विचार / लेख
हर दौर में लेखकों ने अपने समय की सचाईयों को साहित्य में दर्ज़ किया .
किसी भी दौर के साहित्यिक दस्तावेज में उस दौर के लेखकों की पीड़ा, संघर्ष, बेचैनी दर्ज़ है .
साहित्य के इतिहास में ये भी दर्ज़ है कि कुछ लेखकों ने बस नौजवानी की दहलीज़ पार की और दुनिया के लिए भरा -पूरा ऐसा साहित्य छोड़ गए जो जिसका अंश भी 80 -90 से ज़्यादा जीने वाले लोग न लिख सके.
शेली सिर्फ 29 बरस की उम्र में चल बसी थीं ,जॉन कीट्स ने महज़ 25 बसंत देखे ,इसी तरह कैथ डगलस सिर्फ 24 बरस जिए .
हिंदी साहित्य में भी बहुत ही कम आयु में जो ये साहित्यकार लिख गए वो हिंदी साहित्य की धरोहर है .
जयशंकर प्रसाद का जीवनकाल 48 बरस रहा और वो कामायनी, कंकाल ,चन्द्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी जैसी न जाने कितनी महान कृतियाँ लिख गए .
रांगेय राघव सिर्फ 39 बरस तक जीवित रहे और 42 उपन्यास, 11 कहानी, 12 आलोचनात्मक ग्रन्थ, 8 काव्य, 4 इतिहास, 6 समाजशास्त्र विषयक, 5 नाटक और लगभग 50 अनूदित पुस्तकें लिखीं . रांगेय राघव के बारे में कहा जाता जितने समय में कोई पुस्तक पढ़ेगा उतने में वे लिख सकते थे .
हिन्दी साहित्य के प्रमुख प्रगतिशील लेखक , कवि, आलोचक, उपन्यासकार गजानन माधव मुक्तिबोध सिर्फ 46 बरस तक जीवित रहे . आज देश और दुनिया में प्रसिद्ध मुक्तिबोध जी का कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया था पर आज मुक्तिबोध का साहित्य हिंदी संसार ही नहीं दुनिया के साहित्य के लिए महान विरासत है .
हिंदी के शीर्ष और सबसे महत्वपूर्ण लेखक प्रेमचंद सिर्फ 56 सालों तक रहे उन्होंने 300 से अधिक कहानियां 18 उपन्यास ,पत्र- पत्रिकाओं का संपादन ,निबंध ,अनुवाद सब कुछ 56 साल की उम्र तक लिख कर साहित्य को समृद्ध किया .
सवाल है आज के दौर में हिंदी के लेखक क्या कर रहे ? कुछ आगे पीछे कर लें तो 70 से 90 बरस के हिंदी लेखकों की अच्छी पुस्तकों की वजह से आज भी हिंदी में सासें बची हैं पर हिंदी के नौजवान लेखक आज कहाँ हैं?
आज सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं ,एक क्लिक में इंटरनेट की वजह से सारे सन्दर्भ ,जानकारियां , ज्ञान मौजूद है पर क्या कुछ ऐसा लिखा गया , लिखा जा रहा जिस पर देश गर्व कर सके ?
ऐसा कुछ उपलब्ध है जिसे हिंदी की शानदार परम्पराओं में शामिल किया जा सके .जितनी ज़्यादा किताबें छप रहीं उतने ही हिंदी में कूड़ादान बनाये जा रहे .
इंटरनेट से देश और दुनिया की जानकारी को मिलाओ और मिक्स्ड फ्रूट जूस की तरह पुस्तक लाकर सोशल मीडिया में प्रचार कर लेखक का तगमा टांग लो .
आज हिंदी पत्रकार निकल रहे ,पीएचडी धारी बन रहे , प्राध्यापक -अध्यापक बन रहे पर आज की पीड़ा ,दर्द , चुनौतियों को रचनात्मक तौर पर हिंदी साहित्य में दर्ज़ करने वाले कितने नौजवान हैं ?
होंगे ...हैं पर शायद पूरे देश में गिनती के .
हिंदी पढ़ी ही जा रही नौकरी के लिए पत्रकारिता के लिए बाकी सत्तर साल और इससे ऊपर के लेखकों के जाने के बाद कितना बड़ा शून्य पैदा हो जायेगा उसे समझ लीजिये .
हिंदी -हिन्दू -हिन्दुस्तान वालों की हिंदी सबसे माशाल्लाह है . सर्वाधिक वर्तनी और व्याकरण से सम्बंधित भूलें , अशुद्धियाँ ये ही लोग करते हैं .
