संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जेएनयू वीसी के जाति और मनुस्मृति विरोधी भाषण के पीछे का राज
23-Aug-2022 6:07 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जेएनयू वीसी के जाति और मनुस्मृति विरोधी भाषण के पीछे का राज

फोटो : सोशल मीडिया

दुनिया में अपनी शैक्षणिक उत्कृष्टता के साथ-साथ लंबे समय से वामपंथी रूझान के लिए पहचाने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की साख बड़ी ऊंची है। हाल के बरसों में किसी भी वामपंथी रूझान के खिलाफ देश भर में चलाए जा रहे अभियान के तहत जेएनयू में भी केन्द्र सरकार की तरफ से दक्षिणपंथी कोशिशें हुईं, और वहां कुलपति से लेकर कोर्स तक कई फैसलों पर सरकारी रूझान की झलक दिखाई दी। लेकिन अभी मोदी सरकार की मनोनीत कुलपति प्रोफेसर शांतिश्री धुलिपुडी पंडित का एक लंबा व्याख्यान अचानक खबरों में आया है जो कि दक्षिणपंथी लोगों में खासी असुविधा पैदा कर सकता है। वे दिल्ली में केन्द्र सरकार की एक अम्बेडकर व्याख्यान माला के दौरान ‘जेंडर जस्टिस पर अम्बेडकर के विचार : समान नागरिक संहिता की व्याख्या’ विषय पर बोल रही थीं। उनकी बातों को काफी खुलासे से यहां लिखना पड़ेगा जो कि खबर सरीखा लगेगा, लेकिन उसके बिना उस पर कोई टिप्पणी करना ठीक नहीं होगा।

वाइस चांसलर शांतिश्री ने कहा कि हिन्दुओं के कोई भी देवता अगड़ी जातियों के नहीं हैं, भगवान शिव भी दलित या आदिवासी रहे होंगे, भगवान जगन्नाथ भी आदिवासी थे, और ऐसी स्थिति में अगर हम (हिन्दू) अभी भी जातियों को लेकर भेदभाव बनाए हुए हैं, तो यह बहुत ही अमानवीय है। उन्होंने भारत की हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था पर तगड़ी मार करते हुए यह कहा है कि हमारे देवताओं की उत्पत्ति को मानव शास्त्र या वैज्ञानिक लिहाज से समझना चाहिए, कोई भी देवता ब्राम्हण नहीं है, सबसे ऊंचा देवता भी क्षत्रिय है। उन्होंने कहा कि भगवान शिव भी एससी या एसटी समुदाय के होंगे क्योंकि वे श्मशान में गले में सांप डालकर बैठते हैं, उनके पास पहनने के लिए कपड़े भी बहुत कम है, मुझे नहीं लगता कि ब्राम्हण श्मशान में बैठ सकते हैं। वाइस चांसलर ने आगे कहा कि लक्ष्मी, शक्ति, या भगवान जगन्नाथ भी मानवविज्ञान के लिहाज से अगड़ी जाति के नहीं हैं, ऐसे में आज समाज इस जाति व्यवस्था को क्यों ढो रहा है?

उन्होंने महिलाओं के बारे में कहा कि मनुस्मृति के अनुसार सभी महिलाएं शूद्र हैं, इसलिए कोई भी महिला ये दावा नहीं कर सकतीं कि वे ब्राम्हण या कुछ और हैं। महिलाओं को जाति केवल पिता या विवाह के जरिये पति से मिलती है, और मुझे लगता है कि ये पीछे ले जाने वाला विचार है। शांतिश्री ने आगे कहा कि महिलाओं के लिए आरक्षण की जरूरत है क्योंकि आज भी देश के 54 विश्वविद्यालयों में से कुल 6 में महिला कुलपति हैं। वाइस चांसलर का मनुस्मृति के बारे में दिया गया यह बयान इस संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए कि अभी-अभी एक हाईकोर्ट महिला जज ने मनुस्मृति को महिलाओं का सम्मान बढ़ाने वाला कहा था। जेएनयू वीसी ने कहा कि कुलपति के लिए कुलगुरू शब्द का इस्तेमाल होना चाहिए, और वे विश्वविद्यालय कार्य परिषद में यह प्रस्ताव रखेंगी।

