विचार / लेख
-मुकेश नेमा
इतने दिनों से जिसका डर था वही हुआ आज। कद्दू महाराज, यथोचित परीक्षण उपरान्त बालिगों में गिने गए। अपनी डार से बिछुड़े और सब्जी की टोकनी में आ विराजे।
कद्दू के गृहप्रवेश को साधारण मत समझिए। खूसट बाप से कमतर आँकेंगे आप उसे तो गलती करेंगे। कद्दू का आना, कठिन टाइप के बाप के शाम की घर लौटने जैसी दारुण परिस्थिति। गणित जैसा उलझा हुआ बाप इसलिए लौटता है घर कि घर न जाए तो कहाँ जाए। चिड़चिड़ा, हैरान परेशान, उलझा उलझा सा जीव। आमतौर पर जमाने भर से लड़ता जूझता बंदा। फिलिस्तीनियों जैसे बच्चों के लिए इजरायल टाईप की चीज। ऐसे बम वर्षक विमान जैसा जिसे देखकर वो किताबों के बंकर में जा छुपने में ही खैरियत मानते हैं। वो होता है और उसका कुछ नहीं किया जा सकता।
खैर हम अपने कद्दू पर लौटें। कद्दू को आना ही था। वो आया। आ चुका। और मैं सोच में हूँ कि इससे निपटा कैसे जाए। कुछ दिनों पहले ही ज्ञानियों से पता चला कि पेठे बनाने वाला कद्दू, कद्दू होकर भी कद्दू नहीं है। वो कुम्हड़ा है। इसका अमीर रिश्तेदार है। और इसके कारण अनचाहे ही सही, लोग उसकी इज़्जत करते हैं।
ऐसे में हमारा वाला कोई दीन का लगा नहीं हमें। ऐसा जैसे घर में नालायक औलाद पैदा हो जाए। औलाद तो औलाद है, उसे फेंक तो सकते नहीं आप। हमारे मिडिल क्लॉस की यही सबसे बड़ी व्यथा है। भरी जवानी खूसट, जल्लाद जैसे बाप के नीचे दबी-कुचली बीती और जब खुद बाप हुए तो निकम्मी उजड्ड औलाद के हाथों गिने नहीं गए। खैर किस्मत है अपनी अपनी। किसी के घर निकम्मी औलाद पैदा होती है और मेरे घर के पिछवाड़े ये असहनीय टाईप के कद्दू महाशय पैदा हुए है।
कद्दू की रामजी को याद कराने में। आपको आस्तिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका है। आपको क्या लगता है हमारे सारे बड़े बड़े संत जो संत का चोला पहनने के पहले बड़े, खाते-पीते आदमी हुआ करते थे। वो अपने महल छोडक़र ऐसे ही, सेंत मेत में जंगल में कुटिया बनाकर रहने लगे? कद्दू ही प्रेरणा बना उनके वानप्रस्थ की। वे इससे लड़े। पराजित हुए और वन गए और ज्ञान की बड़ी बड़ी करने लायक हो पाए।
ऐसा भी नहीं मूरख की तरह फूले, कद्दू की खामियों बाबत ही सोचा मैंने। इसकी खूबियों का भी पता किया। इसके सारे पोषक तत्वों और इसमें भरे तमाम विटामिन्स की कारगुजारियों से वाकिफ हुआ मैं। इसके बावजूद मेरा मनोबल अर्थव्यवस्था की माफिक ही घुटनों पर रहा। मेरी जीभ डरी। मैं डरा। सोचने में भी डर शामिल। यह कि यह पकेगा और मुझे पकाएगा। मानव सभ्यता कद्दू को खाने के कुछ ही तरीके विकसित कर सकी है अब तक। इसकी सब्जी बनेगी या रायता। बहुत हुआ तो हलवा बने इसका। रायता तो फिर भी ठीक। यदि सब्जी बनी तब तो इसका स्वरूप और हाहाकारी होगा। खैर। जो भी होगा अब विध्नहर्ता गणेशजी करेंगे, कद्दू करेगा।
यह सब बता क्यों रहा हूँ मैं आपको ? केवल इसलिए क्योंकि आज बहुत जोर से लग रहा है मुझे कि दुनिया को एक और ज्ञानी की जरूरत है। एकदम सिद्धार्थ वाली मनोदशा। जो उन्हें बूढ़े आदमी और अर्थी को देखकर लगा वैसा ही मुझे कद्दू को देखकर लगा। लगभग निश्चित कर चुका मैं। अध्यात्म और वैराग्य का संसार प्रतीक्षा कर रहा है मेरी। बहुत हो चुकी दुनियादारी। ऐसे में यदि कल किसी दिन मेरे बाबा बैरागी होने की, महावीर, बुद्ध की तरह किसी नए धर्म के प्रवर्तक होने की, खबर मिले आपको तो हैरान न हों।