विचार / लेख
-चैतन्य नागर
सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य इस कदर बदलते जा रहे हैं कि कभी देवता और गुरु जी कह कर पूजे जाने वाले शिक्षक खिसकते-खिसकते अब सामाजिक जीवन के हाशिये पर चले गए हैं। आदरणीय गुरु जी तेजी से मास्साब में तब्दील होते जा रहे हैं। शिक्षक बनने के इच्छुक और वर्तमान में शिक्षण के काम में लगे लोगों की मनोदशा, पेशेवर स्तर और शिक्षण के प्रति उनके समर्पण के बारे में लगातार बातचीत,संवाद और विवाद होता रहा है। शिक्षक दिवस के बहाने इस बातचीत को नए सिरे से शुरू करने की जरूरत है।
शिक्षक के पेशे के कम लोकप्रिय होने के कई कारण हैं। बदलता सामाजिक माहौल और नीतियों में परिवर्तन इन कारणों में शामिल है। उपभोक्तावादी समाज में एक आदर्श शिक्षक ढूंढना कोई आसान काम नहीं। वह भी युवा वर्ग से।तडक़-भडक़ और रोब-दाब वाली नौकरियां लोगों को ज्यादा आकर्षित करती हैं। समाज में परिवर्तन लाने की जरूरत महसूस करने और इस दिशा में काम करने के लिए एक किस्म का आदर्शवाद जरूरी है। कुछ युवा बड़े उत्साह के साथ इस पेशे में आते भी हैं, पर संस्थान के माहौल, अनावश्यक प्रशासनिक और गैर-शैक्षणिक कामों के दबाव के कारण बड़ी जल्दी उनका जोश मुरझा जाता है। कई रिहायशी स्कूलों में शिक्षकों को पढ़ाने के अलावा वार्डन का काम भी दे दिया जाता है। या तो शिक्षक मशीन में तब्दील हो जाते हैं या फिर किसी और काम की तलाश में शिक्षण का काम ही छोड़ देते हैं।
शिक्षकों की ट्रेनिंग की गुणवत्ता से स्कूली शिक्षा पर बहुत गहरा असर पड़ता है। उम्मीद की जाती है कि केंद्र और राज्य की सरकारें इस मामले में संवेदनशील बनेंगी। इसके लिए शिक्षक योग्यता परीक्षा (टीईटी)शुरू की गई है, पर इसमें दिक्कत यह है कि इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले प्रशिक्षित शिक्षकों की संख्या बहुत कम होती है, जबकि शिक्षकों की आवश्यकता बहुत अधिक है।
इस वजह से ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति लगातार की जाती है जो प्रशिक्षित नहीं और इसका भी असर आखिरकार बच्चों की शिक्षा पर ही पड़ता है। विभिन्न राज्यों में ऐसे शिक्षकों को अलग-अलग नामों से बुलाया जाता है। उन्हें रिसोर्स पर्सन के रूप में भी नियुक्त किया जाता है। शिक्षा व्यवस्था के बाहर भी वे बड़ी संख्या में मौजूद हैं। वे घरों में ट्यूशन पढ़ाते हैं, और कोचिंग सेंटर्स चलाते हैं, या फिर उनमें शिक्षण का काम करते हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था का यह एक ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है जहाँ सरकार के नियम कानून काम नहीं करते। कोचिंग केन्द्रों में शिक्षण सिर्फ कमाई का एक साधन होता है। एक नेक काम के रूप में शिक्षण का मखौल ही उड़ाया जाता है।
शिक्षकों की गुणवत्ता में गिरावट कब से शुरू हुई यह बताना तो मुश्किल है, पर यह लगातार जारी है। पिछले दो दशकों में कई आर्थिक और सामाजिक बदलाव हुए हैं जिसकी वजह से शिक्षक हाशिये पर चला गया है। कभी भारतीय शिक्षक राष्ट्र निर्माता हुआ करता था। आजादी की लड़ाई में उसका महान योगदान था। अब वह सार्वजनिक जीवन के हाशिये पर खड़ा है। धन के पीछे लगी आज की पीढ़ी धन और शोहरत की तुलना में बुद्धि और गहरी समझ को कम महत्त्व देती है, और इसी अनुपात में शिक्षक का महत्त्व भी घटा है। हर स्तर पर शिक्षकों के अपमान की घटना अब आम बात हो गई है।
बचपन में माता-पिता के बाद बच्चों के जीवन में शिक्षक की ही सबसे अहम् भूमिका होती है। डिजिटल युग में शिक्षक को नई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है। उसके सामने प्रतिद्वंद्वी के रूप में सोशल मीडिया और इंटरनेट अनेकों रूप में खड़े हैं। उसे अपने पेशे के भीतर, शिक्षा व्यवस्था के बाहर-भीतर से और साथ ही डिजिटल युग के साथ जूझना पड़ रहा है। कभी पूजा जाने वाला शिक्षक नये भारत में अक्सर बहुत ही दुर्बल और असहाय नजर आ रहा है।