एक दौर ऐसा भी था जब 1918 में मद्रास में 'हिन्दी प्रचार आन्दोलन' प्रारम्भ हुआ था ,गांधीजी इसके अध्यक्ष थे , हिंदी का जोरदार प्रचार -प्रसार हुआ था .
आज हिंदी प्रदेशों में ही कोई सुध लेने वाला नहीं ...
ज़रा गौर करिये , राजनेता के बच्चे नेता बनते हैं , फ़िल्मी सितारों के बच्चे फिल्म एक्टर बनते हैं , डॉक्टर के बच्चे डॉक्टर पर हिंदी साहित्यकारों के कितने बच्चे अपने माता पिता की विरासत को आगे बढ़ाते हैं .
ज़रा गौर करिये, हिंदी साहित्यकारों बच्चे सोशल मीडिया में भी हिंदी में लिखना पसंद नहीं करते .
सौ सुप्रसिद्ध हिंदी लेखकों के कितने बच्चे हैं जिन्होंने हिंदी लेखन के लिए कलम उठाई ...न के बराबर या बहुत कम .
दरअसल, हिंदी की स्थिति सौतेले बेटे जैसी है ,प्यारा बेटा तो है पर है उपेक्षत सौतेला .
दरअसल, हिंदी दुधारू गाय नहीं है ..
दरअसल,भूमंडलीकरण के इस दौर में हिंदी को सबसे आख़िरी कतार में खड़ा कर दिया गया है बिलकुल उस गरीब आदमी की तरह जिसके नाम पर सरकार बनती है पर सेवा अमीरों की यानी कह लीजिये अंग्रेज़ी की होती है .
तो कोई क्यों हिंदी अपनाये ?
क्यों हिंदी साहित्यकार के बच्चे हिंदी अपनाकर बोलकर ,लिखकर अपने माता-पिता की तरह अभाव झेलें ?
कई बार लगता है हिंदी फ़िल्में बंद हो गयीं तो हिंदी का क्या होगा ?
हिंदी की उपेक्षा ,सौतेले व्यवहार के चलते ही आज ये दृश्य सामने है कि 25 से 55 साल कि उम्र के गिनती के ही शायद लेखक कवि होंगे जिन्हे हिंदी साहित्य में शुमार किया जा सके .
जिस उम्र में उस दौर के लेखक महान साहित्य रच कर चले गए उस उम्र के लोगों ने तो अभी सही तरीके से
पुस्तकों का अध्ययन भी शुरू नहीं किया .
'रेत समाधि' का अनुवाद न हुआ होता तो शायद गीतांजलि श्री की इतनी चर्चा न हुई होती . बरसों बाद इस देश की एक लेखिका चर्चित हुईं ,वैसे वो भी 66 बरस की हैं .
युवा लेखक कहाँ हैं ? और बहुत कम जो हैं वो हिंदी से दूरी क्यों बनाये हुए हैं ?
सोचिये ,कृष्ण बलदेव वैद अंग्रेज़ी में एम.ए , पीएचडी हार्वर्ड विश्विद्यालय से ,
बरसों तक अमरीका में प्रोफेसर रहे पर पूरा लेखन उनका हिंदी में है .
वो भी दिन थे , कृष्ण बलदेव वैद जैसे भी हिंदी के लेखक रहे .ये और बात है उन्हें
हमेशा बड़े सम्मान से वंचित कर रखा गया .
वैसे उस दौर में भी कृष्ण बलदेव वैद ही नहीं ,यशपाल और राहुल जी जैसों को भी लम्बे समय तक सम्मान से वंचित रखा गया .
अच्छी -अच्छी पुस्तकें पुरस्कृत न हो सकी पर उन अपुरस्कृत पुस्तकों के सामने आज की बड़ी पुरस्कृत पुस्तकें भी बौनी हैं .
ज़रा साहित्य के पन्ने पलटिये और महान हिंदी उपन्यासों की सूची देखिये भले ही पुरस्कृत न हुई हों पर
आज का कोई भी सबसे चर्चित उंपन्यास उनके आगे ठहरता है ?
'रेत समाधि' और उसके अनुवाद से पेट भर गया हो तो ठीक वरना गंभीरता से इस बात पर चिंतन करना चाहिए
कि अगले बीस - तीस बरस बाद किस तरह की हिंदी रचनाएँ और हिंदी के कितने लेखक बचेंगे ?
एक बहुत साधारण हिंदी पाठक होने के नाते मेरी ये चिंता है .