संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चुनौती किसके सामने बड़ी, खडग़े या सोनिया-परिवार?
20-Oct-2022 3:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चुनौती किसके सामने बड़ी, खडग़े या सोनिया-परिवार?

हिन्दुस्तान की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी अभी अपने सबसे बुरे दौर से भी गुजर रही है, और वह इससे उबरने की कोशिश भी कर रही है। कल दशकों बाद कांग्रेस ने एक औपचारिक चुनाव से गांधी-परिवार के बाहर के एक सबसे पुराने नेता मल्लिकार्जुन खडग़े को अपना अध्यक्ष चुना है। आज किसी भी राजनीतिक पार्टी में संगठन के चुनाव में जितनी पारदर्शिता हो सकती है, उससे बहुत अधिक पारदर्शिता के साथ कांग्रेस के संगठन चुनाव हुए हैं, और देश के एक सबसे बुजुर्ग और सबसे अनुभवी दलित नेता को इस चुनौती भरे दौर में इस पार्टी की अगुवाई मिली है। इसे ओहदा मिलना कहना बिल्कुल गलत होगा, खडग़े को यह सिर्फ एक बहुत बड़ी चुनौती मिली है। 

कांग्रेस 2014 के बाद से लगातार जमीन खोते जा रही थी, और 2019 के चुनाव के बाद वह हाशिए पर जा चुकी दिख रही थी। लेकिन संसद में सीटें कम होने से कांग्रेस को खारिज कर देना ठीक नहीं है क्योंकि भाजपा के वोटों से आधे वोट रह जाने पर भी कांग्रेस देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है, न सिर्फ लोकसभा चुनाव में मिले वोटों के आधार पर, बल्कि देश के हर हिस्से में अपनी मौजूदगी की वजह से भी। भाजपा के अलावा कांग्रेस ही अकेली ऐसी पार्टी है जो देश भर में है, और शायद कुछ हिस्से ऐसे हो सकते हैं जहां अभूतपूर्व कामयाब भाजपा की भी मौजूदगी न हो, लेकिन कांग्रेस की मौजूदगी वहां भी होगी। इसलिए कांग्रेस के बिना अगले कई बरस तक हिन्दुस्तानी लोकतंत्र का कोई विपक्ष नहीं हो सकता, और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस के सामने ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी है, और अभूतपूर्व चुनौती तो पिछले कई बरसों से बनी हुई है ही। खडग़े ने जिस दौर में, करीब 80 बरस की उमर में यह चुनौती पाई है, वह सचमुच ही मुश्किल है, और गांधी परिवार की मौजूदा पीढ़ी के साथ काम करने की एक अजीब सी नौबत भी है। 
दरअसल कांग्रेस के पिछले चुनाव जब हुए थे, तब सोनिया गांधी की लीडरशिप नहीं थी, और पिछले दो-ढाई दशक सोनिया और राहुल लगातार पार्टी के अध्यक्ष रहे, किसी औपचारिक चुनाव की कोई जरूरत भी नहीं हुई, और सफलता या असफलता के बावजूद उनकी लीडरशिप को कोई चुनौती भी नहीं थी। लेकिन 2019 का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ दिया, और तमाम लोगों की तमाम कोशिशों के बावजूद वे दुबारा अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं हुए। उनकी जिद के चलते कांग्रेस पिछले दो-तीन बरस से एक बड़े असमंजस के दौर से गुजर रही थी, सोनिया गांधी अनमने ढंग से कामचलाऊ अध्यक्ष बनी हुई थीं, और पार्टी के भीतर के दो दर्जन बड़े नेताओं ने पारदर्शी चुनाव और पार्टी में सुधार की मांग को लेकर एक किस्म से खुली बगावत कर रखी थी। बड़े-बड़े कुछ नेताओं ने फेरबदल न होने पर पार्टी छोड़ भी दी, लेकिन कुल मिलाकर जिस किस्म के चुनाव की मांग की गई थी, वैसा चुनाव कल पूरा हुआ है, और किसी को भी चुनाव लडऩे से रोका नहीं गया, सबको मौका था, गुप्त मतदान हुआ, मिलीजुली मतगणना हुई, गांधी परिवार ने किसी का खुला समर्थन नहीं किया, और मल्लिकार्जुन खडग़े करीब 90 फीसदी वोट पाकर निर्विवाद रूप से अध्यक्ष बने। 
