संपादकीय
पश्चिम के किसी टीवी रियलिटी शो की तर्ज पर हिन्दुस्तान में पिछले कई बरस से बिग बॉस नाम का एक शो टीवी पर आता है जो देश के एक सबसे बड़े फिल्म सितारे, सलमान खान के हाथों पेश होता है, और इस पर तरह-तरह के चर्चित और आमतौर पर विवादास्पद लोग आते हैं, और किसी बनावटी घर में रहने का नाटक करते हुए एक-दूसरे के खिलाफ गंदी से गंदी, ओछी से ओछी बातें करते हैं। रियलिटी के नाम पर ऐसी गढ़ी हुई सनसनीखेज हकीकत के इस कार्यक्रम के बारे में अधिक कुछ कहना बेकार है, सिवाय इसके कि इसमें शामिल लोग हिन्दुस्तानी दर्शकों के बीच गंदगी के लिए एक चाहत को भुनाते हैं, और गंदगी के नए-नए रिकॉर्ड कायम करते हैं। गलाकाट मुकाबले में लगे मीडिया के बीच इस गंदगी को सुर्खियों में परोसकर पाठक या दर्शक पाने की होड़ लगी रहती है, और कभी-कभी यह लगता है कि टीवी और बाकी मीडिया एक-दूसरे की गंदगी पर परजीवी की तरह जीने में लगे रहते हैं।
कई बार यह भी लगता है कि वो कौन से लोग हैं जिनकी वजह से बीमार दिमाग का लगता ऐसा शो कामयाब होता है, वो कौन से दर्शक हैं जो कि ऐसी साजिशों और ऐसी गंदगी को चाट-चाटकर देखते हैं, मजा लेते हैं? मनोरंजन इस तरह बेहूदा भी हो सकता है, यह बात कुछ अविश्वसनीय भी लगती है, लेकिन यह सच होगा, तभी तो दुनिया के कई देशों में इसी ढांचे में ढले हुए स्थानीय कार्यक्रम बनते हैं, और चलते हैं। शायद टीवी का माध्यम ऐसा है कि वह विवादों और सनसनी पर पलता है, जिस पर जब करण जौहर अपने कॉफी शो में हार्दिक पटेल से उनकी सेक्स-जिंदगी की गंदगी उगलवाते हैं, और उसे सबसे अधिक दर्शक मिलते हैं, तो वह बहुत बड़ी बाजारू कामयाबी रहती है। जिस तरह उत्तर भारत के कुछ राज्यों से स्थानीय सार्वजनिक कार्यक्रमों में बाजारू गानों पर अश्लील नाच करते हुए नोट बटोरने में लगी डांसरों का हाल दिखता है, हिन्दुस्तानी मनोरंजन टीवी, और अब तो समाचार टीवी, का हाल भी उतना ही बुरा दिखता है, फिर भी बिग बॉस जैसी गंदगी शायद ही दूसरे टीवी कार्यक्रमों में हो।
अब क्या यह समाज का एक दर्पण है जो कि लोगों की असली पसंद पर कामयाब हो रहा है, या फिर यह मेले में लगने वाली नुमाइश में रखे गए उन आईनों की तरह का है जिनमें लोग अपने आपको मोटा, लंबा, या आड़ा-तिरछा देखकर खुश होते हैं? अगर यह आईना लोगों की बीमार सोच को सही-सही दिखाने वाला एकदम सपाट आईना है, तो लोगों को यह सोचना चाहिए कि वे घर बैठे किस तरह की गंदगी देखते हैं, और उनके साथ बैठे, या वहां पर आते-जाते बच्चे किस तरह की विकृत चीजों को देखेंगे, और उनसे क्या सीखेंगे? यह सिलसिला अधिक खतरनाक इसलिए है कि ऐसे कार्यक्रम पोर्नो नहीं हंै जो कि गैरकानूनी भी होते हैं, और परिवारों के बीच नहीं देखे जाते हैं, ऐसे कार्यक्रमों पर न तो कोई कानूनी रोक है, और न ही इन्हें घर बैठे देखने के खिलाफ कोई जागरूकता है। नतीजा यह है कि किसी एक व्यक्ति के चक्कर में पूरा परिवार ऐसी गंदगी चखकर देखने लगता है, और अगली पीढ़ी को न सिर्फ यह एक कार्यक्रम, बल्कि ऐसे बहुत से कार्यक्रम बर्दाश्त के लायक लगने लगते हैं, और पारिवारिक संस्कारों के तहत मंजूरी मिले हुए। खतरा सिर्फ इस कार्यक्रम का नहीं है, खतरा ऐसे कार्यक्रमों के प्रति लोगों की पसंद विकसित हो जाने का है, जिससे आगे ऐसे और कार्यक्रम बनते रहेंगे, और आगे ऐसे दूसरे कार्यक्रमों के भी दर्शक जुटते रहेंगे। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में लोगों को बर्बाद करने की अपार क्षमता है, अभी कुछ समय पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने एकता कपूर के किसी सीरियल को लेकर काफी कड़ी जुबान में फटकार लगाई थी, हम अभी उस सीरियल की खूबी-खामी पर टिप्पणी नहीं कर रहे, सिर्फ इतना कह रहे हैं कि बिग बॉस से परे एकता कपूर के ढेर से सीरियल ऐसे हैं जो कि परिवारों के भीतर तनाव खड़ा करने में लगे रहते हैं, लोगों के बीच घर के एक छततले किस तरह की साजिशें हो सकती हैं, उसी का बखान करने में लगे रहते हैं। और ऐसे सीरियलों का जो भी दर्शक तबका है वह बर्बाद हो रहा है। लोकतंत्र में ऐसी गंदगी को कोई छन्नी लगाकर नहीं रोका जा सकता, लेकिन समाज के बीच ऐसी जागरूकता पैदा करने की जरूरत है कि किन चीजों को न देखा जाए। और इसके साथ-साथ इस बात की जागरूकता की भी जरूरत है कि किन चीजों को देखा जाए। लोगों की जिंदगी में टीवी देखने के घंटे तो सीमित रहते हैं, और ऐसे में उन घंटों में अगर अच्छा-अच्छा देखने की आदत पड़ जाए, तो बुरा-बुरा देखने का वक्त ही कम बचेगा। इसके अलावा परिवारों को भी यह सोचना चाहिए कि घर के भीतर देखी गई गंदगी एक किस्म से उस गंदगी को पारिवारिक स्तर पर दी गई मंजूरी रहती है, इससे पूरे परिवार की संस्कृति खत्म होती है, और खासकर बच्चे अगर यही माहौल देखकर बड़े होते हैं, तो वे तरह-तरह की हिंसा और विकृतियों वाले व्यक्तित्व बनते हैं। हिन्दुस्तान की टीवी संस्कृति के बारे में कुछ अधिक बहस होनी चाहिए, आज दिक्कत यह है कि जो लोग ऐसी वैचारिक बहस करने के लायक हैं, वे टीवी पर गंदगी देखते नहीं, और जो टीवी पर गंदगी देखते हैं वे किसी भी वैचारिक बहस के लायक नहीं है। इसलिए इस मुद्दे पर कोई गंभीर चर्चा हो नहीं पाती है, यह नौबत बदलनी चाहिए।
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