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'गंगा जमना': प्रधानमंत्री नेहरू के हस्तक्षेप से रिलीज़ हो पाई थी दिलीप कुमार की ये फ़िल्म
02-Sep-2022 9:43 PM
'गंगा जमना': प्रधानमंत्री नेहरू के हस्तक्षेप से रिलीज़ हो पाई थी दिलीप कुमार की ये फ़िल्म

BLOOMSBURY

 

-रेहान फ़ज़ल

गंगा जमना' बतौर प्रोड्यूसर दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म थी लेकिन इस फ़िल्म को बनाने के बाद उनका अनुभव इतना ख़राब रहा कि उन्होंने दोबारा फ़िल्म बनाने से तौबा कर ली.

उस ज़माने में बीवी केसकर सूचना और प्रसारण मंत्री हुआ करते थे. उनके मातहत काम करने वाले सेंसर बोर्ड को जब 'गंगा जमना' फ़िल्म दिखाई गई तो उसने फ़िल्म में 250 कट करने की सिफ़ारिश की. उनका कहना था कि फ़िल्म में ज़रूरत से ज़्यादा अश्लीलता और हिंसा दिखाई गई है. दिलीप कुमार ने सेंसर बोर्ड को लाख स्पष्टीकरण दिया लेकिन वो अपना फ़ैसला बदलने को तैयार नहीं हुआ.

उन्होंने सेंसर बोर्ड को 120 पन्नों का ज्ञापन भी दिया लेकिन उसने उसे देखना तक गवारा नहीं किया.

मेघनाद देसाई दिलीप कुमार की जीवनी में लिखते हैं, "सेंसर बोर्ड को फ़िल्म के डेथ सीन पर आपत्ति थी जिसमें एक डकैत को वही आखिरी शब्द कहते दिखाया गया था जो महात्मा गांधी ने नाथूराम गोडसे से गोली खाने के बाद कहे थे. जब कोई चारा नहीं बचा तो उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मदद लेने का फ़ैसला किया."

केसकर को नेहरू मंत्रिमंडल से हटाया गया
उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने दिलीप कुमार की नेहरू से 15 मिनट की बैठक तय कराई. इस बैठक में दिलीप कुमार ने नेहरू को न सिर्फ़ अपनी परेशानी बताई बल्कि सेंसर बोर्ड के पूरे कामकाज पर कई सवाल उठाए.

उन्होंने नेहरू को बताया कि सेंसर बोर्ड बिल्कुल एक तानाशाह की तरह काम कर रहा था और अपने विचारों के विपरीत कोई भी तर्क सुनने के लिए तैयार नहीं था.

नेहरू के साथ जो बैठक 15 मिनट तक चलने वाली थी डेढ़ घंटे तक चली. नेहरू के हस्तक्षेप से सेंसर बोर्ड ने फ़िल्म को पास किया. उसके कुछ समय बाद बीवी केसकर को मंत्रिमंडल से हटा दिया गया और उनका राजनीतिक जीवन एक तरह से ख़त्म हो गया.

केसकर की इस बात के लिए तारीफ़ होती थी कि उन्होंने आम जनता को शास्त्रीय संगीत से रूबरू करवाया और आकाशवाणी पर संगीत के अखिल भारतीय संगीत कार्यक्रम की शुरुआत करवाई. लेकिन इन्हीं केसकर ने आकाशवाणी पर फ़िल्म संगीत और क्रिकेट कमेंट्री पर प्रतिबंध लगा दिया था. उनके हटते ही ये प्रतिबंध हटा लिए गए.

दरअसल दिलीप कुमार चाहते थे कि महबूब ख़ाँ उनके भाई नासिर ख़ाँ को अपनी फ़िल्म 'मदर इंडिया' में वो रोल दे दें जो राजेंद्र कुमार ने किया था. नासिर ख़ाँ कुछ पाकिस्तानी फ़िल्मों में अपना हाथ आज़माने के बाद बंबई में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रहे थे.

महबूब ख़ाँ ने दिलीप कुमार का ये अनुरोध नामंज़ूर कर दिया और इससे दोनों के रिश्तों में खटास आ गई. इस सबसे पहले दिलीप कुमार के मन में 'गंगा जमना' बनाने का विचार घर करने लगा था. आख़िर में दिलीप कुमार ने अपनी ही फ़िल्म 'गंगा जमना' में अपने भाई नासिर ख़ाँ को बड़ा रोल दिया.

