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बढ़ती आबादी धरती के लिए बोझ है या वरदान
26-Sep-2022 4:49 PM
बढ़ती आबादी धरती के लिए बोझ है या वरदान

Sierra Club/Ballantine Books इस किताब ने अधिक जनसंख्या को लेकर मौजूदा चिंता पैदा की.

 - ज़ारिया गॉर्वेट

 

संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 15 नवंबर, 2022 को दुनिया में इंसानों की आबादी आठ अरब हो जाएगी.

जनसंख्या वृद्धि ने लोगों के बीच बड़ा विभाजन पैदा कर दिया है. कुछ लोग इससे चिंतित हैं तो कई लोग इसे सफलता की अभूतपूर्व कहानी बता रहे हैं. वास्तव में दुनिया में तेज़ी से एक ऐसी विचारधारा पनप रही है जो मानती है कि हमें और लोगों की ज़रूरत है.

साल 2018 में अमेज़ॉन के संस्थापक जेफ़ बेज़ोस ने एक ऐसे भविष्य का अनुमान लगाया, जब हमारे सौर मंडल में एक अरब इंसान फैल जाएंगे. उन्होंने एलान किया कि वे इस लक्ष्य को पाने की योजना बना रहे हैं.

इस बीच, ब्रिटिश ब्रॉडकास्टर और प्रकृति के इतिहासकार सर डेविड एटनबरो सहित कई लोगों ने इंसानों की इतनी बड़ी आबादी को 'पृथ्वी पर प्लेग' का नाम दिया है.
इस नज़रिए के अनुसार, आज हम पर्यावरण से जुड़ी जिस समस्या से जूझ रहे हैं, चाहे वह जलवायु परिवर्तन हो, या जैव विविधता का नुकसान, जल संकट हो या भूमि संघर्ष, उन सबका संबंध पिछली कुछ सदियों के दौरान तेज़ी से बढ़ी हमारी आबादी से है.
1994 में दुनिया की आबादी जब केवल 5.5 अरब थी. तब कैलिफ़ोर्निया की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने गणना की थी कि इंसानी आबादी का आदर्श आकार 1.5 से 2 अरब होना चाहिए.

तो क्या वाक़ई दुनिया की आबादी बहुत ज़्यादा है? और इंसानों के वैश्विक प्रभाव का भविष्य क्या है?
एक बहुत पुरानी चिंता
प्लेटो के मशहूर ग्रंथ 'द रिपब्लिक' में 375 ईस्वी पूर्व के लगभग दो काल्पनिक राज्यों के बारे में चर्चा की गई है. एक जहां 'स्वस्थ' है, वहीं दूसरा 'विलासी' है पर 'अस्वस्थ'.
दूसरे राज्य की आबादी अपनी ज़रूरत से अधिक विलासी जीवन जीना पसंद करती है और इसमें बहुत धन ख़र्च करती है.

नैतिक रूप से जर्जर यह राज्य आखिरकार पड़ोसी भूमि पर कब्जा करने की कोशिश करता है और उसकी यह कोशिश अंततः युद्ध में बदल जाती है.

यह राज्य बिना अतिरिक्त संसाधनों के अपनी विशाल और लालची आबादी का बोझ नहीं संभाल सकता.

इस कहानी का सहारा लेकर प्लेटो ने एक सवाल उठाया था, जो आज भी प्रासंगिक है. समस्या क्या है, इंसानी आबादी या उसकी ओर से किए जाने वाला संसाधनों का उपभोग?

1798 में प्रकाशित अपने प्रसिद्ध शोध, 'जनसंख्या के सिद्धांत पर एक निबंध' में थॉमस माल्थस ने इंसानों की दो मूल प्रवृतियों 'भोजन और सेक्स' का ज़िक्र किया.

अपने इस निष्कर्ष को उन्होंने जब तार्किक अंज़ाम तक पहुंचाया तो समझाया कि इस वजह से आपूर्ति से ज़्यादा मांग के हालात पैदा हो जाते हैं.

माल्थस ने लिखा, ''जनसंख्या को जब बेलगाम छोड़ दिया जाता है, तो यह ज्यामितीय अनुपात में बढ़ती है. वहीं जीवनयापन के साधन केवल अंकगणितीय अनुपात में ही बढ़ते हैं.''