इस पूरी पृष्ठभूमि में अब अगर उनके कार्यकाल को देखें, तो जितनी बड़ी चुनौती भाजपा और उसके सहयोगी दलों से चुनाव लडऩे की है, उतनी ही बड़ी चुनौती इस बात की भी है कि अध्यक्ष के अपने कार्यकाल में वे सोनिया परिवार के साथ किस तरह के संबंध रखते हैं, किस तरह उनकी लीडरशिप की खूबियों का इस्तेमाल करते हैं, किस तरह उनकी शोहरत को पार्टी के लिए काम में लाते हैं। यह कांग्रेस का सबसे मुश्किल और चुनौतीभरा दौर है, लोग उन्हें सोनिया-परिवार की पसंद का अध्यक्ष भी मानते हैं, और ऐसे में पार्टी को बांधकर रखने वाले इस परिवार के साथ वे कैसे संबंध रखते हैं, इस पर भी पार्टी के भीतर उनकी कामयाबी टिकेगी। यह बात बहुत जाहिर है कि आज भी न सिर्फ देश के मतदाताओं के बीच बल्कि कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच भी सोनिया-परिवार पार्टी के किसी भी दूसरे नेता के मुकाबले अधिक लोकप्रिय है। यह तो राहुल गांधी की जिद थी कि उनके परिवार के बाहर से अध्यक्ष चुने जाएं, इसलिए यह नौबत आई, वरना कितनी भी चुनावी शिकस्त होने पर भी इस परिवार से अधिक बड़े कोई नेता पार्टी में नहीं है, और पार्टी के लोगों को मंजूर नहीं हैं। लेकिन अब यह बात साफ है कि कन्याकुमारी से कश्मीर तक की अभूतपूर्व पदयात्रा पर निकले हुए और धूप में तपकर निखरते हुए राहुल गांधी कांग्रेस के लिए आज सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरे हैं। एक किस्म से इतनी ताकत पार्टी के औपचारिक अध्यक्ष के मुकाबले एक दूसरे शक्ति केन्द्र की तरह हो सकती है। और कांग्रेस को, सोनिया परिवार को इस बात का ख्याल रखना पड़ेगा कि उसके आभा मंडल के पीछे निर्वाचित अध्यक्ष दब और छुप न जाएं। पार्टी को मुसीबत से उबारना है तो उसे अपने लोकप्रिय चेहरे को अलग रखना होगा, और निर्वाचित अध्यक्ष की सत्ता को अलग रखना होगा। आज अगर पार्टी के भीतर या मतदाताओं के सामने एक ऐसी तस्वीर जाएगी कि एक बुजुर्ग, वरिष्ठ, और तजुर्बेकार अध्यक्ष के रहते हुए भी सोनिया-परिवार पिछली सीट पर बैठकर कार चला रहा है, तो इससे परिवार के बाहर का अध्यक्ष बनाने का पूरा मकसद ही शिकस्त पाएगा। पार्टी के भीतर सबसे अधिक, अपार ताकत रखते हुए भी इस परिवार को संगठन के मामलों में अपने को दूर रखना होगा, और तभी राहुल गांधी की यह साख बन पाएगी कि वे सचमुच ही पार्टी के बाहर का अध्यक्ष चाहते थे। अगर यह परिवार मालिक की तरह खुद घर बैठकर खडग़े से मैनेजर की तरह काम करवाएगा, तो पार्टी के और बुरे दिन आएंगे, राजनीतिक के साथ-साथ व्यक्तित्व की ईमानदारी की साख भी चौपट होगी। यह एक बड़ी चुनौती रहेगी कि आमतौर पर मुसाहिबों और खुशामदखोरों से घिरे हुए सोनिया-परिवार को संगठन पर अपनी ताकत और पकड़ के इस्तेमाल से अपने को रोकना होगा, अपने को बचाना होगा। इसके साथ-साथ खडग़े के लिए भी यह एक चुनौती रहेगी कि संगठन में वे सोनिया-परिवार के प्रतिद्वंद्वी या विरोधी की तरह न दिखें, और इस परिवार की लोकप्रियता का पार्टी के पक्ष में अधिक से अधिक इस्तेमाल करें। यूपीए सरकार के वक्त मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की जोड़ी ने यह कर दिखाया था। सोनिया की शासन क्षमता शून्य थी, और मनमोहन सिंह की वोटरों के बीच अपील भी तकरीबन उतनी ही थी। लेकिन मनमोहन सिंह ने दस बरस संगठन के साथ संबंध और सरकार दोनों को बखूबी निभाया था। खडग़े इतने पुराने और इतने किस्म के कामों से आगे बढ़े हुए नेता हैं कि उनके लिए यह बात नामुमकिन नहीं है, मुश्किल जरूर हो सकती है। आज उनकी, कांग्रेस की, और सोनिया-परिवार की साख के लिए यह जरूरी है कि इस परिवार के साथ परस्पर सम्मान का एक संबंध रखते हुए वे कांग्रेस पार्टी को मुसीबत से उबारने की एक स्वायत्त कोशिश करें। किसी भी अगले चुनाव में पार्टी को इस परिवार की लोकप्रियता का सहारा तो मिलते ही रहेगा, फिलहाल उसे देश भर में अपने संगठन को जिंदा और मजबूत करना चाहिए, और भारत का चुनावी-लोकतांत्रिक इतिहास खडग़े और सोनिया-परिवार के इस दौर को बारीकी से दर्ज करेगा।  

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