त्रिनेत्र और अंशुला बाजपेई दिलीप कुमार की जीवनी 'दिलीप कुमार पियरलेस आइकॉन इंस्पायरिंग जेनरेशंस' में लिखते हैं, "दिलीप कुमार ने ही हमें बताया था कि उन्हें 'गंगा जमना' बनाने की प्रेरणा एक पुरानी वैलेस बियरी की वेस्टर्न से मिली थी.

इस फ़िल्म के अंत में पिता अपने खुद के बेटे को मार देने के लिए मजबूर हो जाता है. 'गंगा जमना' में पिता और बेटे की जगह छोटे और बड़े भाई को दिखाया गया है जिसमें नासिर ख़ाँ एक अच्छे भाई (पुलिस इंसपेक्टर) और दिलीप कुमार एक बुरे भाई (डाकू) का रोल निभाते हैं. कहानी मशहूर है कि 'गंगा जमना' फ़िल्म महबूब ख़ाँ को उनकी फ़िल्म 'मदर इंडिया' का जवाब था."

शापूरजी मिस्त्री ने दिलीप कुमार को ब्लैंक चेक दिया
'गंगा जमना' में मशहूर उद्योगपति शापूरजी मिस्त्री और पालोनजी मिस्त्री ने अपना पैसा लगाया था.

त्रिनेत्र और अंशुला बाजपेई लिखते हैं, "इस फ़िल्म के बनने से पहले शापूरजी ने दिलीप कुमार को दो चेक बुक्स दीं. उन्होंने कहा कि एक चेक बुक फ़िल्म के प्रोडक्शन से जुड़े ख़र्चों के लिए है और दूसरी चेक बुक फ़िल्म में आपके पारिश्रमिक के लिए है. इनके हर चेक पर आप जो भी धनराशि चाहे भर सकते हैं.

ये सारे चेक ख़ाली हैं और हर एक चेक पर मेरे दस्तख़त हैं. जब फ़िल्म रिलीज़ हुई और सुपर हिट बन गई तो दिलीप कुमार ने शापूरजी को उनके द्वारा दी गईं दोनों चेकबुक लौटाईं. उन्होंने प्रोडक्शन कामों के लिए दी गई पहली चेक बुक से कुछ चेक ही इस्तेमाल किए थे और दूसरी चेक बुक को छुआ तक नहीं था. ये देखते ही शापूरजी भावुक हो गए और उन्होंने दिलीप कुमार को गले लगा लिया.'

दिलीप के भाई नहीं चाहते थे कि वो डकैत की भूमिका करें
दिलीप कुमार अपनी आत्मकथा 'द सब्सटेंस एंड द शैडो- एन ऑटोबायोग्राफ़ी में' लिखते हैं, "जैसे ही शापूरजी ने मुझसे 'गंगा जमना' की कहानी सुनी, उन्होंने कह दिया कि इस फ़िल्म की सफलता के बारे में उन्हें कोई संदेह नहीं है, लेकिन मेरे भाई नासिर का मानना था कि मेरे डकैत की भूमिका निभाने का विचार अच्छा नहीं है.

उन्होंने ज़ोर दिया कि दर्शक इस बात को पसंद नहीं करेंगें कि मैंने दुष्ट ज़मींदार से बदला लेने के लिए डकैतों की संगत का सहारा लिया. ये फ़िल्म मैं अपने भाई नासिर के कम बैक के लिए बना रहा था. उसने मुझसे बार बार कहा कि मैं अपने लिए ये रोल लिखकर ग़लती कर रहा हूँ लेकिन मैंने अपनी स्क्रिप्ट में कोई परिवर्तन नहीं किया."

मैंने तय किया कि मैं फ़िल्म में डाकू का ही रोल निभाउंगा क्योंकि शापूरजी इस फ़िल्म की सफलता के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त थे. जब आख़िर में पिक्चर रिलीज़ हुई तो दर्शक उसे देखने के लिए टूट पड़े."

नितिन बोस को फ़िल्म के निर्देशन के लिए चुना गया
दिलीप कुमार ने इस फ़िल्म के निर्देशन के लिए नितिन बोस को चुना जो उन्हें पहले 'मिलन' और 'दीदार' फ़िल्मों में निर्देशित कर चुके थे. इस बारे में बहुत अफवाहें फैलीं कि नितिन बोस की जगह दिलीप कुमार ने खुद इस फ़िल्म का निर्देशन किया है. बाद में नितिन बोस ने इसका खंडन करते हुए कहा, 'दिलीप न सिर्फ़ एक अनुशासित अभिनेता हैं बल्कि बहुत गर्मजोश इंसान भी हैं.