सरल शब्दों में कहें, तो आबादी जितनी तेज़ी से बढ़ती है, उसकी तुलना में संसाधनों का उत्पादन और उसकी आपूर्ति बहुत धीमी गति से बढ़ती है.

माल्थस की इन बातों का तुरंत प्रभाव हुआ. इससे कइयों में भय और कइयों में ग़ुस्सा बढ़ा, जो दशकों तक समाज में दिखता रहा.

एक समूह ने सोचा कि आबादी को क़ाबू से बाहर जाने के लिए कुछ करना चाहिए. वहीं दूसरे समूह का मानना था कि आबादी को नियंत्रित करने का प्रयास बेतुका या अनैतिक है. इस समूह की राय थी कि आबादी नियंत्रित करने के बजाय उन्हें खाद्य आपूर्ति बढ़ाने की हरसंभव कोशिश करनी चाहिए.

माल्थस का निबंध जब प्रकाशित हुआ था, उस समय पृथ्वी पर केवल 80 करोड़ लोग थे.
हालांकि दुनिया की बेशुमार जनसंख्या के बारे में आधुनिक चिंताएं 1968 में जाकर सामने आ पाई, जब स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल एर्लिच और उनकी पत्नी ऐनी एर्लिच ने 'द पॉपुलेशन बम' नामक किताब लिखी.

यह किताब भारत की राजधानी नई दिल्ली के बारे में थी.

उन्होंने अपने अनुभवों को बयान किया था. एक रात जब वे दोनों टैक्सी से होटल लौट रहे थे, तब उनकी टैक्सी किसी गरीब इलाके से गुजरी. उस दौरान सड़कों पर इंसानों की हद से ज़्यादा भीड़ देखकर वे विचलित हो गए.

उन्होंने अपने अनुभव को जिस तरह से बयान किया था, उसकी बड़ी आलोचना हुई. यह आलोचना इसलिए भी हुई कि उस समय ब्रिटेन की राजधानी लंदन की आबादी नई दिल्ली से दोगुनी से भी ज़्यादा थी.

इस दंपति ने अपनी इस किताब में अकाल की चिंता पर विस्तार से लिखा था. इन दोनों का मानना था कि विकासशील देशों में जल्द ही अकाल आने वाला है. उन्होंने यह आशंका अमेरिका के बारे में भी जताई, जहां लोग पर्यावरण पर पड़ रहे असर को महसूस करने लगे थे.

अधिक जनसंख्या से सामने आ रही आज की अधिकांश चिंताओं को सामने लाने के लिए उनकी इस किताब को बहुत श्रेय दिया जाता है.
परस्पर विरोधी नज़रिया

दुनिया की आबादी कब अधिकतम सीमा को छुएगी, इसे लेकर अलग-अलग अनुमान हैं. लेकिन अनुमान है 2070 से 2080 के बीच पृथ्वी पर इंसानों की अधिकतम आबादी 9.4 से 10.4 अरब के बीच पहुंच सकती है.

संयुक्त राष्ट्र को उम्मीद है कि यदि हमारी आबादी 10.4 अरब के स्तर तक पहंचती है, तो उस स्तर पर लगभग दो दशकों तक स्थिर रहेगी. लेकिन उसके बाद आबादी घटना शुरू हो जाएगी.

इस अनुमान ने हमारे भविष्य को लेकर परस्पर विरोधी विचार पैदा किए हैं.

एक ओर वे लोग हैं, जो कुछ इलाकों में कम होती प्रजनन दर को संकट के रूप में देखते हैं.

जनसांख्यिकी के एक विद्वान ब्रिटेन की गिरती जन्मदर से इतने चिंतित हैं कि उन्होंने संतानहीन लोगों पर टैक्स लगाने का सुझाव दिया है.

ब्रिटेन में 2019 में प्रति महिला औसतन 1.65 बच्चे पैदा हुए. यह 2075 में जनसंख्या को घटने से रोकने के लिए ज़रूरी जन्म दर से कम है. हालांकि दूसरे देशों से आने वाले प्रवासियों के कारण जनसंख्या में वृद्धि होती रहेगी.

