विचार / लेख
-अमिता नीरव
कांग्रेसी समझे जाने के खतरे के बावजूद मैं यह लिख रही हूँ। यूँ जो लोग सरकार समर्थक हैं उनके लिए मैं या तो कांग्रेसी हूँ या फिर वामपंथी... देशद्रोही, अर्बन नक्सल अलग से। तो इससे मुझे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है।
#भारत_जोड़ो_यात्रा राहुल गांधी का देऱ से लेकिन सही दिशा में किया गया मूव है। मैं इससे बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं कर रही हूँ, लेकिन यह जरूर मान रही हूँ कि इससे इस देश में विपक्ष जैसा 'कुछ' शायद नजर आने लगे।
कुछ साल पहले जब चिदंबरम को गिरफ्तार किया गया था, तब एक दोस्त ने कहा था कि ये सरकार देश में विपक्ष को खत्म करने के अभियान में लगी है। मैंने इसे एक डरे हुए नागरिक की चिंता से ज्यादा कुछ नहीं समझा था।
धीरे-धीरे जब ईडी की सक्रियता दिखने लगी तो पाया कि अधिकांश विपक्षी दलों के कद्दावर नेता दिशा भ्रम के शिकार हो रहे हैं। ईडी के डर से लगभग सारे ही चुप हैं या फिर इधर-उधर की गली तलाश रहे हैं।
टीवी तो नहीं देखती हूँ, लेकिन यहाँ-वहाँ की क्लिपिंग देखने में आ जाती है। चौंकती हूँ कि क्या इसे हम पत्रकारिता कहेंगे? जिस तरह से खबरों को अपने एंगल से पेश किया जा रहा है, जिस तरह से एंकर अपना इंटरप्रिटेशन दे रहे हैं, उसमें खबर कहाँ होती है?
राहुल की भारत जोड़ो यात्रा का भी कवरेज मेन स्ट्रीम मीडिया में कहीं नजर नहीं आ रहा है। सोशल मीडिया में भी हमें इसलिए दिखाई दे रहा है क्योंकि हम प्रतिरोध में हैं। बाकी समाज में इसका क्या असर हो रहा है, हम नहीं जानते हैं।
फिर भी यह महसूस हो रहा है कि विपक्ष की उदासीनता को राहुल कहीं हिला डुला तो रहे हैं। जिस तरह से विपक्ष के अभाव में सरकार अहंकारी और निरंकुश होने लगी है, कहीं इस यात्रा से सरकार पर थोड़ा बहुत सही, फर्क तो पड़ेगा।
यदि हम लोकतंत्र पर यकीन करते हैं तो हमें इस बात की कोशिश करनी ही चाहिए कि एक मजबूत विपक्ष खड़ा हो। तभी लोकतंत्र के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। सत्ता के साथ खड़े लोगों को भी इस बात की चिंता करनी ही चाहिए।
क्योंकि आज सत्ता का पलड़ा आपकी तरफ झुका हुआ है, कल दूसरा पलड़ा भी ऊपर हो सकता है। ऐसे में यदि मजबूत विपक्ष की परंपरा खत्म हुई तो लोकतंत्र की संस्कृति का नुकसान होगा, जो आखिर में लोक का नुकसान सिद्ध होगा।
राहुल की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि तमाम प्रतिकूलताओं के बीच वे प्रयास नहीं छोड़ रहे हैं। मैं राहुल की इस बात के लिए प्रशंसक हूँ कि असफलताओं में भी वे ही शांत औऱ स्थिर दिखते हैं। कुछेक मौकों को छोड़ दें तो हमेशा शालीन बने रहते हैं।
उन्हें डिरेल करने की तमाम कोशिशों के बीच भी वे मुद्दों पर टिके रहते हैं। यह देखकर तकलीफ होती है कि राहुल-सोनिया-प्रियंका अपने दम पर कांग्रेस को बचाने में लगे हुए हैं। कुछेक को छोडक़र बाकी कांग्रेसी उन्हें लगभग अकेला छोड़ चुके हैं।
जब पहले कोई कहता था कि कांग्रेसी सिर्फ सत्ता के साथ ही जीवित रह सकते हैं, तो यकीन नहीं आता था। इन आठ सालों में यकीन आने लगा है। जैसे ही सत्ता से दूर हुए और आने वाले वक्त की उम्मीद टूटी कि सब दाँए-बाँए होने लगे हैं।
सिंधिया से लेकर आजाद तक सबने भविष्य में सत्ता मिलने की नाउम्मीदी में कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। असल में कांग्रेस को संघर्ष करने की आदत ही नहीं है। अटपटा ये है कि जिन्हें बिल्कुल आदत नहीं हैं वे संघर्ष कर रहे हैं।
राहुल एक अनिच्छुक राजनीतिज्ञ हैं। ये कई राजनीतिक विश्लेषक कहते रहे हैं। सोनिया ने खुद ही पद छोड़ा है और प्रियंका ने न जाने इतने साल किस चीज का इंतजार किया! इस लिहाज से सत्ता के लिए तीनों ही इच्छुक नहीं दिखते हैं।
तो फिर वो क्या है, जो इन्हें राजनीति में तमाम ऑड्स के बावजूद टिकाए रखे हुए हैं? आपमें से कुछ लोग इस बात हँसेंगे, लेकिन लगातार क्षरित होता लोकतंत्र ही एकमात्र वो चीज है, जिसके लिए राहुल कोशिश करते दिख रहे हैं।
राहुल क्या बदल पाएँगे, इस सवाल से इतर हमें इस बात के लिए राहुल के साथ खड़ा होना चाहिए कि वे कम से कम बदलने के लिए कोशिश तो कर रहे हैं। हो सकता है कुछ भी न बदले, लेकिन राहुल अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभा रहे हैं।
इस दृष्टि से वे ‘राम की वो गिलहरी’ है जो अपने गीले शरीर पर रेत लपेटकर सेतु निर्माण में अपनी आहुति देती है। राहुल भी वही कर रहे हैं, रेत लपेटकर समंदर में रास्ता बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
राजनीतिक पार्टी के समर्थन या विरोध से अलग, अपने नागरिक होने के लिए, नागरिक बने रहने के लिए... नागरिक बने रहने के अपने संवैधानिक अधिकार के लिए, लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए, विपक्ष को मजबूत करने और सरकार की निरंकुशता को रोकने के लिए हमें भी प्रयास करने होंगे।
हमें भी राहुल की तरह अपने देश, समाज, संस्कृति, राजनीति, संविधान, लोकतंत्र और अंत में 'हम भारत के लोग' के लिए राहुल के साथ राम की गिलहरी होना चाहिए। चाहे समंदर में रास्ता बने या न बने।