संपादकीय
जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे का राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार किया गया तो खुद जापान में इस पर की गई फिजूलखर्ची का जमकर विरोध हो रहा है। इस पर करीब सौ करोड़ रूपये खर्च होने का अंदाज है, और इस सरकारी खर्च से परे उन 217 देशों का खर्च अलग है जिनके प्रतिनिधि इस अंतिम संस्कार के लिए पहुंचे थे। जापानी और बौद्ध परंपरा के अनुसार 8 जुलाई को हुई इस हत्या के बाद 15 जुलाई को ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया था, और अब महीनों बाद यह प्रतीकात्मक राजकीय अंतिम संस्कार हुआ है जिसमें उनकी अस्थियों को श्रद्धांजलि दी गई है, और इसमें भारतीय प्रधानमंत्री सहित दर्जनों देशों के मुखिया पहुंचे हैं। यह कुछ दिनों के भीतर दुनिया का एक दूसरा बड़ा अंतिम संस्कार है, इसके ठीक पहले ब्रिटिश महारानी एलिजाबेथ के अंतिम संस्कार में भी ऐसे ही दुनिया भर से लोग जुटे थे। जापान में अभी इस अंतिम संस्कार पर खर्च को लेकर कई सर्वे हुए जिनमें पता लगा कि देश की आधी से ज्यादा आबादी इसे गलत खर्च मान रही है। राजधानी टोक्यो में दस हजार लोगों ने दो दिन पहले इस अंतिम संस्कार को रद्द करने की मांग करते हुए जुलूस निकाला, और प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर एक व्यक्ति ने विरोध करते हुए खुद को आग लगा ली।
जापान बहुत गरीब देश नहीं है, लेकिन अंतिम संस्कार पर जनता के पैसों से एक बड़ा खर्च करने का वहां विरोध हो रहा है। जहां सरकारी फिजूलखर्ची के खिलाफ एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री के राजकीय अंतिम संस्कार का विरोध करते हुए हजारों लोग जुलूस निकाल रहे हैं, उस समाज की जागरूकता को समझने की जरूरत है। हिन्दुस्तान में सत्ता पर बैठे हुए नेता अपनी पसंद और नापसंद पर, अपनी सनक पर, और अपने शौक पर सैकड़ों-हजारों करोड़ रूपये खर्च कर देते हैं। जिस देश की आधी आबादी सरकारी रियायती या मुफ्त के अनाज की वजह से जिंदा है, उस देश में एक-एक प्रतिमा पर तीन-तीन हजार करोड़ रूपये खर्च कर दिए जाते हैं। उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती ने अंबेडकर और कांशीराम के साथ अपनी प्रतिमाएं खड़ी करने के लिए, और अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह के चट्टानी बुत बनवाने के लिए शायद हजार करोड़ से अधिक खर्च किए थे, और अब हर चुनाव के वक्त उन हाथियों को ढांकने के लिए दसियों लाख रूपये और खर्च होते हैं। जनता के बीच यह जागरूकता होनी चाहिए कि वह नेताओं की फिजूलखर्ची पर सवाल उठा सके। ऐसे सवाल उठाने के लिए हिम्मत भी लगती है, और सरकारों में बर्दाश्त भी लगता है। आज एक असुविधाजनक सवाल के जवाब में अगर बुलडोजर निकल पड़ते हैं, तो कोई क्या खाकर ऐसे सवाल उठा सकते हैं? लेकिन ऐसी चुप्पी का भुगतान लोकतंत्र को करना होता है जिसमें जनता के खजाने को पांच बरस के निर्वाचित नेता इस अंदाज से लुटाते हैं कि सौ-दो सौ बरस पहले के कोई हिन्दुस्तानी राजा अपने गले की माला लुटा रहे हों। वैसे राजाओं के दिन लद गए, सामंत भी अब नहीं रहे, लेकिन जनता के पैसों पर मनमानी करने की आदत नहीं गई, बल्कि यह ऐसे लोगों को भी लग गई है जो कि सादगी का दावा करते थकते नहीं हैं।
