संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जमीन और जड़ों से कटे जजों का हाल-बदहाल
07-Oct-2022 4:18 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जमीन और जड़ों से कटे जजों का हाल-बदहाल

आज जब हिन्दुस्तान का सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में यह कह चुका है कि सबसे गरीब तबके की इंसाफ तक पहुंच मुश्किल हो गई है, उस वक्त देश की बहुत सी अदालतों का रूख जाहिर तौर पर गरीबों के खिलाफ दिख रहा है। बहुत से मामलों में तो चुनाव लडक़र सरकार में आने वाले लोग गरीबों के लिए अधिक हमदर्दी दिखाते दिखते हैं क्योंकि गरीबों के वोट गिनती में अधिक होते हैं, और वे अधिक वोट भी देते हैं। लेकिन जिन जजों को कोई चुनाव नहीं लडऩा रहता, उन्हें अपनी सहूलियतें तो अच्छी लगती हैं, लेकिन गरीबों के हक की उन्हें परवाह नहीं दिखती है। ऐसा ही एक मामला सुप्रीम कोर्ट में अभी पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ दी गई चुनौती के दौरान सामने आया। वहां एक सडक़ हादसे में एक कामगार की मौत हुई थी, और उसे मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण ने जो मुआवजा दिया था उसमें उसकी माहवारी कमाई 25 हजार रूपये जोड़ी गई थी। ट्रिब्यूनल ने यह हिसाब लगाया था कि यह कामगार हर महीने ट्रैक्टर के लिए लिए गए कर्ज का साढ़े 11 हजार रूपये महीना भुगतान मरने तक करते रहा। इससे ट्रिब्यूनल ने 25 हजार रूपये महीने की कमाई का अंदाज लगाया, और उस हिसाब से उसकी मौत का मुआवजा देने का आदेश दिया। लेकिन जब ट्रिब्यूनल के आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट में मामला गया तो वहां जज ने उसकी मासिक आय 7 हजार रूपये मानी, और मुआवजे को घटा दिया। अभी सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस फैसले को खारिज किया और कहा कि ट्रिब्यूनल ने सही सोचा था, और हाईकोर्ट ने पता नहीं किस गोपनीय वजह से इस आदमी की कमाई घटाकर हिसाब बनाया है, जिसका कि कोई औचित्य नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट जज के खिलाफ काफी कड़ी टिप्पणी की है।

एक दूसरा मामला झारखंड का है जहां हाईकोर्ट के एक फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई है और कहा है कि क्या किसी के गरीब होने से उसे जमानत पाने का हक नहीं है? अदालत ने हाईकोर्ट के कई फैसलों को देखा जिनमें संपन्न आरोपियों से बड़ी रकम जमा कराकर हाईकोर्ट ने जमानत दे दी थी, और यह भी नहीं देखा था कि उन पर लगे आरोपों में जुर्म किस किस्म के थे। अभी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कई फैसले देखकर हाईकोर्ट को फटकारा है, और जमानत के लिए रकम जमा करने की ऐसी शर्तों को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसी शर्तें कानून के मुताबिक सही नहीं है। खबरें बताती हैं कि झारखंड हाईकोर्ट ने दहेज से लेकर धोखाधड़ी तक, और बलात्कार से लेकर पॉक्सो एक्ट तक के मामलों में बड़ी रकम जमा कराकर जमानत दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे सभी मामलों में जमानत को लेकर झारखंड हाईकोर्ट फिर से सुनवाई करे। सुप्रीम कोर्ट जजों ने कहा कि अगर कोई आरोपी बड़ी रकम जमा नहीं कर सकते, उनके पास पैसे नहीं है, तो इससे उन्हें जमानत देने से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन यहां पर वही होते दिख रहा है, जज ने किस आधार पर ऐसा फैसला किया, यह हमारी समझ से परे है।