लेकिन जेएनयू वीसी का केन्द्र सरकार के कार्यक्रम में समान नागरिक संहिता को लेकर अम्बेडकर के विचारों पर दिया गया यह व्याख्यान इतना मासूम भी नहीं दिख रहा है कि वह हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था पर चोट करने, और मनुस्मृति की आलोचना करने के लिए आयोजित किया गया हो। वाइस चांसलर की आगे की बात इस कार्यक्रम के रूझान को साफ करती है जिसमें वे कहती हैं कि जेंडर जस्टिस के प्रति सबसे बड़ा सम्मान यह होगा कि हम बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की महत्वाकांक्षा के अनुरूप समान नागरिक संहिता लागू करें। उन्होंने मिसाल दी कि गोवा में पुर्तगालियों ने अपने शासन के दौरान इसे सभी धर्मों के लिए लागू किया था, और सभी ने इसे मंजूर कर लिया है, तो बाकी देश में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? उन्होंने कहा कि यह नहीं हो सकता कि देश में अल्पसंख्यकों को सारे अधिकार दे दिए जाएं, लेकिन बहुसंख्यकों को वे सभी अधिकार न मिले। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर ऐसा होता रहा तो एक दिन यह चीज इतनी उल्टी पड़ जाएगी कि इसे सम्हालना मुश्किल हो जाएगा। वाइस चांसलर ने कहा कि अम्बेडकर पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करना चाहते थे, आधुनिक भारत का कोई भी नेता उनके जितने महान विचारक नहीं था।

जैसी कि उम्मीद की जा सकती थी जेएनयू वीसी के व्याख्यान का देवी-देवताओं के ब्राम्हण न होने, और महिलाओं को लेकर मनुस्मृति के खिलाफ कहा हुआ बयान ही सुर्खियों में आया है। खबरें बहुत आसान चीजों को ही, बहुत आकर्षक बातों को ही सुर्खियां बनाती हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि कुलपति की कही हुई इन बातों के भीतर इस आयोजन का मकसद समान नागरिक संहिता को अम्बेडकर की कही बातों से जोडक़र लोगों के सामने दुहराना था, और वह मकसद कामयाब भी रहा है। जेएनयू वीसी को मौजूदा केन्द्र सरकार ने ही मनोनीत किया है इसलिए उनकी विचारधारा को लेकर कोई संदेह करने की जरूरत नहीं है। आज उनसे दूसरी बातों के साथ-साथ समान नागरिक संहिता की जरूरत को बखान करवाना एक राजनीतिक विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम भी है, और वह खबरों में जगह पाते हुए केन्द्र सरकार ने ठीक तरीके से करवा दिया है। जब सरकार आयोजक हो, और सरकार की मनोनीत वीसी वक्ता हो, तो इसमें कोई दिक्कत होनी भी नहीं थी। दूसरी बात यह कि जब समान नागरिक संहिता जैसे व्यापक असर वाले एक राजनीतिक इरादे को लागू करना हो, तो कुछ देर के लिए हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था की आलोचना में भी कोई बुराई नहीं है, और मनुस्मृति की महिलाओं पर ज्यादती गिनाने में भी कोई नुकसान नहीं है। जब भारत के आम चुनावों में सभी जातियों के लिए वोटर रहते हैं, और वोटरों में महिलाओं की आधी संख्या रहती है, तो उनकी हिमायती दिखती ऐसी बातें भी किसी नुकसान की न होकर फायदे की ही हैं। इस व्याख्यान से ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार का अगला एक बड़ा फैसला समान नागरिक संहिता का हो सकता है, जो कि भाजपा के राजनीतिक घोषणापत्र की एक पुरानी बात भी है। ऐसे में इसे एक अग्रिम सूचना मानना चाहिए कि सरकार अगले आम चुनाव के पहले एक समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश करेगी, और जिन लोगों को इसकी बारीकियां मालूम हैं, उन लोगों को अभी से इस मुद्दे पर अपने तर्क तैयार कर लेने चाहिए। आज अलग-अलग कई धर्मों के लिए अलग-अलग नागरिक संहिताएं हैं, उन सबको मिलाकर एक करना कई किस्म की जटिलताएं पैदा कर सकता है। खासकर अल्पसंख्यकों की अलग खास धार्मिक पहचान, उनके सांस्कृतिक रीति-रिवाज को समान नागरिक संहिता कुचल सकती है, इसलिए उन्हें और उनके हिमायती लोगों को कागज-कलम लेकर बहस की तैयारी रखनी चाहिए।
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