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श्रवण गर्ग लिखते हैं - नीतीश को मदद चाहिए ? भाजपा में भी विपक्ष है न !
18-Aug-2022 6:28 PM
श्रवण गर्ग लिखते हैं - नीतीश को मदद चाहिए ? भाजपा में भी विपक्ष है न !

-श्रवण गर्ग

प्रधानमंत्री बारह जुलाई को पटना में थे। वे वहाँ बिहार विधान सभा के शताब्दी समारोह में भाग लेने के लिए पहुँचे थे। इस अवसर पर मोदी की मुलाक़ात तेजस्वी यादव से होनी ही थी। तेजस्वी के साथ बातचीत में प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय जनता दल नेता को सलाह दे डाली कि उन्हें अपना वज़न कुछ कम करना चाहिए। तेजस्वी ने मोदी के चैलेंज को मंज़ूर कर लिया। एक महीने से भी कम वक्त में उन्होंने न सिर्फ़ खुद का वज़न कम करके उसे नीतीश कुमार के साथ बाँट लिया, बिहार का राजनीतिक होमोग्लोबिन भी दुरुस्त कर दिया।

दो मत नहीं कि नीतीश ने तेजस्वी के साथ मिलकर मोदी की 2024 में वापसी के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। तेजस्वी के साथ मिलकर किए गए राजनीतिक विस्फोट के बाद जब पत्रकारों ने नीतीश से सवाल किया था कि क्या वे 2024 में पीएम पद के उम्मीदवार हैं ? उनके द्वारा एक-एक शब्द तौलकर दिया गया जवाब था :’ मैं किसी चीज़ की उम्मीदवारी की दावेदारी नहीं करता। केंद्र सरकार को 2024 के चुनाव में अपनी सम्भावना को लेकर चिंता करनी चाहिए।’’

लाल क़िले से अपने बहुचर्चित उद्बोधन के दो दिन बाद ही मोदी ने चिंता प्रकट करने की शुरुआत भी कर दी। नितिन गडकरी और शिवराज सिंह चौहान पार्टी की सर्वोच्च नीति-निर्धारक इकाई संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति से बाहर कर दिए गए। इन दोनों ही नेताओं और कुछ अन्य मुख्यमंत्रियों -यथा हरियाणा और हिमाचल-के भविष्य को लेकर नई सूचनाएँ भी जल्द ही प्राप्त हो सकतीं हैं। पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधि के तौर पर जिन नए लोगों की संसदीय बोर्ड में भर्ती की गई है उससे पार्टी की ग़रीबी और बेचैनी दोनों ही उजागर होती है।

जिन राज्यों में अगले साल विधानसभा-चुनाव होने हैं वे मोदी की 2024 में वापसी के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण हैं। 2024 के लिहाज़ से उड़ीसा और आंध्र को फ़िलहाल छोड़ भी दें और वर्तमान में विपक्षी दलों की सरकारों वाले सिर्फ़ नौ राज्यों (बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, पंजाब, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड ) में लोकसभा की सीटों की ही गिनती लगा लें तो आँकड़ा 221 का होता है। उड़ीसा और आंध्र को भी जोड़ लें तो कुल सीटें 267 हो जातीं हैं।

उक्त राज्यों में केवल बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना में ही भाजपा मोदी के करिश्मे के दम पर विपक्ष को थोड़ी चुनौती दे सकती है, बाक़ी राज्यों में नहीं। अन्दाज़ लगाया जा सकता है कि सीटों की ऐसी स्थिति में भाजपा अपने 303 के आँकड़े को कैसे क़ायम रख पाएगी ? नीतीश कुमार ने 2024 को लेकर इतनी बड़ी टिप्पणी करने से पहले कुछ तो होमवर्क किया ही होगा।

जो लोग नीतीश कुमार की राजनीति को जानते हैं वे दावे से कह सकते हैं कि ‘सुशासन बाबू’ की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ नरेंद्र मोदी से भिन्न नहीं हैं।इसीलिए जब बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने आरोप लगाया कि नीतीश उपराष्ट्रपति का पद चाहते थे और उनकी माँग भाजपा द्वारा मानी नहीं गई तो किसी ने भी उस पर यक़ीन नहीं किया। नीतीश कुमार द्वारा भाजपा से उपराष्ट्रपति पद की माँग करना ऐसा ही होता जैसे नरेंद्र मोदी 2024 में देश का राष्ट्रपति बनने की इच्छा व्यक्त करें।