ये दो अलग-अलग मामले हाईकोर्ट जजों की एक संपन्न सोच का सुबूत हैं। एक तरफ एक कामगार की कमाई को मानने के लिए जज तैयार नहीं हैं, जबकि नीचे के ट्रिब्यूनल ने एक बड़ा ही न्यायसंगत हिसाब सामने रखा था। और दूसरी तरफ पैसे वालों को जमानत देना, गरीब को मना कर देना, यह भी न्याय व्यवस्था का एक भयानक पहलू है। हिन्दुस्तान में अदालत तक पहुंचने के पहले न्याय व्यवस्था जहां पुलिस के स्तर से शुरू होती है, वहां पर भी गरीब और अमीर का फर्क पहले दिन से दिखने लगता है। गरीब के खिलाफ आनन-फानन एफआईआर दर्ज हो जाती है, और पैसे वालों के खिलाफ एफआईआर करवाने के लिए गरीब को अदालत तक जाना पड़ता है, और वहां की मशक्कत के बाद कुछ मामलों में अदालती हुक्म से पुलिस को एफआईआर दर्ज करनी पड़ती है। तकरीबन पूरे हिन्दुस्तान में पुलिस का रूख गरीबविरोधी रहता है, अल्पसंख्यक और दलित-आदिवासीविरोधी रहता है, महिलाविरोधी रहता है। पुलिस की जांच के स्तर से ही सवर्ण, संपन्न, ताकतवर, और पुरूष के पक्ष में एक पूर्वाग्रह हावी रहता है। यह मामले के अदालत पहुंचने तक और मजबूत हो जाता है क्योंकि ऐसे ताकतवर तबकों के लोग अदालत तक अधिक रिश्वत देने की हालत में रहते हैं, अधिक महंगे वकील रख पाते हैं, और अधिक अदालती तिकड़मों को जुटा पाते हैं। नतीजा यह होता है कि गरीब के इंसाफ पाने की गुंजाइश बहुत ही कम रहती है। जिन दो अदालती मामलों को लेकर हम आज इस पर चर्चा कर रहे हैं, उन दोनों ही मामलों में गरीब लोग या उनके परिवार किस तरह हाईकोर्ट तक पहुंचे होंगे, इसका अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है। जिला स्तर या उससे छोटी अदालतों तक भी किसी गरीब के पहुंचने की गुंजाइश बड़ी कम रहती है, और वे अदालत में मुकदमा भी लड़ते हैं, और अपने वकील की फीस की मांग और उम्मीद से भी लड़ते हैं। ऐसे में अगर हाईकोर्ट के जजों का रूख गरीबविरोधी रहता है, तो उनमें से कितने ऐसे होंगे जो कि ऐसे रूख के खिलाफ, ऐसे फैसलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक जा सकें?

हमारा खयाल है कि भारत के जजों को देश की सामाजिक हकीकत का एक कोर्स करवाना चाहिए, और उसके बाद ही उन्हें इंसाफ करने की कुर्सी पर बिठाना चाहिए। बिना सामाजिक असलियत जाने, और बिना सामाजिक सरोकार समझे कोई भी जज गरीब की तकलीफ को नहीं समझ सकते, और उन्हें फैसला देने का अधिकार उन्हें लोगों का भाग्य-विधाता बना देता है, और यह सिलसिला बहुत बेइंसाफी का है। भारतीय समाज में सत्ता के जितने ओहदे हैं, उन सबको सामाजिक सरोकार का पाठ पढ़ाने की जरूरत है। ऐसा लगता है कि आईएएस-आईपीएस जैसी ताकतवर नौकरियों में आने वाले लोगों को भी देश की आधी गरीब आबादी के प्रति सरकारी जिम्मेदारी नहीं पढ़ाई जाती है। अब जिस तरह से अरबपतियों को लोकसभा और विधानसभा में टिकटें मिल रही हैं, जिस तरह से वे जीतकर आ रहे हैं, उससे भी ऐसा लगता है कि उनमें सामाजिक सरोकार की कोई जगह नहीं रहती है। इसीलिए आज सत्ता पर बैठे अधिकतर लोग पूरी बेशर्मी से अपनी काली कमाई के महल बनाते हैं, और उन्हें किसी तरह की कोई शर्म-झिझक भी नहीं रहती। हिन्दुस्तान में ताकत की तमाम कुर्सियों को सामाजिक न्याय का पाठ पढ़ाने की जरूरत है। अगर सबसे बड़ी नौकरियों वाले लोगों को छांटने के बाद उन्हें इस हकीकत की ट्रेनिंग नहीं दी जाएगी, तो वे लोग काले अंग्रेजों की तरह राज करते रहेंगे। देश की बहुत सी अदालतों के जजों का भी यही हाल है कि वे जमीन से कट चुके हैं, और अपने हवाई महलों में रहते हुए मनमाने फैसले दे रहे हैं। यह सिलसिला खत्म करना चाहिए, और जनता को ऐसे सरकारी, संसदीय, राजनीतिक, और अदालती फैसलों के खिलाफ खुलकर लिखना चाहिए।
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