संपादकीय
उत्तरप्रदेश के वाराणसी में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के एक अतिथि व्याख्याता मिथिलेश गौतम को विश्वविद्यालय ने उनकी एक फेसबुक पोस्ट पर खड़े-खड़े बर्खास्त कर दिया है, और विश्वविद्यालय के अहाते में उनके घुसने पर रोक लगा दी है। मिथिलेश गौतम ने लिखा था- महिलाओं को नौ दिन के नवरात्र व्रत से अच्छा है कि नौ दिन भारतीय संविधान और हिन्दू कोड बिल पढ़ लें, उनका जीवन गुलामी और भय से मुक्त हो जाएगा, जय भीम।
नाम और जय भीम इन दोनों से यह जाहिर है कि मिथिलेश गौतम दलित समाज के दिखते हैं, और उन्होंने हिन्दू धर्म की मान्यताओं के मुकाबले भारतीय संविधान का गुणगान करते हुए हिन्दू महिलाओं को संविधान पढऩे की एक साधारण और पूरी तरह कानूनी सलाह दी थी। लेकिन इस सलाह पर विश्वविद्यालय की कुलसचिव डॉ. सुनीता पांडेय के दस्तखत से जारी बर्खास्तगी की चिट्ठी में कहा गया है कि विश्वविद्यालय के छात्रों ने 29 सितंबर को सोशल मीडिया पर डॉ. गौतम की पोस्ट के खिलाफ शिकायती पत्र दिया। डॉ. गौतम की इस हरकत से विश्वविद्यालय के छात्रों में आक्रोश फैलने, माहौल खराब होने, और इम्तिहान और दाखिला बाधित होने की वजह से राजनीति शास्त्र के अतिथि प्रवक्ता डॉ. गौतम को तुरंत ही बर्खास्त करते हुए विश्वविद्यालय परिसर में उनके आने पर रोक लगाई जाती है। 29 सितंबर को ही छात्रों ने यह शिकायत की, और उसी दिन यह बर्खास्तगी हो गई। इस रफ्तार से ही यह जाहिर है कि यह इंसाफ किस तरह का हुआ होगा। और यह बात तो समझ से परे है ही कि हिन्दू महिलाओं को भारतीय संविधान और हिन्दू कोड बिल पढऩे की सलाह देना किस तरह एक दलित का जुर्म करार दिया जा सकता है?
जो हिन्दू धर्म हिन्दुस्तान में अपनी आबादी के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर बताने में लगे रहता है, वह हिन्दू धर्म जनगणना निपट जाने के बाद अपने तथाकथित लोगों के भीतर से दलितों और आदिवासियों को कुचलने और काटने में जुट जाता है। दलितों को हिन्दुओं की संख्या बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि जब भारत सरकार से कमेटी मेडिकल कॉलेज की जांच के लिए आती है तो घर बैठे रिटायर्ड चिकित्सा-प्राध्यापक को भी मेहनताने पर ला-लाकर मेडिकल कॉलेज के शिक्षकों की गिनती बढ़ाकर दिखाई जाती है ताकि मान्यता मिल जाए। उसी तरह देश में सबसे अधिक हिन्दू आबादी साबित करने के वक्त हिन्दू समाज के सबसे आक्रामक शुद्धतावादी लोगों को भी दलित और आदिवासी हिन्दू लगने लगते हैं, और जनगणना के तुरंत बाद ये अवांछित लोग उन्हें सरकारी दामाद लगने लगते हैं, और तुलसी दास के शब्दों में ताडऩ के अधिकारी लगने लगते हैं, यानी मार खाने लायक। अब एक दलित ने अगर हिन्दू धर्म के पूजा-पाठ के किसी रिवाज के मुकाबले देश के संविधान को पढऩा बेहतर बताया है, तो इसे जुर्म करार देते हुए उसकी नौकरी खत्म कर दी गई। और बात सही भी है कि किसी भी धर्म के अस्तित्व को सबसे बड़ा खतरा किसी संविधान से ही हो सकता है, और खासकर तब जब वह संविधान समाज सुधार की बात भी करता हो, और धर्म के सबसे कट्टरपंथी शुद्धतावादी ऐसे किसी संभावित सुधार के खिलाफ लगे रहते हों। अभी महात्मा गांधी के नाम पर बनाए गए इस विश्वविद्यालय ने मेहरबानी यही की है कि इस दलित के मुंह और कान में पिघला हुआ सीसा भर देने की सजा नहीं सुनाई है, महज नौकरी से निकाला है।
