संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जब ऐसे-ऐसे यार, तब दुश्मन की क्या दरकार...
29-Aug-2022 5:14 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जब ऐसे-ऐसे यार, तब दुश्मन की क्या दरकार...

भाजपा सरकार वाले कर्नाटक की आठवीं की एक सरकारी पाठ्य पुस्तक को लेकर एक दिलचस्प विवाद उठ खड़ा हुआ है। कर्नाटक इन दिनों विनायक दामोदर सावरकर को महान देशभक्त साबित करने की कोशिशों से गुजर रहा है, और चूंकि सिर्फ इतने से हवा में साम्प्रदायिक जहर नहीं घुल सकता था, वहां साथ-साथ टीपू सुल्तान का विरोध भी किया जा रहा है ताकि इस मुद्दे को हिन्दू-मुस्लिम में तब्दील किया जा सके, मुस्लिमों के ध्रुवीकरण का सामान पेश किया जा सके, और उसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू ध्रुवीकरण की उम्मीद की जा सके। इसी सिलसिले में अभी इस किताब का एक हिस्सा सामने आया है जिसमें यह दावा किया गया है कि सावरकर जब अंडमान की जेल में थे, जहां उनकी कोठरी में एक चाबी के लिए छेद भी नहीं था, वहां बुलबुल उडक़र कोठरी में पहुंचती थीं, और सावरकर उनके पंखों पर बैठकर रोज मातृभूमि घूमकर आते थे। अब जब इस बात को लेकर विवाद हो रहा है तो किताब के बचाव में यह तर्क दिया जा रहा है कि यह साहित्य की अलंकारिक भाषा है, और उसका शाब्दिक अर्थ निकालना गलत है। आलोचकों का कहना है कि इस कन्नड़ पाठ्य पुस्तक को सीधी-सपाट भाषा में लिखा गया है, और इसमें किसी अलंकार या प्रतीक जैसी कोई बात नहीं है। यह बच्चों के दिमाग में सावरकर की करिश्माई महानता को बैठाने की एक बड़ी भोथरी कोशिश है, और यह कोशिश अपने आपमें अकेली नहीं है, सावरकर को महान बताने की कोशिशें गांधी से जुड़े एक सबसे प्रमुख संस्थान की पत्रिका में भी हाल ही में हुई है।

दरअसल झूठ को फैलाने और स्थापित करने की एक सीमा होनी चाहिए। सावरकर ने देश की आजादी के लिए जब तक, जो कुछ किया था, उसका सम्मान इंदिरा गांधी के समय भी हो चुका है जब प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने सावरकर पर डाक टिकट निकाली थी। और सावरकर की तारीफ भी की थी। लेकिन हकीकत यह है कि सावरकर का जीवन दो अलग-अलग हिस्सों में महानता और पलायन में बंटा हुआ था। एक वक्त उन्होंने अंग्रेज सरकार के खिलाफ काम किया, और उस वजह से उन्हें कालापानी की सजा देकर अंडमान जेल में बंद किया गया था। लेकिन जेल में रहते हुए सावरकर ने अंग्रेज सरकार पर माफीनामों और रहम की अपीलों की बौछार कर दी थी। कुछ इतिहासकार बताते हैं कि उन्होंने कम से कम आधा दर्ज दया याचिकाएं भेजी थी जिनमें से पहली तो जेल में छह महीने गुजारने के बाद ही चली गई थी। इन दया याचिकाओं में सावरकर ने अंग्रेज सरकार की किसी भी रूप में सेवा करने का मौका देने की अपील की थी, और कहा था कि वे राह से भटके हुए और लोगों को भी सरकार की तरफ लेकर आएंगे। आज जिस गांधी-स्मृति की पत्रिका में केन्द्र सरकार के मनोनीत आरएसएस के ट्रस्टी सावरकर की स्तुति छाप रहे हैं, उसके बारे में इतिहासकारों ने लिखा है कि सावरकर खुलेआम गांधी को गालियां देते थे, और गांधी के लिए उनका दिल नफरत से भरा हुआ था। यह एक और बात थी कि सावरकर की रहम की अपीलें अंग्रेज सरकार के पास जाने का दौर शुरू हो जाने के बाद उनके भाई की चिट्ठियों में की गई अपील के जवाब में गांधी ने महज यह सुझाया था कि सावरकर को केस की जानकारी देते हुए किस तरह अपील करनी चाहिए। गांधी के इस जवाब को आज इस तरह प्रचारित किया जा रहा है कि मानो गांधी ने सावरकर को रहम की अपील करना सुझाया था। जबकि गांधी से सावरकर के भाई के पहले संपर्क के चार बरस पहले सावरकर का पहला माफीनामा अंग्रेज सरकार को पहुंच चुका था। सावरकर की जिंदगी के शुरू के एक हिस्से में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में उनकी हिस्सेदारी को लेकर जब-जब उनके गौरवगान की कोशिश होगी, तब-तब लोगों को उनकी आगे की जिंदगी याद आएगी, याद दिलाई जाएगी कि अंग्रेजों से रहम की अपील में उन्होंने क्या-क्या लिखा था, और किस तरह अंग्रेज सरकार से वे बरसों तक माहवारी पेंशन पाते थे। जिस वक्त देश के हजारों स्वतंत्रता सेनानी जेलों में कैद थे, उस वक्त सावरकर अंग्रेज सरकार की वफादारी और उसकी सेवा करने का लिखित वायदा करके जेल के बाहर आए थे, और अंग्रेजी पेंशन पर रहते थे।

