विचार / लेख

अनसुने इतिहास का साक्षात्कार
03-Sep-2022 4:35 PM
अनसुने इतिहास का साक्षात्कार

-अनिल अश्विनी शर्मा
भारत में बीसवीं सदी के सत्तर के दशक का अंत ऐसे जनसंघर्ष की शुरुआत से हुआ, जिसने खास भौगोलिक क्षेत्र में जनअधिकारों की लड़ाई शुरू कर उसे वैश्विक विमर्श में तब्दील किया। एक ऐसी लड़ाई, जिसने आजादी के बाद की पूरी राजनीतिक व सामाजिक उपलब्धियों को परखने, उन पर सवाल करने और इस देश में हाशिए पर खड़े लोगों के लिए भूगोल के अंदर अपने राजनीतिक व सामाजिक अधिकार के सवालों को सिखाने का स्कूल तैयार किया। नर्मदा बचाओ आंदोलन के जरिए अधिकारों की अंतिम कतार में खड़े लोगों ने देश व दुनिया की शक्तिमान संस्थाओं से अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ी। सबसे कम संसाधन वाले लोगों द्वारा सबसे लंबे समय तक चली इस लड़ाई के मौखिक इतिहास का दस्तावेजीकरण है नंदिनी ओझा की किताब ‘द स्ट्रगल फॉर नर्मदा’। सामाजिक कार्यकर्ता, शोधकर्ता व इतिहासकार नंदिनी ओझा नर्मदा बचाओ आंदोल की कार्यकर्ता रही हैं। इतने बड़े आंदोलन की बुनियाद में कौन लोग थे, इसमें गैर सरकारी संगठन और जनआंदोलनों की क्या भूमिका थी को सिलसिलेवार तरीके से रखने के लिए नंदिनी ओझा ने मौखिक इतिहास का सहारा लेकर मराठी में ‘लढा नर्मदेचा’ (नर्मदा के लिए संघर्ष) किताब लिखी। इस किताब में दो आदिवासी नेताओं केशवभाउ वसावे और केवलसिंग वसावे की स्मृति के जरिए ओझा ने नर्मदा घाटी से उठे जनांदोलन का आख्यान रच डाला है। ‘लढा नर्मदेचा’ 2017 में प्रकाशित हुई थी जिसका अंग्रेजी में अनुवाद ‘द स्ट्रगल फॉर नर्मदा’ है।

मानव के विकास के नाम पर किस तरह खास वर्ग के मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ नंदिनी ने दो आदिवासी नेताओं की जीवनी से उसे किताब के पन्नों पर जीवंत किया है। जो आदिवासी समुदाय पुरखों से नर्मदा घाटी की जमीन और जंगलों में अपना जीवन जी रहे थे उनकी पूरी पारिस्थितिकी को कृत्रिम बांध के जरिए डुबो दिया गया। जब आदिवासियों के गांव डूब रहे थे तो सरकारी मशीनरी उनका दमन करने में जुटी हुई थी। केशवभाउ वसावे और केवलसिंग वसावे के जरिए ओझा बताती हैं कि लोगों को सुनने के बाद ही समझ आता है कि क्या याद रखा जाए और किस चीज को छोड़ कर आगे बढ़ा जाए। प्राकृतिक आत्मनिर्भरता से भरे एक आदर्श अतीत व चंद लोगों तक सिमटे आज के विकास के बीच का निरंतर संवाद इस तरह छापेखाने से निकल पाया है तो उसके पीछे नंदिनी ओझा के डेढ़ दशक से ज्यादा का अनुभव है। नंदिनी नर्मदा बचाओ आंदोलन की सक्रिय कार्यकर्ता रहने के बाद बाहर निकलकर जब उसके प्रभाव, इतिहास और वर्तमान को रेखांकित करती हैं तो समझ में आती है कि इतिहास को कहने वाले और उसे लिखने वाले का अंतरअनुशासनात्मक संबंध का उस पर किस तरह का असर पड़ता है। किताब की भूमिका में इंदिरा चौधरी लिखती हैं कि इस किताब में जिस तरह से साक्षात्कार को प्रस्तुत किया गया है वह हमें भरोसा दिलाता है कि स्मृतियों का सुनना एक रचनात्मक राजनीतिक कार्य हो सकता है।