हम दोनों शूटिंग से एक दिन पहले ही फ़िल्मांकन की सारी योजना बना लेते थे. जवानों और डकैतों के बीच भिड़ंत की शूटिंग के दौरान एक जूनियर आर्टिस्ट बंदूक से निशाना लेते समय अपनी ग़लत आँख दबा रहा था. मेरे सहायक निर्देशक जावेद हुसैन उससे नाराज़ हो गए और उन्होंने बंदूक की नाल पकड़ कर कहा, "इस तरह से नहीं इस तरह से बंदूक पकड़ो.

आर्टिस्ट की उंगली बंदूक के घोड़े पर थी और ग़लती से वो घोड़ा दब गया. गोली जावेद के सीने को चीरती हुई निकल गई और वहीं उनकी मृत्यु हो गई. जब मुझे इसका अहसास हुआ कि क्या हो गया है मेरे दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया. तब मैंने दिलीप कुमार से मेरा काम संभालने के लिए कहा."

नौशाद की सलाह पर दिलीप ने पूरी फ़िल्म में पुरबिया बोली
'गंगा जमना' के संगीत निर्देशन की ज़िम्मेदारी नौशाद को दी गई. उन्होंने ही दिलीप कुमार को सलाह दी कि फ़िल्म में वास्तविकता लाने के लिए पुरबिया में ही सारे डायलॉग बोले जाएं.

दिलीप इसके लिए तुरंत राज़ी हो गए. गंगा के रोल को करने और समझने से पहले दिलीप कुमार ने उत्तर प्रदेश और बिहार के कई इलाकों का दौरा किया.

इस बोली में उन्होंने अपने बिहारी माली और उसकी पत्नी को बोलते , झगड़ते और एक दूसरे को मनाते सुना था और तब से ये बोली उनके दिलोदिमाग़ में घर कर गई थी.

दिलीप कुमार लिखते हैं, "उस समय मुझे इतना भी पता नहीं था कि ये बोली उत्तर प्रदेश की है या बिहार की. लेकिन मैं इस बोली के लिए पागल था. भावनाओं की अभिव्यक्ति की इसकी क्षमता ग़ज़ब की थी. जिस तरह हमारा बिहारी माली और उसकी पत्नी आपस में बातें करते और लड़ते थे वो बहुत दिलचस्प हुआ करता था. 'गंगा जमना' के रोल में मैं उस माहौल की साँस लेना चाहता था जिसमें गंगा और जमना बड़े हुए थे.

मैं उन किसानों की तकलीफ़ें भी दिखाना चाहता था जो तमाम तरह की मुसीबतें सहते हुए क्रूर ज़मीदारों के खेत जोता करते थे. गंगा की भूमिका करते हुए जो चीज़ मुझे सबसे आश्चर्यजनक लगती थी कि मेरे लिए कहानी के भावनात्मक 'करेंट' को समझना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं था. इसलिए एक चरित्र के रूप में गंगा मेरे लिए एक अनजान भूमिका नहीं थी."

पुरबिया बोलने पर मतभेद
लेकिन जब दिलीप ने 'गंगा जमना' में पुरबिया बोलने की अपनी मंशा महबूब ख़ाँ और के आसिफ़ को बताई थी तो उन्होंने सिरे से इसे ख़ारिज कर दिया था. सिर्फ़ बिमल रॉय, उनके दोस्त हीतेन चौधरी, लखनऊ के रहने वाले नौशाद और सीतापुर के रहने वाले वजाहत मिर्ज़ा ने इसका समर्थन किया था.

चरित्र अभिनेता कन्हैया लाल ने भी, जो बनारस के रहने वाले थे, और जिन्होंने फ़िल्म में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, सभी कलाकारों को सही तलफ़्फ़ुज़ के साथ पुरबिया बोलना सिखाया था. कवि राममूर्ति चतुर्वेदी ने भी फ़िल्म के प्रमुख कलाकारों को पुरबिया बोलने की बाक़ायदा ट्रेनिंग दी थी. नतीजा ये रहा कि बैजंतीमाला ने भी जो अपने डायलॉग 'रोमन' में लिखा करती थीं, ग़ज़ब की पुरबिया बोली और धन्नो के अपने रोल में पूरी तरह से डूब गईं.