हिन्दुस्तान के विश्वविद्यालयों के चाल-चलन को देखें, तो हैरानी होती है कि इनका विश्व से क्या लेना-देना हो सकता है? इनका तो अपने देश से, अपने ही प्रदेश से कोई लेना-देना नहीं है, देश के संविधान से कोई लेना-देना नहीं है, संविधान की चर्चा जहां एक जुर्म है, वैसे संस्थान भला क्या खाकर विश्व की बात कर सकता है? दुनिया के महान विश्वविद्यालय खुले शास्त्रार्थ से ही पनप सकते हैं, पनपते हैं। गहरे अंधेरे कुएं, या लंबी अंधेरी सुरंग जैसे दिमाग वाले लोग विश्व शब्द इस्तेमाल करने का भी हक नहीं रखते। जिनको संकुचित धार्मिक मान्यताओं के मुकाबले एक धर्मनिरपेक्ष संविधान के प्रावधानों की चर्चा भी बर्दाश्त नहीं है, वे विश्व से कौन सा ज्ञान ले सकते हैं, और कौन सा ज्ञान विश्व को दे सकते हैं? अगर एक दलित की दी गई सलाह कट्टरपंथी, तंगदिमाग, शुद्धतावादी हिन्दू पुरूषप्रधान लोगों को इतनी खटक रही है, तो उन्हें कार्रवाई के कोड़े मारकर एक सवालिया दलित की नौकरी खाने से अधिक हौसले का कुछ करके दिखाना चाहिए। उन्हें आत्ममंथन करना चाहिए कि वे अपने धर्म की मान्यताओं को बेहतर कैसे बना सकते हैं। सवाल को विश्वविद्यालय के अहाते में घुसने से रोक देना यह बताता है कि यह संस्थान विश्वविद्यालय बनने के लायक नहीं है। जहां सवालों पर रोक लगे वह जगह समझदारी की किसी भी बात के लायक नहीं है।
आज हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म या हिन्दू समाज के नाम पर एक शुद्धतावादी-कट्टरपंथी हमलावर सोच हावी है, और वह अपने आपको मानो इस विशाल समाज का सरगना मान चुकी है। इस स्वघोषित अगुवाई को आज की सत्ता से भी बेहिसाब ताकत हासिल है, और ऐसे ही हमलावर हिन्दुत्व की वजह से दलितों और आदिवासियों को इस धर्म-समाज से परे दूसरे रास्ते सूझते हैं। जो दलित अपने को एक वक्त हिन्दू मानते थे, वे बीती पौन सदी में लगातार ऐसे हिन्दुत्व को छोड़-छोडक़र दूसरे धर्मों में गए। दूसरी तरफ जिन आदिवासियों ने अपने को कभी हिन्दू नहीं माना, उन्होंने भी अपने आदिवासी-धर्म को छोडक़र अगर कोई दूसरा धर्म अपनाया है, तो उन्होंने हिन्दुत्व नहीं अपनाया। यह बात जाहिर है कि हिन्दू धर्म के भीतर वर्ण व्यवस्था के पांवों के भी नीचे की जगह पाने से बेहतर यह है कि दलित और आदिवासी ऐसे दूसरे धर्म में रहें जहां उन्हें कम से कम इंसान तो माना जाता है। महात्मा गांधी के नाम पर बनाए गए इस विश्वविद्यालय से गांधी का नाम तो पहले हटा देना चाहिए, और फिर वहां बेधडक़ दलितविरोधी काम करना चाहिए, कम से कम गांधी का नाम बदनाम न हो।
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