किताब की शुरुआत में एक-दूसरे की सीमाओं को छूते हुए तीन राज्य गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र का नक्शा है। किसी भी भूगोल का नक्शा कैसा होगा यह वहां की राजनीति निर्धारित करती है। किताब की भूमिका में नंदिनी ओझा एक लोककथा का जिक्र करती हैं-ग्यारवहीं सदी में सोलंकी राजवंश की रानी मिनलदेवी मालव तालाब का निर्माण करने जा रही थीं। एक बुजुर्ग महिला ने आकर रानी से निवेदन किया कि वे तालाब का नक्शा बदल दें ताकि उसकी झोपड़ी बच जाए। रानी ने बुजुर्ग महिला की बात मान ली। प्रस्तावित वृत्ताकार तालाब की सौंदर्यात्मक भव्यता के साथ इसलिए समझौता कर लिया गया ताकि एक घर बच जाए। ऐसी लोककथाओं के बीच बड़ी हुई नंदिनी बचपन की कहावतों को याद करती हैं कि तुम भले ही घी बर्बाद कर दो लेकिन पानी की एक बूंद भी बर्बाद नहीं करो। वहीं, ऐसे लोक समाज में राजतंत्र कह रहा था कि सरदार सरोवर बांध बनते ही पानी की सारी समस्या खत्म हो जाएगी और लोग नंदनवन जैसे स्वर्ग में रहने का अनुभव करेंगे। इस स्वर्ग की कीमत बस इतनी सी मांगी जा रही थी कि गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के 245 गांव जलमग्न हो जाएंगे, उनका अस्तित्व खत्म हो जाएगा।

गुजरात के सूखाग्रस्त इलाके का विकास नर्मदा किनारे रह रहे लोगों के विनाश से लिखा गया। नंदिनी ओझा आगे चल कर यह भी समझ पाती हैं कि सरदार सरोवर परियोजना गुजरात के सूखाग्रस्त इलाकों का हल है ही नहीं। इसके जरिए पहले से ही आर्थिक व राजनीतिक रूप से मजबूत सेंट्रल गुजरात को ही और मजबूत होना था।

जिस परियोजना में विश्व बैंक तक का पैसा लग रहा है उसके बारे में आदिवासियों को तब पता चलता है जब उन्हें डुबाने का वक्त आ चुका होता है। नंदिनी ओझा के सवाल पर केशवभाऊ बताते हैं-‘सरपंच ने हमसे सवाल पूछने शुरू कर दिए। क्या तुम लोगों को पता है कि गुजरात में सरदार सरोवर बांध बन रहा है। हम यह नहीं जानते कि यह कब तक बनेगा, पर हम यह जान चुके हैं कि ऐसा बांध बन रहा है। सरपंच ने ऐलान कर दिया कि हमारा रोशमाल भी डूबेगा और हमें गुजरात के परवेटा में जमीन मिलेगी। और हम कहते-नहीं साहब, हम लोग पुराने समय से महाराष्ट्र के नागरिक हैं। आप हमें महाराष्ट्र के बाहर क्यों   भेज रहे हैं?...हम महाराष्ट्र नहीं छोड़ेंगे साहब।’ सरकार के कारिंदे आदिवासियों को समझा रहे थे कि मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र भारत देश का हिस्सा है और उन्हें देश से बाहर नहीं भेजा जा रहा है। केशुभाउ अपनी समझ के साथ आदिवासियों की देश और सरकार के संबंध की व्याख्या करते हैं-सरकार कह रही है कि वह हमें गुजरात में जमीन देगी। लेकिन सरकार भरोसेमंद नहीं है। आजादी के बाद से हमारे लिए कोई योजना नहीं बनी। स्कूल का गांव बस नाम भर का ही है। स्कूल शिक्षक गांव में नहीं ठहरते हैं। यहां कोई डॉक्टर नहीं है, कोई सडक़ नहीं है। यहां विकास का कोई काम नहीं किया गया है। सुखलाल कहता है-मैं मर जाऊंगा, पर गुजरात नहीं देखूंगा। इस पर पुनर्वास अधिकारी धमकाते हैं-‘ऐसे या वैसे हम तुम्हें गुजरात भेज ही देंगे’।