दरअसल यह दिक्कत सावरकर के साथ ही नहीं है, सार्वजनिक जीवन के बहुत से लोगों के साथ ऐसा होता है कि जब वे आसमान जैसी ऊंचाई पर पहुंचते हैं, और वहां से नीचे गिरते हैं, तो बहुत नीचे गिर जाते हैं। उनकी जिंदगी को मिलाजुला ही देखना चाहिए। जब कभी कोई उन्हें महज आसमान तक ले जाकर वहीं एक सिंहासन पर बिठा देना चाहेंगे, तो लोग तुरंत याद करेंगे कि वे कितने नीचे भी गिरे हुए थे। और फिर जो लोग इतिहास का हिस्सा हो चुके हैं, उन लोगों का समग्र मूल्यांकन अगर अभी नहीं होगा, और अभी भी अगर सिर्फ उनकी अच्छी बातें ही गिनी जाएंगी, तो फिर वे एक विचारधारा के महज प्रचार के लिए बनाए गए मुखौटे रह जाएंगे। जेल के नियमों में माफी मांगकर बाहर निकलने की कोशिश तो रहती है, लेकिन यह तो लोगों की अपनी पसंद रहती है कि वे अंग्रेजों से माफी मांगें, या रहम की भीख मांगें, या जलियांवाला बाग जैसे भयानक हत्याकांड करने वाले अंग्रेजों से पेंशन लें, या फिर वे जेल की सलाखों के पीछे मरने के लिए तैयार रहें। सावरकर ने अपने कानूनी अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए यह किया था, और आज उनकी स्मृतियों को इन्हीं का भुगतान करना पड़ रहा है। जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, जब भगतसिंह जैसे नौजवान सीना ताने हुए देशभक्ति के गाने गाते हुए किसी भी रहम की अपील से दूर खुशी-खुशी फांसी पर झूल गए, तो वैसे दौर के सावरकर की रहम की अपीलों और अंग्रेजों की सेवा करने की गिड़गिड़ाहट को कैसे भुलाया जा सकता है। सावरकर को देश के इतिहास की किताबों में छोड़ देना चाहिए। आज स्कूली किताबों के रास्ते सावरकर को महान साबित करने की कोशिशें जब-जब होंगी, तब-तब सावरकर की अंग्रेजों की चापलूसी और रहम की भीख भी लोगों को याद आएगी। आज सावरकर को महान साबित करने वाले उनका भला नहीं कर रहे हैं, वे इतिहास के पन्नों को बार-बार सामने लाने को मजबूर कर रहे हैं कि आज वीर कहा जाने वाला यह आदमी किस कदर कमजोर था, और उसने किस तरह रिहाई की भीख मांगी थी।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news