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हमें सरल और प्रज्ञाशील बनना चाहिए-राष्ट्र संत ललित प्रभजी
28-Aug-2022 6:27 PM
हमें सरल और प्रज्ञाशील बनना चाहिए-राष्ट्र संत ललित प्रभजी

रायपुर, 28 अगस्त। आचार्यश्री भद्रबाहु स्वामी रचित कल्पसूत्र पर आधारित दुर्लभ प्रवचन के शुभारंभ प्रसंग पर राष्ट्रसंत श्रीललितप्रभ सागरजी महाराज ने भगवान पार्श्वनाथ के शासनकाल के मुनिजनों के ऋजु व प्राज्ञ व्यवहार की चर्चा करते हुए प्रेरणा प्रदान की कि हम धर्म की चर्या ज्यादा करें, चर्चा ज्यादा कम करें।

जितना समय हम धर्म की चर्चा में लगाते हैं अगर उतना समय हम धर्म की चर्या में लगा दें तो हमारा बेड़ापार हो जाए। जब हम संसार में हैं तो धर्म को लेकर तर्क-वितर्क क्यों। आचार के नाम पर जीरो और बातों के नाम पर बातों के बादशाह न बनें। भगवान कहते हैं हमें ऋजु-जड़ नहीं, जड़-वक्र नहीं हमें ऋजु-प्राज्ञ अर्थात् हमें सरल भी बनना चाहिए और प्रज्ञाशील भी बनना चाहिए।’’

ये प्रेरक उद्गार राष्ट:संत श्रीललितप्रभजी ने आउटडोर स्टेडियम बूढ़ापारा में शुक्रवार को दिव्य सत्संग के अंतर्गत पर्युषण पर्व के तृतीय दिवस सूत्र शिरोमणि कल्पसूत्र पर आधारित ‘पर्युषण पर्व के संदेश एवं कर्तव्य’ विषय पर व्यक्त किए। धर्मसभा के शुभारंभ से पूर्व लाभार्थी जयकुमार-सरोज, अशोक-संजु, कांतिलाल-किरण, जितेंद्र, प्रवीण, पूर्वेश, आकांक्षा तातेड़ परिवार ने सूत्र शिरोमणि कल्पसूत्र को सिर पर धारण किए हुए गाजे-बाजे व शोभायात्रा के साथ प्रवचन पांडाल में प्रवेश किय

ा। जिनके सकल श्रीसंघ द्वारा स्वागत-अभिनंदन उपरांत लाभार्थी परिवार ने महोपाध्याय संतश्री को सूत्र वोहराया एवं वासक्षेप ग्रहण किया। साथ ही पांच ज्ञान की पूजा लाभार्थी परिवारों द्वारा संपन्न हुई। पांच ज्ञान के लाभार्थी थे- मति- सम्पतराज पारख परिवार, श्रुत- श्रीमती चंदरीबाई भंवरलाल पुत्र टोडरमल, सुरेश, विजय एवं अजीत कांकरिया परिवार, अवधि- श्रीमती सुंदरबाई पारख-खूबचंदजी, मनमोहनचंद पारख परिवार, मन:पर्यव- चंदनमल पुत्र- प्रकाशचंद, माणकचंद, अशोक, राजेंद्रजी सुराना परिवार एवं कैवल्य ज्ञान- श्रीमती पानीबाई आसकरणजी भंसाली परिवार।

संतश्री ने कहा कि कल्पसूत्र की शुरुआत ही प्रथम अक्षर ‘णमो’ से हुई है। अर्थात् पंच परमेष्ठी को नमन करते हुए नवकार महामंत्र से इसकी शुरुआत है।

 

इससे हमें यह प्रेरणा मिलती है कि किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत विनम्रता और भगवान के स्मरण से की जानी चाहिए। हजारों सालों से इस सूत्र का पारायण किया जाता रहा है। संपूर्ण जिनशासन में इस महान आगम कल्पसूत्र का अत्यंत महत्व है। मूलत: तीन भागों में विभक्त इस सूत्र के प्रथम भाग में जिन चरित्र, दूसरे भाग में स्थिवीरावली और तृतीय भाग में साधू समाचारी का वर्णन है। नवकार महामंत्र की भक्ति में समर्पित गीतिका से शुभारंभ करते हुए संतश्री ने श्रद्धालुओं को जिन चरित्र के अंतर्गत 24 तीर्थंकरों के मुनिजनों के व्यवहार से अवगत कराया। तदुपरांत उन्होंने जैन प्रतीक की हर संरचना में समाहित जैन धर्म के संपूर्ण सारभूत तत्वों पर प्रकाश डाला।