अब यहां पर एक सवाल और उठता है कि किसी के गुजरने पर उसके शरीर को मेडिकल कॉलेज को दान करके एक सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी की जाती है, और फिजूल के अंतिम संस्कार से भी बचा जाता है। लेकन हम सिर्फ आम लोगों को ही ऐसा त्याग करते देखते हैं, किसी भी चर्चित और बड़े व्यक्ति, खासकर सत्तारूढ़ या सत्ता से जुड़े हुए नेता का शरीर कभी चिकित्सा शिक्षा के लिए पहुंचते नहीं दिखता। जबकि हालत यह है कि जिंदा रहते हुए ये नेता खुद को समाज की प्रेरणा मानकर चलते हैं, और उनकी गुजर जाने पर उनकी स्मृतियों को उनके साथी या अनुयायी प्रात:स्मरणीय बताते हैं, यानी दिन की शुरुआत उनकी स्मृतियों से की जानी चाहिए। ऐसे लोग अपना शरीर मेडिकल साईंस को देने की घोषणा क्यों नहीं कर जाते? इससे तो अंतिम संस्कार पर होने वाला अंधाधुंध खर्च भी बचेगा, लकडिय़ां या जमीन पर जगह भी बचेगी, और वे किसी काम भी आ सकेंगे। जब अमरीका में 15-20 बरस पहले भूतपूर्व राष्ट्रपति रोनल्ड रीगन का निधन हुआ, तो अमरीकी सरकार में छुट्टी रखी गई थी। उस दिन का हर कर्मचारी-अधिकारी का वेतन रीगन के राजकीय अंतिम संस्कार के खर्च में जोड़ दिया गया था, और इस तरह यह खर्च तीन हजार करोड़ रूपये से अधिक आंका गया था। खर्च का यह भयानक आंकड़ा देखने के बाद अमरीका में इस तरह की छुट्टी देना शायद बंद कर दिया गया था।
हम घूम-फिरकर फिर जनता के पैसों की बर्बादी की अपनी फिक्र पर आते हैं, तो सत्तारूढ़ नेता मरने के बाद तो जनता पर जितना भी बड़ा बोझ बनते हों, वे जीते-जी भी कम बड़ा बोझ नहीं रहते हैं। जिन नेताओं को गली के कुत्ते भी न काटें, वे भी सरकारी खर्च पर बंदूकबाज साथ लिए चलते हैं। सत्ता से जुड़े लोग अपने घर-दफ्तर में न सिर्फ हिफाजत बल्कि बाकी बातों के लिए भी सरकारी खर्च करवाते हैं। इन सबका जमकर विरोध होना चाहिए। आज सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी निकालना आसान है कि किन कर्मचारियों की तैनाती कहां हैं, कितनी गाडिय़ां कहां तैनात हैं, और सत्तारूढ़ नेताओं पर जनता का कितना पैसा खर्च हो रहा है। लोकतंत्र में पारदर्शिता की उम्मीद करने वाली संस्थाओं को यह चाहिए कि न सिर्फ सूचना के अधिकार के तहत, बल्कि तरह-तरह के फोटो और वीडियो से भी यह जानकारी जुटाते चलें कि कहां-कहां पर जनता के पैसों की बर्बादी हो रही है। और ऐसे सुबूत लेकर उन जजों के सामने भी जाना चाहिए जो कि राजनेताओं से कहीं अधिक बढक़र ऐसी बर्बादी करते हैं, और जनता को सडक़ों पर से दूर धकेलते हुए सायरनों के साये में सडक़ों का सफर तय करते हैं। कम से कम कुछ ऐसे छोटे राजनीतिक दल हो सकते हैं जो कि ऐसी अय्याशी में नहीं लगे रहते, और उन्हें तरह-तरह से ऐसे असुविधाजनक सवाल उठाने चाहिए। लगातार सवाल उठाए बिना लोकतंत्र में और कोई जरिया तो है नहीं कि लोगों को कटघरे में खड़ा किया जा सके। जनता के पैसों की फिजूलखर्ची के इस हमाम में तो नेता, अफसर, जज, सभी बिना तौलियों के हैं, इसलिए इनमें से किसी को कोई शर्म तो आनी नहीं है, जनता के बीच से ही मतदाताओं की जागरूकता के लिए ऐसे सवाल उठाने होंगे।
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