्षेत्रों में अपने फैसले लादने से नहीं रोका है, और छत्तीसगढ़ के एक के बाद एक कई राज्यपालों ने सरकारों को चिट्ठियां लिखने से अधिक कुछ नहीं किया। राज्यपालों ने तो आदिवासियों की थोक में की गई हत्याओं की जांच रिपोर्ट पर भी कार्रवाई करने को नहीं कहा। यह पूरा सिलसिला अपने आपमें भयानक है, लेकिन यह अधिक भयानक इसलिए है कि देश भर की सरकारें आदिवासियों का भला करने का दावा भी करती हैं, लेकिन उनके बुनियादी मानवाधिकार भी कुचले जा रहे हैं, उनका कत्ल किया जा रहा है।

जब कभी कोई दिन मनाया जाता है, तो उस दिन ये तमाम बातें और तल्खी से सूझती हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि अभी चार दिन बाद हिन्दुस्तान में आजादी की कमी की बात सूझेगी। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, और किसी भी तरह के दिवस मनाने का पाखंड भी खत्म होना चाहिए। ऐसे दिन मनाना धर्मों के उन दिनों की तरह है जब अपने किए जुर्म को पाप मानकर उनका प्रायश्चित किया जाता है, और फिर धुली हुई साफ आत्मा पाकर अगले एक साल फिर जुर्म किया जाता है। कुछ ऐसा ही आजादी की सालगिरह पर भी होता है, और आदिवासी दिवस पर भी। हिन्दुस्तान में एक मजबूत किसान आंदोलन ने यह साबित किया है कि बिना हिंसा के लोकतांत्रिक आंदोलनों से हक किस तरह पाया जा सकता है। आज हिन्दुस्तान में ऐसे ही आदिवासी आंदोलन की जरूरत है, क्योंकि ऑस्ट्रेलिया या कनाडा की सरकारों की तरह हिन्दुस्तान की सरकारें आदिवासियों से अगले सौ बरस में भी माफी तो मांगने से रहीं। और आदिवासियों को ऐसी किसी माफी का इंतजार भी नहीं करना चाहिए, ऐसा इंतजार मंदिरों के बाहर दाखिले के इंतजार में खड़े दलितों के इंतजार की तरह का होगा जो कि पाखंड के अलावा कुछ नहीं है। इसलिए आदिवासियों को इस देश में रही-सही अदालती संभावनाओं पर भी काम करना चाहिए, और सडक़ की लड़ाई भी लडऩी चाहिए। आज जब उन्हें संविधान की नोंक पर मजबूर किया जा रहा है कि वे तीन हजार बरस में पैदा हुए धर्मों में से किसी एक को मानें, तो उन्हें संविधान के इस बेजा इस्तेमाल के खिलाफ भी खुलकर लडऩा चाहिए।
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