'परफ़ेक्शन' के प्रति दिलीप कुमार का जुनून इस हद तक था कि वो अपने साथी कलाकारों के अभिनय का भी ज़िम्मा लिया करते थे. 'गंगा जमना' में उनकी हीरोइन वैजंतीमाला ने एक बार एक इंटरव्यू में कहा था, 'दिलीप साहब के साथ मेरी सबसे अच्छी फ़िल्म 'गंगा जमुना' थी.

इस फ़िल्म में मैंने उनकी पत्नी धन्नो का रोल किया था. उन्होंने मेरे डायलॉग अपनी आवाज़ में एक टेप रिकॉर्डर में रिकॉर्ड कर मुझे दिए थे ताकि मैं समझ सकूँ कि मुझे किस तरह पुरबिया डॉयलॉग बोलना है. उन्हें मालूम था कि दक्षिण भारतीय होते हुए मेरे लिए वो डायलॉग बोलना कितना मुश्किल रहा होगा. इसलिए उन्होंने मेरे लिए वो डायलॉग रिकॉर्ड करवाए ताकि मैं एक एक शब्द समझ सकूँ और उसके साथ सही फ़ेशियल एक्सप्रेशन दे सकूँ. इससे मुझे बहुत मदद मिली.

अमिताभ बच्चन भी हुए मुरीद
कुछ सालों पहले अमिताभ बच्चन ने भी एक इंटरव्यू में कहा कि उन्होंने इलाहाबाद में अपने छात्र दिनों में ये समझने के लिए 'गंगा जमना' बार बार देखी कि किस तरह एक पठान बिना किसी मेहनत के उत्तर प्रदेश के एक ग्रामीण चरित्र को निभा रहा है और उसकी बोली को कितनी सहजता से बोल रहा है.

दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा, "मैं समझता हूँ अमिताभ बच्चन की बातों में दम है. किसी भी पठान के लिए गंगा के व्यक्तित्व और भाषा के साथ सहज होना वाकई मुश्किल काम था. लेकिन जिस पठान की कहानी आप पढ़ रहे हैं, उसने सतत अध्ययन, अथक अभ्यास और उन कामों में सफल होने की प्रबल इच्छा के कारण जो उसके लिए नए थे, ऐसा कर दिखाया."

महाराष्ट्र के एक गाँव में हुई शूटिंग
दिलीप कुमार को 'गंगा जमना' की शूटिंग की लोकेशन चुनने के लिए करीब एक महीना लग गया. उन्होंने बंबई से 120 किलोमीटर दूर इगतपुरी में जावर गाँव को अपनी फ़िल्म की शूटिंग के लिए चुना. इस जगह पर उनका जाना महज़ इत्तेफ़ाक था. वो अपने दोस्त जॉनी वॉकर के साथ घूमने निकले थे कि उन्हें ये जगह पसंद आ गई.

दिलीप कुमार को उस समय इसका अंदाज़ा नहीं था कि बाद में इस लोकेशन को कई हिंदी फ़िल्मों की शूटिंग के लिए इस्तेमाल किया जाएगा. उन्होंने ज़मींदार की हवेली को दिखाने के लिए उस गाँव में एक अस्थाई ढाँचा खड़ा किया था. 'गंगा जमना' की कुछ इनडोर शूटिंग महबूब और फ़िल्मालय स्टूडियो में भी की गई थी.

सभी चरित्रों ने यादगार रोल निभाया
मुख्य अभिनेताओं के अलावा 'गंगा जमना' के सभी चरित्र अभिनेताओं ने भी अपने करियर का बेहतरीन अभिनय किया चाहे वो ज़मींदारनी के रोल में प्रवीन पॉल हो, पुलिस सुपरिंटेंडेंट के रोल में नासिर हुसैन हों या हरिराम के रोल में कन्हैया लाल या मां के रोल में लीला चिटनीस हों, सबने अपना सौ फ़ीसदी दिया.

हाँ जमना के बड़े रोल में नासिर ख़ाँ कोई ख़ास असर नहीं छोड़ पाए. फ़िल्म के कबड्डी सीन की हर जगह चर्चा हुई. इसमें धन्नो गंगा को विरोधी टीम के ख़िलाफ़ जीतने की चुनौती देती है. वो कहती है, 'मैं तो कहूँ इस बार भी टनकपुर वाले जीतेंगे. देखो न कैसे कैसे गबरू जवान आए हैं.'