नर्मदा बचाओ आंदोलन मेधा पाटकर जैसे विश्व प्रसिद्ध नेताओं भर का नहीं है। इस आंदोलन की रीढ़ की हड्डी नर्मदा किनारे बसे आदिवासी रहे जिन्होंने डूबेंगे पर हटेंगे नहीं का नारा लगा कर आंदोलन शुरू किया। औपनिवेशिक काल से ही भारत की जमीन ने अहिंसक आंदोलन की जो सीख ली नर्मदा बचाओ आंदोलन उसका सबसे तेजस्वी रूप है। चार दशक से चल रहे आंदोलन के इस इतिहास में वह भूदान आंदोलन भी आता है जिसने पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक के भारत को सामाजिक व राजनीतिक रूप से प्रभावित किया। आज भी आंदोलनों के मुख्यधारा के साहित्य में भूदान आंदोलन से लेकर नर्मदा बचाओ आंदोलन भी अपने हिस्से की कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण और इतिहास की मांग कर रहा है।

आज जिस तरह से दलित साहित्य और आत्मकथाएं प्रचुर मात्रा में सामने आई हैं उस तरह से आधुनिक भारत में आदिवासी समाज के संघर्ष का आख्यान आना अभी बाकी है। नंदिनी ओझा की किताब ‘द स्ट्रगल फॉर नर्मदा’ एक ऐतिहासिक जरूरत को पूरा करती है। आजादी के बाद सबसे लंबे चले इस अहिंसक आंदोलन के नायक वे आदिवासी हैं जो विकास की हर परिभाषा में नकारे गए हैं। विकास की हर राह इनके घरों को रौंदती हुई गुजरती है। विकास के विरोधाभास को लेकर शुरू हुए संघर्ष की यह मौखिक दास्तान लोक व तंत्र के बीच बनी बड़ी खाई को दिखाने का काम करती है।

साक्षात्कार लेखिका नंदनी ओझा के साथ
 ‘आदिवासियों के हक हथियाने का हथियार हैं बड़े बांध’

सवाल-वर्चस्ववादी वर्ग के इतिहास लेखन के बरक्स आदिवासियों का मौखिक इतिहास। आपकी किताब में कहा गया है कि सुनना भी एक रचनात्मक राजनीतिक  प्रक्रिया हो सकती है। स्मृति और राजनीति के संबंध को आप किस तरह देखती हैं?

जवाब- किसकी और कैसी स्मृतियों को संयोजित, संरक्षित, प्रसारित व आरोपित किया जाता है, यह अपने-आप में राजनीति है।

सवाल- आदिवासी नेता केशवलिंग के घर को नर्मदा के बाढ़ का पानी डुबो देता है फिर भी वे नर्मदा नदी की पूजा करते हैं। केशवलिंग कहते हैं कि वह नर्मदा से अपने रिश्ते को अच्छी तरह से परिभाषित नहीं कर सकते हैं। नर्मदा पर बांध व जनजातीय समूहों के मानवाधिकार हनन को आप किस तरह से परिभाषित करेंगी?

जवाब-मेरा मानना है कि बड़े बांधों के जरिए समाज का शक्तिशाली वर्ग अपने फायदे के लिए विकास के नाम पर हाशिए पर खड़े लोगों के संसाधनों को हथिया लेता है। मैं बिना किसी हिचक के बड़े बांधों को वह हथियार कहूंगी जिससे सत्ता में बैठे लोगों के फायदे के लिए आदिवासियों से जल, जंगल, जमीन, पानी और अन्य मूल्यवान संसाधन छीन लिए जाते हैं।

सवाल-आप बारह साल तक नर्मदा बचाओ आंदोलन की सक्रिय कार्यकर्ता रही हैं। अपनी किताब में आप आदिवासी नेता केशवलिंग वासव से एक सवाल पूछती हैं। वही सवाल मैं आपसे दुहराता हूं। क्या आप अपनी आने वाली पीढ़ी को अपने जैसा कार्यकर्ता बनने की सलाह देंगी?

जवाब-बिलकुल। मैं हर युवा व्यक्ति से अपील करती हूं कि पर्यावरण की रक्षा, सामाजिक व आर्थिक न्याय, बराबरी और सतत विकास के लिए वह अपनी जिंदगी के कुछ साल सही सरोकारों से जुड़ी सार्वजनिक सक्रियता को जरूर दे।

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news