वहीं दूसरी तरफ वो लोग हैं, जिनका विचार है कि दुनिया की जनसंख्या वृद्धि को धीमा करना और रोकना बहुत ज़रूरी है. इनका यह भी मानना है कि लोगों पर बिना दबाव डाले स्वैच्छिक साधनों से ही जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगाई जा सकती है.

ऐसे लोगों का मानना है कि इससे न केवल पृथ्वी का भला होगा, बल्कि दुनिया के सबसे गरीब लोगों के जीवन में भी सुधार हो सकता है.

वहीं कुछ लोगों का मानना है कि आबादी की वृद्धि दर कम करने या न करने की बहस बेकार है. इनका मानना है कि इंसानों के द्वारा उत्पादों की ख़पत पर लगाम लगाई जानी चाहिए.

इनका तर्क है कि कोई इंसान संसाधनों की जो ख़पत करता है, उसका हम पर अधिक असर पड़ता है. इसलिए अपनी निजी ज़रूरतें कम करके सबसे गरीब देशों में विकास प्रभावित किए बिना भी बढ़ती आबादी का असर कम किया जा सकता है.

दुनिया के पिछड़े हिस्सों की जनसंख्या वृद्धि कम करने में पश्चिमी देशों की रुचि के चलते आरोप लगाया जाता है कि वे नस्लवाद का भाव रखते है. ऐसा इसलिए भी कि यूरोप और उत्तरी अमेरिका कुल मिलाकर बहुत घनी आबादी वाले क्षेत्र हैं.
पर्यावरण पर असर

बहरहाल इस बहस से परे पृथ्वी पर इंसानी प्रभाव के आंकड़े चौंकाने वाले हैं.

संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि एजेंसी (एफएओ) के अनुसार, पृथ्वी की सतह के 38 फ़ीसदी हिस्से का इस्तेमाल मनुष्य या उनके पशुओं के लिए भोजन और अन्य उत्पाद (जैसे ईंधन) पैदा करने में होता है. यह रकबा करीब पांच करोड़ वर्ग किलोमीटर है.

हमारे पूर्वज पृथ्वी पर एक समय कई विशाल जीवों के बीच रहा करते थे, लेकिन आज इंसान पृथ्वी की सबसे प्रभावी रीढ़ वाली प्रजाति है.

वज़न के हिसाब से आंके तो रीढ़ वाले जीवों में इंसानों का वज़न प्रतिशत सबसे अधिक 32 है. वहीं जंगली जानवरों का आंकड़ा केवल एक प्रतिशत है. बाक़ी हिस्से में मवेशी हैं.

विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के अनुसार, 1970 से 2020 के बीच दुनिया में जंगली जीवों की आबादी में दो तिहाई की कमी आई है. लेकिन इसी अवधि में दुनिया की आबादी दोगुने से अधिक हो गई है.

वास्तव में, इंसान का प्रभाव जैसे-जैसे बढ़ा है, वैसे-वैसे पर्यावरण में कई बदलाव हुए हैं. इसे लेकर दुनिया के कई बड़े पर्यावरणविदों और प्रकृतिवादियों ने अपनी चिंता जाहिर की है.

2013 में, एटनबरो ने 'रेडियो टाइम्स' नाम की एक पत्रिका में लिखा, ''पर्यावरण की हमारी सभी समस्याओं का हल आबादी कम होने पर आसान रहता है और आबादी अधिक होने पर इसे हल करना असंभव हो जाता है.''

मानवता की भलाई की चिंता करते हुए कई लोगों ने कम बच्चे या एक भी बच्चा पैदा न करने का फ़ैसला किया है.

समय के साथ बच्चे न पैदा करने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ती जा रही है. इन महिलाओं ने एलान किया है कि जब तक 'क्लाइमेट इमरजेंसी' और जीवों के विलुप्त होने की समस्या दूर नहीं हो जाती, तब तक वे 'बर्थ स्ट्राइक' यानी 'बच्चे पैदा न करने की हड़ताल' करेंगी.
आज बड़े पैमाने पर माना जा रहा है कि लोग दुनिया के सीमित संसाधनों पर लगातार दबाव डाल रहे हैं. इसके लिए अब 'अर्थ ओवरशूट डे' मनाकर बताया जा रहा है.

