संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हेमंत सोरेन का जो भी हो, सोचें कि यह नौबत क्यों?
26-Aug-2022 4:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  हेमंत सोरेन का जो भी हो, सोचें कि यह नौबत क्यों?

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को लेकर ऐसी खबरें हैं कि चुनाव आयोग ने उन्हें भ्रष्ट आचरण का दोषी पाकर विधानसभा की उनकी सदस्यता खारिज कर देने की सिफारिश की है, या उन्हें अपात्र घोषित कर दिया है। चुनाव आयोग को यह मामला झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस ने भेजा था, और खबरें हैं कि आयोग ने सीलबंद लिफाफे में अपना फैसला राज्यपाल को भेजा है जो कि अभी तक सार्वजनिक नहीं हुआ है। इस बीच अलग से खबरें आ रही हैं कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपने विधायकों की बैठक लेना शुरू कर दिया है। ऐसी चर्चा है कि अगर उनके हटने की नौबत आती है, तो वे अपनी पत्नी को गठबंधन सरकार की मुख्यमंत्री बना सकते हैं। फिलहाल हम यहां इस बढ़ते और बदलते हुए घटनाक्रम पर नहीं लिख रहे हैं, बल्कि उन वजहों पर लिख रहे हैं जिनकी वजह से यह नौबत आई है।

देश के कुछ विपक्षी राज्यों को लेकर हाल के बरसों में यह चर्चा बहुत बुरी तरह बढ़ी है कि केन्द्र की मोदी-सरकार की अगुवाई में इंकम टैक्स, ईडी, और सीबीआई जैसी एजेंसियां लगातार विपक्षी नेताओं को घेरती हैं, और वे अगर भाजपा में शामिल हो जाते हैं, तो उनके खिलाफ जांच थम भी जाती है। कल ही दिल्ली में आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता ने ऐसे कई भूतपूर्व गैरभाजपाई नेताओं के नाम गिनाए जिनके खिलाफ बड़े-बड़े मामले दर्ज हुए, लेकिन वे भाजपा में आ गए, तो उन मामलों को इन्हीं एजेंसियों ने किनारे धर दिया। लेकिन ये आरोप पिछले कई बरसों से लग रहे हैं, इसलिए आज यहां पर एक दूसरे पहलू पर चर्चा करने की जरूरत है।
 
हमने अभी कुछ महीने पहले पश्चिम बंगाल के मामले में देखा कि ममता बैनर्जी के एक विवादित मंत्री की एक महिला मित्र के दो मकानों से 50 करोड़ रूपये की नगदी बरामद हुई। यह रकम अविश्वसनीय किस्म की है, और किसी नेता से जुड़े मामलों में इतनी बड़ी बरामदगी देश में पहली बार हुई। ममता के कई दूसरे मंत्री और नेता पिछले बरसों में चिटफंड कंपनियों के मामलों में फंसे, और फिर उनमें से कुछ भाजपा में जाकर राहत हासिल पाने में कामयाब हुए। लेकिन यह बात तो अपनी जगह थी ही कि वे लोग ऐसे मामलों में शामिल थे। खुद ममता बैनर्जी देश में सबसे अधिक सादगी से जीने वाली नेता हैं, लेकिन उनके करीबी सत्तारूढ़ नेता मोटी कमाई के काम में लगे मिले हैं, और मंत्री रहते हुए अभी कुछ हफ्ते पहले जो गिरफ्तारी हुई है, और जितनी रकम मिली है, वह ममता बैनर्जी की राष्ट्रीय छवि और संभावना दोनों को बर्बाद करने का सामान भी है।

अब महाराष्ट्र के बहुत से नेताओं को देखें, तो संजय राऊत जैसे शिवसेना के एक सबसे दिग्गज नेता के बारे में वहां की जमीन को लेकर जिस तरह के घोटाले की खबरें आ रही हैं, वे संजय राऊत और शिवसेना दोनों की साख को खराब करती हैं। यह पूरी तरह से मुमकिन है कि केन्द्र सरकार की एजेंसियां छांट-छांटकर भाजपा के विरोधियों के दरवाजे जा रही हैं, लेकिन इस बात को भी समझने की जरूरत है कि क्या ये एजेंसियां किसी ईमानदार नेता के घर भी जा रही हैं? हेमंत सोरेन से जुड़े हुए कुछ लोगों पर कुछ महीने पहले भी छापे पड़े थे, अब जिस मामले को लेकर चुनाव आयोग से उनकी अपात्रता की चर्चा है वह मामला भ्रष्ट आचरण का है जिसमें उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए एक खदान अपने ही नाम आबंटित कर ली, जो कि बहुत बचकाने किस्म का लालच था, और बहुत ही सतही दर्जे की बेवकूफी भी थी। कोई व्यक्ति कुर्सी पर रहते हुए अपने को ही कुछ आबंटित कर दे, तो वह तो भ्रष्ट आचरण है ही। अब चुनाव आयोग केन्द्र सरकार की एक एजेंसी नहीं है, और उसने उसे मिली हुई शिकायत पर यह कार्रवाई अगर की है, तो हेमंत सोरेन की एक गलती, या उसके एक गलत काम की वजह से ही ऐसा हो पाया है।

