संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : छोटे बच्चों के लतीफों से ही शुरुआत हो रही है महिलाविरोधी सोच की..
12-Sep-2022 5:59 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  छोटे बच्चों के लतीफों से ही शुरुआत हो रही है महिलाविरोधी सोच की..

एक ब्रेक के बाद हिन्दुस्तान के सबसे मशहूर कॉमेडी शो, कपिल शर्मा का नया सीजन शुरू हो गया है, और इसके साथ ही गरीबों और महिलाओं की बेइज्जती का नया सैलाब भी इस कार्यक्रम में आ गया है जिस पर हिन्दुस्तानी परिवार में महिलाएं भी बैठकर हॅंस रही हैं। दरअसल यह देश ऐसा है कि किसी के नाली में गिरने पर, या केले के छिलके पर से फिसलकर सडक़ पर गिरने पर लोग पहले हॅंसते हैं, और फिर दिल करता है तो मदद करते हैं। दूसरे की तकलीफों पर हॅंसना, लोगों की शारीरिक दिक्कतों पर हॅंसना, और महिलाओं की खिल्ली उड़ाने वाली हर बात पर हॅंसना आम हिन्दुस्तानी मिजाज है।

अभी किसी ने फेसबुक पर एक ऐसे रियलिटी शो का वीडियो पोस्ट किया है जिसमें पांच-छह बरस के छोटे बच्चे किसी कॉमेडी मुकाबले में शामिल हैं, और वे महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक लतीफे सुनाते जा रहे हैं, और फूहड़ बातें करने वाले जज उन पर जोरों से हॅंसते जा रहे हैं। इन बच्चों के, शायद, मां-बाप भी वहां बैठे हुए हॅंस रहे हैं, और जजों में शामिल महिलाएं भी। सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे पढ़े-लिखे दिखने वाले लोग भी महिलाओं पर बनाए गए लतीफों पर हॅंसते हैं, जिनमें महिलाएं भी शामिल रहती हैं। इन दिनों वॉट्सऐप जैसे मैसेंजर की मेहरबानी से लोग अपनी एक-एक फूहड़ बात एक क्लिक से ढाई सौ से अधिक लोगों को भेज सकते हैं, और बहुत से लोग महिलाओं की बेइज्जती करने वाले कार्टून या लतीफे आगे बढ़ाते हुए थकते नहीं हैं। अभी दो-चार दिन पहले ही लोगों ने अंग्रेजी शब्द वाईफ के हिज्जों से एक नई परिभाषा बनाकर कई जगह पोस्ट करना शुरू किया- वरी इनवाइटेड फॉर एवर।

जब छोटे-छोटे बच्चे स्टेज पर यह लतीफा सुना रहे हैं कि दुनिया का सबसे पुराना एटीएम औरत की मांग का सिंदूर है, जिस पर हाथ फिराते ही वह अपने आदमी की जेब से कितना भी पैसा निकाल सकती है, तब यह आसानी से समझा जा सकता है कि बड़े होकर इन बच्चों की सोच किस तरह की रहेगी। लोगों को यह भी याद होगा कि अभी हाल फिलहाल तक स्कूली किताबों में किस तरह कमल घर चल, कमला नल पर जल भर पढ़ाया जाता था। हो सकता है अभी भी कई किताबों में यही सुझाया जाता हो कि घर में लडक़े और लडक़ी के दर्जे में मालिक और गुलाम जैसा फर्क रहता है। हकीकत भी यही है कि बहुत से हिन्दुस्तानी परिवारों में अगर साधन सीमित हैं, तो लडक़े को बेहतर पढ़ाई, बेहतर खाना, और बेहतर इलाज मिलता है। मुम्बई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के एक अध्ययन के बारे में इसी जगह पर हम पहले भी लिख चुके हैं कि वहां बच्चों में कैंसर होने की शिनाख्त हो जाने पर किस तरह लडक़ों को तो इलाज के लिए वापिस लाया जाता है, लेकिन लड़कियों को मां-बाप आमतौर पर इलाज के लिए लाते ही नहीं हैं। एक भयानक तस्वीर छत्तीसगढ़ के गांवों की स्कूलों की कई जगहों से आ चुकी है जिनमें दोपहर के भोजन के वक्त स्कूली लडक़े पालथी मारकर बैठकर खा रहे हैं, और लड़कियां ऊकड़ू बैठकर। यह पता चला कि कई गांवों में यह परंपरा है कि घर में भी लड़कियां ऊकड़ू बैठकर खाती हैं क्योंकि ऐसे बैठकर खाने पर खाना कम होता है। इस तरह हिन्दुस्तानी कॉमेडी से लेकर हिन्दुस्तानी जिंदगी की असल हकीकत तक लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ जो हिंसक भेदभाव है, वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ते जा रहा है।

