संपादकीय
भारत में जन्मे और पश्चिम में बसे विख्यात लेखक सलमान रुश्दी पर कल अमरीका के न्यूयॉर्क में एक कार्यक्रम के मंच पर एक नौजवान ने जाकर चाकू से हमला किया, और बुरी तरह जख्मी कर दिया। रुश्दी लंबे समय से मुस्लिम या इस्लामी आतंकियों के निशाने पर थे। उनकी एक किताब ‘सैटेनिक वर्सेज’ पर 1988 में ईरान ने उनकी मौत का फतवा जारी किया था, जो कि ईरान के सत्तारूढ़ धार्मिक मुखिया की तरफ से सार्वजनिक रूप से दिया गया था। इस किताब को मोहम्मद पैगंबर का अपमान करार दिया गया था, और रुश्दी के कत्ल पर दसियों लाख डॉलर का ईनाम भी रखा गया था। एक विश्लेषण यह कहता है कि ईरान और इराक के बीच आठ साल चली लड़ाई खत्म हुई ही थी, और ईरान के हर घर में किसी न किसी शहीद की तस्वीर टंगी थी, देश का बुरा हाल था, सिर्फ कब्रिस्तान पनपे हुए थे, ऐसे में वहां के धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी को रुश्दी की शक्ल में एक दुश्मन खड़ा करके लोगों के दुख-दर्द को भुलवाने का एक जरिया सूझा था, और उन्होंने ईरानियों को इस धार्मिक कट्टरता के उन्माद में झोंक दिया था। इसका एक असर यह भी हुआ था कि बात की बात में दुनिया के दर्जनों देशों में मुस्लिमों के बीच बिना इस किताब को पढ़े हुए उसका लेखक ईशनिंदक साबित हो गया था, और उसके कत्ल की मांग करते हुए चारों तरफ जुलूस निकलने लगे थे। दशकों से रुश्दी कुछ हमदर्द देशों की हिफाजत के घेरे में जी रहे थे, लेकिन धार्मिक उन्माद और नफरत को जानने वाले यह भी जानते थे कि यह दिन एक न एक दिन आना ही था। इस हमले के बाद रुश्दी अस्पताल में वेंटिलेटर पर हैं, धर्मान्ध लोग खुशियां मना रहे हैं, और समझदार लोग इस बात की फिक्र कर रहे हैं कि एक धर्म के हत्यारों की कामयाबी से दूसरे धर्म के कट्टर लोगों को भी हत्यारा बनने का हौसला मिलता है।
यह हमला एक इंसान या एक लेखक पर नहीं है, यह सोच की आजादी पर हमला है। एक लेखक अपने काल्पनिक लेखन में कुछ किरदार गढ़ता है और उन्हें अपनी आस्था का अपमान मानते हुए कुछ कट्टर और धर्मान्ध लोग उसके कत्ल का फतवा जारी कर देते हैं। यह तो रुश्दी पश्चिमी देशों की सरकारी हिफाजत में जी रहे थे, वरना यह हमला कब का हो चुका रहता। लोगों को याद रखना चाहिए कि फ्रांस की एक व्यंग्य पत्रिका में मोहम्मद पैगंबर पर बनाए गए कार्टूनों का विरोध इस कदर हिंसक हुआ था कि पेरिस में हथियारबंद लोगों ने इसके दफ्तर पर हमला करके दर्जन भर लोगों को मार डाला था, और दर्जन भर दूसरे लोग घायल कर दिए गए थे। इन कार्टूनों के खिलाफ योरप के दूसरे देशों में भी जगह-जगह तरह-तरह के हमले हुए थे, और इसने योरप में बसे हुए मुस्लिमों, और वहां पहुंचने वाले मुस्लिम शरणार्थियों की जिंदगी का सबसे बड़ा नुकसान किया था। यह बात समझने की जरूरत है कि किसी धर्म के नाम पर जो हमला होता है, वह बहुत बार तो सबसे बड़ा नुकसान उसी धर्म को मानने वाले लोगों को करता है। आज जो लोग इस्लाम को मानते हुए भी अलग-अलग देशों में वहां के कानून को भी मानते हुए अमन-चैन से जी रहे हैं, उनके खिलाफ भी इसी तरह की दहशत आज चारों तरफ फैलेगी, और दूसरे धर्मों के कुछ कट्टर लोग हो सकता है कि मुस्लिमों पर हिंसक या आर्थिक किसी तरह के हमले भी करें।
