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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नाबालिग लड़कियां इतने खतरों में पड़ती क्यों हैं?
08-Oct-2022 2:49 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  नाबालिग लड़कियां इतने खतरों में पड़ती क्यों हैं?

हर दिन अपने आसपास से आ रही ऐसी खबरों से सामना हो रहा है जिनमें नाबालिग लड़कियों को बरगला कर बालिग नौजवान या आदमी घर से भगाकर ले जा रहे हैं, उनके साथ बलात्कार कर रहे हंै, और जल्द ही गिरफ्तार भी हो जा रहे हैं। अभी कल ही छत्तीसगढ़ में एक जिला युवक कांग्रेस अध्यक्ष को गैंगरेप में तीन दूसरे नौजवानों के साथ गिरफ्तार किया गया, और पन्द्रह साल की नाबालिग लडक़ी को साथ ले जाकर, कोल्डड्रिंक में नशा मिलाकर बलात्कार करवाने वाली उसकी सहेली को भी गिरफ्तार किया गया है। एक दूसरे मामले में दो-तीन नाबालिग लड़कियों को गुजरात ले जाने वाले बालिग और शादीशुदा लोगों को गिरफ्तार किया गया है। मोबाइल फोन की मेहरबानी से लोगों की लोकेशन पुलिस को आसानी से मिल जाती है, और लोग तेजी से गिरफ्तार भी कर लिए जाते हैं। ऐसे में एक हैरानी यह होती है कि रोजाना छपने वाली इन खबरों के बावजूद लोग बलात्कार भी कर रहे हैं, और नाबालिग लड़कियों को लेकर भाग भी रहे हैं। यह बात भी तय है कि ऐसे लोगों को कई बरस की कैद होना एक तय सी बात रहती है, फिर भी न तो नाबालिग लड़कियों का ऐसे झांसे में फंसना कम हो रहा है, और न ही बालिग लोगों का ऐसा जुर्म करना घट रहा है।

अब सवाल यह उठता है कि ऐसी घटनाएं हर दिन क्यों हो रही हैं? क्या किशोरियों में अपनी हिफाजत, अपने बदन की हिफाजत को लेकर समझ विकसित नहीं हो पा रही है? या उनका देहशोषण करने वाले लोगों को यह खतरा समझ क्यों नहीं आ रहा है कि कुछ मिनटों का मजा पाने के बाद उनके लिए सजा इंतजार कर रही है? सबसे पहली बात तो यह कि ऐसे देहशोषण या बलात्कार से जिन लड़कियों का सबसे अधिक नुकसान होता है, उनके भीतर समझ और जागरूकता क्यों पैदा नहीं की जा रही है? एक तरफ तो हिन्दुस्तान के बड़े हिस्से में लड़कियों को अधिक आजादी देने के सभी दुश्मन रहते हैं। और दूसरी तरफ आजादी के लायक समझ देने में दिलचस्पी किसी की नहीं रहती। यह पीढ़ी मोबाइल और मोबाइक की है, और कमउम्र लड़कियों को भी पढ़ाई और खेलकूद के लिए दूर-दूर तक अकेले जाना ही होता है। ऐसे में अगर अपने खुद के लिए उनमें समझ नहीं है, तो वे कई वजहों से किसी भी तरह के झांसे में फंस सकती हैं, और बरसों के लिए तकलीफ और बदनामी की शिकार हो सकती हैं। दूसरी तरफ हम विकसित देशों में इसी उम्र की लड़कियों को देखते हैं जो कि अपने पसंद के लडक़ों के साथ उठती-बैठती हैं, अपने बराबरी के लोगों से रिश्ता रखती हैं, और जैसे जुर्म का शिकार वे हिन्दुस्तान में होती हैं, वैसे जुर्म विकसित देशों में सुनाई नहीं पड़ते। इसलिए लड़कियों को आजादी मिलने से वे अधिक खतरे में पड़ती हैं, यह सोच गलत है। लड़कियां उन समाजों में अधिक खतरे में पड़ती हैं, जहां पर लोग अधिक खतरनाक हैं, और जहां पर ऐसे लोग कानून के खतरे की तरफ से बेफिक्र भी हैं।

ऐसा लगता है कि अब स्कूल की बड़ी कक्षाओं में लड़कियों को उनके शरीर के बारे में अधिक पढ़ाने की जरूरत है, और समाज में जो खतरे हैं उनसे परिचय कराने की भी। फिर आज जिस तरह मोबाइल फोन और कैमरों के मार्फत ब्लैकमेल करने लायक तस्वीरें और वीडियो आसानी से बना लिए जाते हैं, उनके बारे में भी लड़कियों को सावधानी सिखाने की जरूरत है। आज न स्कूल इस बारे में कुछ करते, और न ही घर के लोग कोई स्वस्थ बातचीत इस बारे में करना चाहते हैं। घरवालों को लगता है कि महज प्रतिबंध लगा देने से सब ठीक हो जाएगा, जबकि ऐसा होता नहीं है। इस बात को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए कि बालिग होने के पहले के कई बरस लड़कियों के तन-मन ऐसे बदलाव से गुजरते हैं कि उन्हें कई किस्म की नई जरूरतें पैदा होती हैं। इन जरूरतों के वक्त उनका किसी धोखे में फंस जाना एक आसान बात रहती है, और किशोरियों के लिए मनोवैज्ञानिक और कानूनी परामर्श का इंतजाम अनिवार्य रूप से होना चाहिए।

जिस तरह स्कूलों में पढ़ाने की तकनीक के लिए अब तमाम शिक्षक-शिक्षिकाओं का बीएड या एमएड करना जरूरी है, उसी तरह ऐसे तमाम शिक्षकों को मनोवैज्ञानिक परामर्श की एक सीमित और बुनियादी ट्रेनिंग दी जानी चाहिए ताकि वे स्कूल के बच्चों की मदद कर सकें। इस देश में पेशेवर मनोचिकित्सकों और परामर्शदाताओं की बहुत अधिक कमी है, इसलिए समाज यह उम्मीद नहीं कर सकता कि बच्चों की नई पीढ़ी को जरूरत के वक्त परामर्शदाता मिल जाएंगे। इसके लिए स्कूलों जैसी संगठित जगह का ही इस्तेमाल करना होगा, और वहां पर शिक्षक-शिक्षिकाओं को परामर्शदाता बनाना सबसे आसान और असरदार काम हो सकता है। उनकी ट्रेनिंग के लिए ऐसे वीडियो तैयार किए जा सकते हैं जिनमें पेशेवर प्रशिक्षक उन्हें बच्चों की समस्याएं सुलझाने के लायक तैयार कर सकें। सरकारों की अधिक दिलचस्पी इस काम में शायद इसलिए नहीं होती है कि नाबालिग लड़कियों का वोट नहीं होता, और सरकार और समाज यह मानकर चलते हैं कि ऐसी लड़कियों के लिए उनका परिवार ही जिम्मेदार है।

आए दिन सामने आ रही ऐसी घटनाओं को देखते हुए कुछ जनसंगठनों को यह पहल करनी चाहिए कि वे प्रयोग के तौर पर कुछ सरकारी या निजी स्कूलों में लड़कियों को अधिक जागरूक और जिम्मेदार बनाने का काम करें। यूनिसेफ जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन भी इसमें मदद कर सकते हैं, और लड़कियों को आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी, जागरूक और जिम्मेदार बनाना ही उन पर से खतरों को घटाने का एक तरीका हो सकता है। सरकार के कई विभाग और कई समाजसेवी संगठन इस काम में अपनी जिम्मेदारी ढूंढ सकते हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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