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रायपुर, 22 अगस्त। ‘‘हर धर्म की जड़ ध्यान हुआ करती है। अगर ध्यान हमारे जीवन में जुड़ा हुआ नहीं है तो धर्म-आराधना भी हम अच्छे ढंग से कर नहीं पाते। इसीलिए कहा गया है- जो भीतर गया वो भी तर गया। और जो भीतर नहीं गया वो डूब गया। अगर हमें अपने जीवन को तारना है तो उसके लिए हमें अपने भीतर उतरना ही होगा।
ध्यान से बढक़र धर्म का इस दुनिया में कोई और सरल मार्ग नहीं है। ध्यान एक ऐसा मार्ग है जिसमें करना कुछ नहीं होता, बस आंख बंद करके भीतर में ध्यान में डूबना होता है। इसीलिए ज्ञानियों ने कहा है कि सारे तीर्थों की यात्रा की लेकिन भीतर के तीर्थ की यात्रा न की तो तीर्थयात्रा करना भी अधूरी है।
सारे मंदिरों में गए लेकिन इस भीतर के मंदिर में अगर ना गए तो सारे मंदिरों में जाना भी अधूरा रह जाता है। सबसे बड़ा मंदिर हमारा भीतर का मन और अन्तरहृदय है। भगवान श्रीमहावीर ने जब अपने जीवन में साधना व मुक्ति के मार्ग पर अपने कदम बढ़ाए तब से उन्होंने सबसे ज्यादा जिस तत्व व धर्म को जिया तो वह है ध्यान का धर्म। उन्होंने ध्यान को इतनी पराकाष्ठा के साथ जिया कि ध्यान करते-करते ही उन्हें परम ज्ञान हो गया। अगर अशांत मन को ठीक करने का कोई राजमार्ग है तो वह है ध्यान। ’’
ये प्रेरक उद्गार डॉ. मुनिश्री शांतिप्रिय सागरजी महाराज ने आउटडोर स्टेडियम बूढ़ापारा में जारी दिव्य सत्संग जीने की कला के अंतर्गत अध्यात्म सप्ताह के चौथे दिन गुरूवार को ‘ध्यान और योग का कैसे आता है चमत्कारी परिणाम’ विषय पर व्यक्त किए। आज धर्मसभा में राष्ट:संत श्रीललितप्रभ सागरजी एवं डॉ. मुनिश्री के सानिध्य में हजारों श्रद्धालुओं को ध्यान, योग एवं प्राणायाम के सरल अभ्यास कराए गए।
राष्ट:संत चंद्रप्रभ सागरजी रचित ध्यान की महत्ता प्रतिपादित करते अन्तरआत्मा से मुलाकात कराने वाले गीत ‘अपने हृदय में ऐसी ज्योति जलाइए, रौशन हो जाए जीवन अमृत हो जाए...’ से योग सत्र एवं धर्मसभा का शुभारंभ करते हुए डॉ. मुनिश्री शांतिप्रिय सागरजी ने कहा कि मेडिशिन से बचना चाहते हैं तो मेडिटेशन की ओर कदम बढ़ाइए।
योग और ध्यान हमारे जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक दोनों के कल्याण के लिए है। अगर हम इसे समझते, सीखते और जीवन से जोड़ते हैं तो यह मानकर चलिए कि हमारे जीवन में विकास की वर्तमान रफ्तार अभी जितनी है, उसे हम सौ गुना और हजार गुना बढ़ा सकते हैं। भगवान श्रीमहावीर ने अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए कहा था कि जैसे वृक्ष में जड़ मुख्य और महत्वपूर्ण होती है और शरीर में सिर महत्वपूर्ण हुआ करता है वैसे ही जीवन में सारे धर्मों में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण ध्यान हुआ करता है।
मन की सारी समस्याओं का समाधान है ध्यान
मुनिश्री ने कहा कि 2500 साल पहले भी जब इंसान का मन अशांत था, तो उससे ध्यान का प्रयोग कराया गया था। और अगर आज भी मन अशांत है तो हमें ध्यान का प्रयोग करना होगा। मन की सारी समस्याओं का समाधान एकमात्र ध्यान ही है। ध्यान की परम्परा का जन्म भारत में हुआ है और आज ध्यान का आनंद पूरे विश्व में लिया जा रहा है। भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विरासत है योग और ध्यान का मार्ग। अक्सर हम सबका ध्यान रखते हैं लेकिन खुद का ध्यान रखना भूल जाया करते हैं। हमारी यह विचित्र अवस्था है कि हम बाहर भटकते रहते हैं, बाहर अपना समाधान खोजते हैं। लेकिन हमारे महापुरुष कहते हैं कि समाधान बाहर नहीं, समाधान तो हमारे भीतर है।
सुख का स्रोत साधनों में नहीं हमारे भीतर है
मुनिश्री ने बताया कि संसार में दो तरह की चीजें होती हैं- एक सुख के साधन और दूसरा सुख के स्रोत। हमारी सबसे बड़ी चूक यह है कि हम साधनों में ही सुख खोजते हैं और परिणाम यह आता है कि हमें सुख कभी नसीब नहीं होता है। सुख के साधन कितने ही बढ़ा लो-इक्_े कर लो, लेकिन फिर भी हमारा मन अतृप्त का अतृप्त ही बना रहता है। हमारे भारतीय मनीषियों ने हमें यह मंत्र दिया कि सुख बाहर नहीं है, सुख तो हमारे भीतर ही है। सुख का मूल स्रोत हमारे भीतर का आनंद है-सुकून है, जिसे यह मिल जाता है तो उसकी बाहर की भागा-दौड़ी सब शांत हो जाती है। जब परमात्मा अंदर है तो बाहर कितनी ही खोज कर लो, वह कभी मिलने वाला नहीं है। अगर हमें अपनी अन्तरआत्मा और परमात्मा के दर्शन करने हैं तो हमें ध्यान के मार्ग पर अपने कदम बढ़ाने ही होंगे। याद रखिएगा, अगर भारत की सबसे बड़ी देन कोई है तो वह है सुख के स्रोत की खोज। और सुख के स्रोत खोजने में अगर सबसे बड़ा योगदान है योग और ध्यान का। अगर आप मेडिशिन से बचना चाहते हैं तो जीवन में मेडिटेशन का मार्ग अपनाइए।