हर साल इस दिन यह अनुमान लगाया जाता है कि मानवता ने सभी जैविक संसाधनों का उस स्तर तक दोहन कर लिया है, जिसकी पृथ्वी सतत रूप से भरपाई कर सकती है.

2010 में इसे आठ अगस्त को मनाया गया, जबकि 2022 में इसकी तारीख़ 28 जुलाई थी.

'8 बिलियन एंड काउंटिंगः हाउ द सेक्स एंड माइग्रेशन शेप ऑवर वर्ल्ड' नाम की किताब के लेखिका जेनिफर स्क्यूबा लिखती हैं, ''क्या यह समस्या बहुत अधिक इंसानों की है या हमारे द्वारा उपयोग किए जाने वाले संसाधनों की है, या दोनों है. मैं सोच भी नहीं सकती कि पर्यावरण के लिए और अधिक मनुष्य कैसे बेहतर साबित हो सकते हैं.''

हालांकि, स्क्यूबा बताती हैं कि जल्दी ही सामने आने वाले 'जनसंख्या बम', जिससे पृथ्वी का विनाश हो जाएगा, वाला विचार अब पुराना हो गया है.

उनके अनुसार, यह विचार जब दिया गया था, तब दुनिया के 127 देशों में महिलाओं की औसत प्रजनन दर पांच या अधिक थी.

उस दौर में, बढ़ती जनसंख्या के रुझान वाक़ई में बहुत ख़तरनाक मालूम पड़ते थे. उनका मानना है कि इसके चलते बढ़ती जनसंख्या ने कई पीढ़ियों के मन में एक दहशत बैठा दी, जो आज भी जीवित है.

वे कहती हैं, ''लेकिन आज औसतन पांच से अधिक बच्चे पैदा करने वाले देशों की संख्या केवल आठ है. ऐसे में मुझे लगता है कि ये महसूस करना अहम है कि अब वे रुझान बदल गए हैं.''
सुखद भविष्य की कल्पना

जनसांख्यिकी पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को प्रभावित ही नहीं करती, बल्कि यह बहुत बड़ी छिपी हुई शक्ति भी होती है, जो लोगों के जीवन की गुणवत्ता को संवारती भी है.

पेंसिल्वेनिया की ड्रेक्सेल यूनिवर्सिटी में ग्लोबल हेल्थ के प्रोफेसर एलेक्स एजेह के अनुसार, किसी देश में लोगों की संख्या सबसे अहम चीज़ नहीं है.

इसके बजाय, जनसंख्या वृद्धि या गिरावट की दर से उसके भविष्य का पता चलता है.

उनके अनुसार, अफ्रीका को ही ले लें, जहां विभिन्न देशों में जनसंख्या की वृद्धि दर अलग अलग है.

''कई देशों ख़ासकर दक्षिणी अफ्रीका में, प्रजनन दर कम हो गई है और वहां गर्भनिरोधक का उपयोग बढ़ गया है, जो एक अच्छी ख़बर है.''

वहीं, मध्य अफ्रीका के कई देशों में अभी भी उच्च प्रजनन दर और लंबी उम्र की संभावना की वजह से जनसंख्या वृद्धि की दर ज़्यादा है.

वे कहते हैं, ''कई जगहों पर यह दर 2.5 से अधिक है, जो बहुत ज़्यादा है. कई देशों में तो हर 20 सालों में जनसंख्या दोगुनी हो जाएगी.''

उनके अनुसार, ''मुझे लगता है कि आकार और संख्या को लेकर हो रही बातचीत भटक गई है.''

''जरा एक ऐसे शहर के बारे में सोचें जिसकी आबादी हर 10 साल में दोगुनी हो जा रही है. वहां की सेवाओं की कवरेज़ दुरुस्त रखने के लिए हर 10 साल में जो संसाधन चाहिए, क्या वो किसी सरकार के पास वाक़ई हैं?

''अर्थशास्त्री सोचते हैं कि बड़ी आबादी कई अलग-अलग नतीज़ों के लिए अच्छी है लेकिन बड़ा सवाल है कि आबादी कितने सालों में बढ़ रही है?''

(bbc.com/hindi)

 

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