इस पर गंगा का तुरंत जवाब आता है, 'तो जा बेशरम पकड़ ले किसी का हाथ.' आखिर में गंगा की जीत होती है. सारा गाँव ख़ुशी में पागल हो जाता है और अचरज से भरा गंगा देखता है कि खुशी में चूर धन्नो नाच रही है.

एक शॉट में फ़िल्माया गया क्लाइमेक्स
फ़िल्म के क्लाइमेक्स में अपने भाई जमना द्वारा चलाई गई गोली से घायल गंगा किसी तरह उस घर में पहुंचता है जिसमें उसका जन्म हुआ है और अपने भाई की बाँहों में गिरते हुए कहता है, 'हम घर आ गए मुन्ना.' मरते समय उसके आख़िरी शब्द होते हैं, 'हे राम.' ये दृश्य फ़िल्म स्टूडियो में शाम के समय फ़िल्माया गया था.

दिलीप कुमार ने कैमरामैन वी बाबा साहब से कहा कि हर चीज़ को तैयार रखें, क्योंकि न तो इस शॉट का रिहर्सल होगा और न ही कोई दूसरा टेक. दिलीप कुमार लिखते हैं, 'मैंने स्टूडियो के कई चक्कर लगाए, पहले तेज़ चाल से चलते हुए और फिर दौड़ते हुए. जब मेरी साँस पूरी तरह से उखड़ गई और जब मुझे लगा कि अब मैं गिर ही जाउंगा, मैं सेट पर दाख़िल हुआ जहाँ बाबा साहब अपने कैमरे के साथ पहले से तैयार थे.'

कोरोना वायरस
बेहतरीन अभिनय के बावजूद फ़िल्मफ़ेयर के पुरस्कार से वंचित रहे दिलीप कुमार
जब फ़िल्म जगत के दिग्गजों ने इस फ़िल्म को देखा तो सबके मुँह से एक स्वर में 'वाह' निकला. सबकी एक राय थी कि दिलीप कुमार ने एक क्लासिक फ़िल्म बनाई है. लेकिन फ़िल्मफ़ेयर ने दिलीप के अभिनय को सर्वश्रेष्ठ अभिनय पुरस्कार के लायक नहीं समझा.

उस साल सर्वश्रेष्ठ अभिनय का पुरस्कार राज कपूर को उनकी फ़िल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' के लिए दिया गया. जब दिलीप कुमार 'गंगा जमुना' को टेक्नीकलर प्रोसेसिंग के लिए ब्रिटेन के पाइनवुड स्टूडियो ले गए तो वहाँ की लैब के टेक्नीशियन फ़िल्म को देख कर बहुत प्रभावित हुए.

उन्होंने सलाह दी कि वो इस फ़िल्म को ऑस्कर के लिए भेजें क्योंकि इसमें आज़ाद भारत में सामंती ज़मीदारों की तानाशाही और दबे कुचले किसानों की ईमानदारी को दिखाया गया है.

जब 'गंगा जमना' को चेकोस्लोवाकिया में कार्लोवी वारी, बोस्टन और काहिरा के फ़िल्म समारोहों में दिखाया गया तो सबने एक स्वर से फ़िल्म की तारीफ़ की.

दिलीप कुमार लिखते हैं, 'मेरी फ़िल्म के समीक्षकों में ये कौतुहल था कि मैं इस तरह का अभिनय कैसे कर पाया. उनमें ये जानने की जिज्ञासा थी कि इसके पीछे कितना शोध किया गया है, क्योंकि 'गंगा जमना' जैसी फ़िल्में उनके देश में काफ़ी अध्ययन और सोच विचार के बाद ही बनाई जातीं. मैंने उन्हें बताया कि किस तरह मैंने स्क्रिप्ट, फ़िल्म के चरित्रों और पुरबिया बोली पर काम किया है.'

1962 में कारलोवी में यादगार अभिनय के लिए दिलीप कुमार को ऑनरेरी डिप्लोमा दिया गया जबकि 1963 के बोस्टन फ़िल्म समारोह में 'गंगा जमना' को 'सिलवर बोल' का पुरस्कार मिला.

'गंगा जमना' में दिलीप कुमार के काम को अभिनय की पाठ्यपुस्तक कहा जाता है. ये फ़िल्म न सिर्फ़ गोल्डन जुबली हिट साबित हुई बल्कि इसे क्लासिक फ़िल्म का दर्जा मिला और सर्वकालिक बेहतरीन फ़िल्मों में इसकी गिनती हुई. (bbc.com/hindi)

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