दो मत नहीं कि भ्रष्टाचार के मामलों में ममता बनर्जी के करीबी सहयोगियों पर हुई केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई, गिरफ़्तारियों और राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के चुनावों में तृणमूल कांग्रेस द्वारा निभाई गई संदेहास्पद भूमिका ने 2024 के चुनाव में मोदी के ख़िलाफ़ विपक्ष का नेतृत्व करने के सारे समीकरण बदल दिए हैं।ममता ने तात्कालिक रूप से ही सही अपने को विपक्षी एकता के परिदृश्य से भी बाहर कर लिया है। सोनिया, राहुल और प्रियंका ने सरकार के ख़िलाफ़ सड़क की लड़ाई को चाहे नहीं छोड़ा हो, गांधी परिवार के ख़िलाफ़ जाँच एजेंसियों का दबाव बराबर बना हुआ है। मोदी द्वारा लाल क़िले से घोषित की गई परिवारवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के असली परिणाम सामने आना अभी शेष हैं। निशाने पर गांधी परिवार ही हुआ तो देश को कोई आश्चर्य नहीं होगा।

उपरोक्त परिस्थितियों में नीतीश अगर विपक्ष की अगुवाई के अवसर को चूक जाते और बिहार में भाजपा के साथ गठबंधन में ही बने रहते तो कहा नहीं जा सकता था कि 2024 के परिणामों के बाद उनका और जद(यू) का भविष्य क्या बचता ! नीतीश कुमार ने इतना तो सुनिश्चित कर ही दिया है कि वे चाहे विपक्ष की ओर से मोदी के ख़िलाफ़ सशक्त दावेदार नहीं बन सकें, जद(यू) और राजद सहित तमाम क्षेत्रीय दलों को भाजपा के बुलडोज़र के नीचे आने से उन्होंने बचा लिया है। इसी तरह, झारखंड की सोरेन सरकार भी आगे की किसी तारीख़ तक के लिए सुरक्षित हो गई है।

इसे महज़ संयोग नहीं माना जा सकता कि नीतीश के पटना में किए गए धमाके के दो दिन बाद ही एक मीडिया समूह द्वारा प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को लेकर किया गया सर्वे नई दिल्ली में जारी हो गया। सर्वे में दावा किया गया है कि देश के 53 प्रतिशत लोग अभी भी मोदी को ही 2024 में प्रधानमंत्री के पद पर देखना चाहते हैं। सर्वे में लोकप्रियता के दूसरे क्रम पर राहुल (नौ प्रतिशत)और तीसरे पर केजरीवाल (सात प्रतिशत) को बताया गया है। मोदी को चुनौती देने वालों में भी ममता और राहुल के नामों का ही सर्वे में ज़िक्र है। उल्लेखनीय यह है कि नीतीश कुमार को कहीं पर भी दौड़ में नहीं बताया गया है।

विभिन्न समस्याओं को लेकर जनता में व्याप्त व्यापक असंतोष के बावजूद मोदी की लोकप्रियता की विश्वसनीयता के आँकड़ों पर चाहे जितना संदेह व्यक्त किया जाए, संघ और भाजपा द्वारा पिछले आठ सालों में विकसित किए गए तंत्र ने व्यवस्था के कोने-कोने पर क़ब्ज़ा कर लिया है। विपक्ष के पूरे ताने-बाने को तहस-नहस कर दिया गया है। कहा जाता है कि मोदी सरकार को बचाने और 2024 में उसकी वापसी के लिए देश और दुनिया की बड़ी-बड़ी ताक़तें अपना सब कुछ दांव पर लगा देंगी।

नीतीश राजनीति में इंदिरा गांधी के आपातकाल के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले जेपी युग की उपज हैं। इस समय की परिस्थितियाँ आपातकाल से भिन्न हैं और कोई जेपी भी देश के पास नहीं है। हक़ीक़त यह है कि देश को इस समय तलाश प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के विकल्प से ज़्यादा किसी जेपी की है।नीतीश कुमार अगर साहस दिखाएं तो वे उस तलाश को पूरा कर सकते हैं। परिवर्तनों के लिए देशव्यापी संघर्ष की ज़मीन भी बिहार में ही उपलब्ध हो सकती है। लालू यादव ने तीस साल पहले आडवाणी के रथ को रोकने का साहस दिखाया था। नीतीश अगर संकल्प कर लें तो लालू के बेटे की मदद से मोदी के रथ को रोकने का साहस दिखा सकते हैं। नीतीश के पास अब खोने के लिए अपनी बची हुई आज़ादी के अलावा कुछ नहीं है। हो सकता है आज के आडवाणी भी उत्सुकता से नीतीश के तेजस्वी क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हों।

इस बात को अवश्य संयोग माना जा सकता है कि मोदी की असीमित महत्वाकांक्षाओं के रथ को रोकने में नीतीश की मदद के लिए इंदिरा गांधी के आपातकाल के जमाने की तरह ही कोई विपक्ष भाजपा के भीतर भी करवटें ले रहा हो! यह साफ़ होना अभी बाक़ी है कि उस मदद का सामने से नेतृत्व कौन करेगा और पीठ पर किस ताक़त का हाथ होगा !

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