यह बात सिर्फ ईरान की नहीं है, बल्कि उन तमाम देशों की है जहां पर किसी एक धर्म, या कई धर्मों के लोग अपनी आस्था को देश और दुनिया के कानून से ऊपर मानकर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। आज अगर इस्लामिक आतंक को देखा जाए, तो उसके सबसे अधिक शिकार दुनिया के मुस्लिम ही हैं। आज जिस सलमान रुश्दी को लेकर यह बात हो रही है वह मुम्बई में एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार में ही पैदा हुए थे, और मुम्बई की एक ईसाई स्कूल में पढ़े थे। वे कुछ अरसा पाकिस्तान में भी अपने परिवार के साथ रहे थे, और अब वे इस्लामी आतंकियों के निशाने पर हैं। पिछले दशकों में रुश्दी दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के एक प्रतीक की तरह भी बन गए थे, और उन्होंने अपने विचारों को नहीं छोड़ा था। अभी से कुछ घंटे पहले हुआ यह हमला दुनिया में हर किस्म की कट्टर ताकतों को मजबूती देगा, और कई दूसरे आतंकी गिरोह और धर्मान्ध लोग इस बात को लेकर हीनभावना के शिकार हो जाएंगे कि वे इस काम को नहीं कर पाए।
हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र के लिए ऐसी कट्टरता एक बहुत बड़ा खतरा इसलिए है कि यहां बीते दशकों में अलग-अलग मुद्दों को लेकर अलग-अलग लोगों के खिलाफ जुबान काट देने और सिर काटकर लाने के फतवे दिए गए, ऐसी हिंसा पर ईनाम रखा गया। हिन्दुस्तान के सभी तरह के धार्मिक आतंकियों को रुश्दी पर हमले से एक प्रेरणा मिलेगी, और मुस्लिमों के खिलाफ कट्टरता की जो बात कही जाती है, उसे एक मजबूती मिलेगी। यह सिलसिला किसी एक व्यक्ति या किसी एक धर्म तक सीमित नहीं है, यह संक्रामक रोग की तरह है, और समाज के बीच धार्मिक कट्टरता, और साम्प्रदायिकता को बढ़ाते चलने वाला है। हिन्दुस्तान उन देशों में से था जिसने दुनिया के इस्लामिक और मुस्लिम देशों से भी पहले रुश्दी की इस किताब पर रोक लगा दी थी, और वह आज भी जारी है। भारत की बड़ी मुस्लिम आबादी को देखते हुए राजीव गांधी की सरकार ने यह रोक लगाई थी, और उसने बहुत से लोगों को हैरान भी किया था कि ऐसी तेज रफ्तार प्रतिक्रिया तो किसी इस्लामिक देश की भी नहीं थी। इतिहास बताता है कि भारत पहला देश था जिसने इस उपन्यास को बैन कर दिया था, इसके बाद फिर पाकिस्तान और दूसरे इस्लामी देशों ने रोक लगाई।
यह मौका इस बात को भी समझने का है कि क्या किसी सरकार को इस रफ्तार से रोक लगानी चाहिए, या अपने देश के लोगों को उदारता की बात भी समझानी चाहिए। जब सरकार ही तेजी से धर्मान्धता को मान्यता देती है, तो फिर समाज के भीतर किसी उदारता की अधिक गुंजाइश बचती नहीं है। इस हमले के बाद लोगों में बड़े पैमाने पर चर्चा शुरू हो चुकी है, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नए सिरे से दुबारा बात बढऩी चाहिए।
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