जिस पति की मंगलकामना करते हुए, या जिसके नाम की तख्ती लगाने के नाम पर महिलाएं सिंदूर भरती हैं, बाकी दुनिया को यह बताते चलती हैं कि वे अब उपलब्ध नहीं हैं, उनका वह सिंदूर भी तरह-तरह से मखौल उड़ाने का सामान बना दिया जाता है। वे पति के लंबे जीवन के लिए करवाचौथ जैसा व्रत रखती हैं, और उस पर यह लतीफा बना दिया जाता है कि वे साल भर बाकी हर दिन पति का खून पीती हैं, और इस एक दिन उपवास करती हैं। इस देश में हिन्दी, और शायद कुछ और भाषाओं में भी, का बहुत सारा हास्य महिलाओं की बेइज्जती पर टिका होता है। राजस्थान के एक बड़े ही मशहूर मंच के कवि की पूरी जिंदगी ही अपनी बीवी पर तरह-तरह के अपमान के लतीफे बनाते हुए गुजर गई है, और उन्हें सुनकर हॅंसने वालों में महिलाएं भी रहती हैं। हिन्दी के कहावत-मुहावरों में सैकड़ों बरस से महिलाओं के अपमान का सिलसिला चले आ रहा है, उनके चाल-चलन के खिलाफ गंदी से गंदी बातें लिखी जाती हैं, उनके नि:संतान होने के खिलाफ, उनके पति खोने के खिलाफ दर्जनों कहावतों और मुहावरों को गढ़ा गया है। आज भी पुराने साहित्य को उठाकर देखें तो प्रेमचंद से लेकर गांधी तक हर महान लेखक की भाषा में औरत को बराबरी का दर्जा देने का व्याकरण ही नहीं है। मर्द में ही औरत को शामिल मान लिया गया है।

यह देश अपने साहित्य में, महान लोगों की सूक्तियों में, भाषाओं के व्याकरण में, कहावतों और मुहावरों में, स्कूली किताबों से लेकर कॉमेडी शो तक महिलाओं के अपमान की कलंकित परंपरा को जारी रखे हुए है। दिक्कत यह भी है कि इनकी शिकार महिलाओं को भी इस बात का अहसास नहीं होता है कि वे इस लैंगिक-हिंसा का निशाना हैं, उसका शिकार हैं। वे भी आए दिन किसी अफसर या नेता की नालायकी और निकम्मेपन का विरोध करने के लिए जुलूस लेकर उसे चूडिय़ां भेंट करने जाती हैं। भाषा और संस्कृति, रिवाज और सोच की यह हिंसा आसानी से खत्म नहीं होगी, क्योंकि अभी तो इसकी पहचान भी शुरू नहीं हो पाई है। लेकिन सोशल मीडिया एक ऐसी बड़ी सार्वजनिक जगह है जहां पर यह जागरूकता लाने का अभियान चल सकता है। इसके लिए लोगों को अपनी हिचक छोडक़र खुलकर लिखना होगा, इस भेदभाव का विरोध करना होगा, महिलाओं के अपमान के खिलाफ खड़े होना पड़ेगा। कुछ लोगों को ऐसा विरोध अप्रासंगिक लगेगा, और लगेगा कि इससे तो जिंदगी की खुशी छिन ही जाएगी। लेकिन लोगों को याद रखना होगा कि एक वक्त तो लोग अपनी खुशी के लिए एक गुलाम और एक शेर के बीच मुकाबला करवाकर उसका भी मजा लेते थे, जो कि आज के लोकतांत्रिक विकास के बाद संभव नहीं है। हिन्दुस्तान आज महिलाओं पर हिंसा के हास्य का मजा ले रहा है, लेकिन जागरूकता जैसे-जैसे बढ़ेगी, वैसे-वैसे यह साबित होगा कि यह ताजा इतिहास भी कितना बेइंसाफ था।
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