कल्पसूत्र में मुनिजनों को दस बातों का हमेशा ध्यान रखने की बात कही गई है। पहला है- मर्यादित वस्त्र। मुनि को परिग्रह नहीं करना चाहिए। यानि शरीर को जितने वस्त्रों की आवश्यकता है केवल उतने ही वस्त्रों का उपयोग मुनि करे। हम सभी को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जब तक पुराने वस्त्र फटे नहीं और कोई वस्त्र दान न किया हो तब तक नए वस्त्र और नहीं लेना चाहिए। सीमित वस्त्र रखो और उन्हें मर्यादा से पहनो। बेवजह नए वस्त्र नहीं लेना चाहिए। हमारा आचार सदा ऐसा बना रहे कि हमारे वस्त्र ही नहीं, स्थान, शरीर, जिह्वा और मन की शुद्धि सर्वदा बनी रहे। हमारा परिधान-पहनावा शालीन और मर्यादित हो। मुनिजनों के लिए दूसरा आचार है- जहां तक संभव हो मुनिजनों को अपने निमित्त से बने आहार को स्वीकार नहीं करना चाहिए। तीसरा- जहां पर मुनिजन को रहने के लिए उपाश्रय दिया गया है, ऐसे स्थान पर मुनिजन को उस दिन का आहार नहीं लेना चाहिए। चौथी बात- मुनिजनों को राजसिक आहार नहीं लेना चाहिए। पांचवी बात- छोटे मुनि को बड़े मुनि के प्रणाम, वंदन-नमन, विनय व्यवहार का जरूर विवेक रखना चाहिए। छठवी बात- मुनिजनों को अपने जीवन में पंच महाव्रतों का पालन करना चाहिए। सातवा आचार- ज्येष्ठ कल्प, साध्वी को साधु को प्रणाम करना चाहिए, छोटे मुनियों को बड़े मुनियों के मान-व्यवहार, मर्यादा का पूरा विवेक रखना चाहिए। आठवा आचार- दोष लगे या ना लगे पर मुनिजनों को प्रतिक्रमण रोज अवश्य करना चाहिए।  नवमा आचार है- बिना बीमारी, बिना किसी विशेष कारण के मुनिजनों को चातुर्मास के अलावा एक माह से ज्यादा किसी भी शहर में नहीं रहना चाहिए। और दसवा कल्प है- पर्युषण कल्प। अर्थात् पर्युषण पर्व की आराधना जरूर करनी चाहिए।

संतश्री ने बताया कि कालचक्र की दो अवधारणाएं रहीं हैं- एक अवसर्पिणी कालचक्र और एक उत्सर्पिणी कालचक्र। अवसर्पिणी कालचक्र यानि जिस काल में नाग-नागिन का जोड़ा ऊपर की ओर जाता है और जब वह नीचे की ओर जाता है तो उसका नाम उत्सर्पिणी कालचक्र है। वर्तमान में हम अवसर्पिणी कालचक्र का पांचवा आरा है। भगवान महावीर अवसर्पिणी कालचक्र के अंतिम भाग अर्थात् चौथे आरा जब था, उससे साढ़े 75 साल पहले भगवानश्री की आत्मा देवलोक से च्युत होकर पृथ्वी लोक पर आई। इसके उपरांत पूज्य संतश्री द्वारा श्रद्धालुओं को भगवान श्रीमहावीर के 27 भवों में से 18 भवों के कथानक का श्रवण कराया गया। भगवान के प्रथम भव नयसार के कथानक से प्रेरणा प्रदान करते उन्होंने संदेश दिया कि मुनिजनों को मार्ग दिखाने के फलस्वरूप नयसार को सम्यकत्व का उपार्जन हुआ था। अत: हमें मुनिजनों की विहार सेवा में योगदान अवश्य देना चाहिए।

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