हम राजनीतिक बदले की भावना से अपने से असहमति रखने वाले लोगों पर केन्द्र सरकार की कार्रवाई से इंकार नहीं कर रहे, लेकिन ऐसे असहमत नेताओं में से जो भ्रष्टाचार में शामिल हैं, या दूसरे किस्म के जुर्म में शामिल हैं, वे अपने आपको कुछ या बहुत हद तक खतरे में तो खुद ही डालते हैं। अब इसी झारखंड की चर्चा करें तो इसी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पिता शीबू सोरेन को 2006 में अपने ही एक भूतपूर्व निजी सहायक के अपहरण और कत्ल के मामले में कुसूरवार पाया गया था। वे उस समय मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में कोयला मंत्री थे, और देश के इतिहास में पहली बार एक केन्द्रीय मंत्री को हत्यारा करार दिया गया था। उन्हें उम्रकैद सुनाई गई थी, और अदालत ने उन्हें जमानत भी नहीं दी थी। लेकिन जल्द ही हाईकोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया था। उनके साथ और भी कई तरह के विवाद जुड़े हुए थे, और उस वक्त तो वे केन्द्रीय मंत्री थे, और जांच सीबीआई ने ही करके उन्हें हत्या में शामिल साबित किया था।

बगल के बिहार में लालू यादव कई मामलों में सजा पाकर, इलाज की छुट्टी पर अभी घर बैठे हैं, कुछ और मामलों में उन्हें सजा होने के आसार भी हैं, और यह सब उनके अपने ही कुकर्मों की वजह से हुआ है। इसलिए उन पर अगर छापे पड़ रहे हैं, तो वे बदनीयत तो हो सकते हैं, लेकिन उनका खतरा तो लालू यादव और उनके परिवार का खुद ही का खड़ा किया हुआ है। ऐसा हाल महाराष्ट्र में एनसीपी के कई नेताओं का है, या दूसरे कई प्रदेशों में भी है। जब सत्ता की ताकत लोगों को पकड़ में आने लायक परले दर्जे के भ्रष्टाचार करने का हौसला भी देती है, तो फिर वे अपने आपको आसान निशाना बनाकर पेश कर देते हैं, और उसके बाद यह महज वक्त की बात रहती है कि उनसे असहमत और सत्तारूढ़ राजनीतिक ताकत कब उनके घर अपनी एजेंसियों को पहुंचाती है। इसी देश की राजनीति में कई ऐसे मुख्यमंत्री और केन्द्रीय मंत्री भी रहे हैं जिनके बारे में किसी भ्रष्टाचार की कल्पना भी किसी ने नहीं की, और जो कार्यकाल खत्म होने के बाद एक रिक्शे में सामान लादकर सरकारी घर छोडक़र चले गए थे।

हम किसी केन्द्र या किसी राज्य सरकार की एजेंसियों द्वारा बदनीयत से की जा रही कार्रवाई का बचाव करना नहीं चाहते, लेकिन सार्वजनिक जीवन के लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि वे क्या भ्रष्टाचार से जरा भी दूर नहीं रह सकते? और आज जब देश में असहमति के खिलाफ जांच एजेंसियों का माहौल बना हुआ है, तो यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या ऐसी जांच और कार्रवाई के दबाव में देश में भ्रष्टाचार कुछ कम भी हो सकता है? यह एक अलग बात है कि टैक्स और कालेधन से जुड़े हुए मामलों की जांच और उन पर कार्रवाई करने की एजेंसियां सिर्फ केन्द्र सरकार के हाथ हैं, और वहां सत्तारूढ़ पार्टी के राजनीतिक विरोधी ही निशाने पर हैं, लेकिन राज्य सरकारों के हाथ भी कुछ दूसरे किस्म के भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई के लिए पुलिस और कुछ मामूली एजेंसियां हैं। राजनीतिक दलों के बीच पसंद और नापसंद, सहमति और असहमति पर टिकी ऐसी जांच और कार्रवाई देश में राजनीतिक कटुता तो बढ़ा रही हैं, लेकिन हो सकता है कि इससे राजनीति में संगठित और व्यापक भ्रष्टाचार घट भी सके। दिक्कत यही रहेगी कि केन्द्र और अधिकतर राज्यों में जिस एक पार्टी की सरकार है, उसके भ्रष्ट लोगों पर कोई कार्रवाई मुमकिन नहीं हो सकेगी। लेकिन लोकतंत्र में हर समस्या का तो कोई इलाज भी नहीं है। अपने को नापसंद भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई होती रहे, और अपने को पसंद भ्रष्ट बचे रहें, यह आज भारतीय राजनीति का एक आम नजारा हो गया है, और जांच एजेंसियों की स्वायत्तता के बिना यह नजारा बदलने वाला भी नहीं है।
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