विचार / लेख
-ध्रुव गुप्त
उर्दू को ऐसे ही मुहब्बत की भाषा नहीं कहा गया है। सचमुच ही यह ऐसी भाषा है जिसे सुनते ही दिलों में नाज़ुकी और हवा में ख़ुशबू तैर जाती है। जो तहज़ीब, जो बांकपन और दिलों में उतर जाने की अदा उर्दू में है, वह और कहीं नहीं। मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं कभी शुद्ध-शुद्ध उर्दू का उच्चारण नहीं कर सका। ज़ुबां में वैसी लोच ही नहीं आ पाई।
दोस्तों को खूबसूरत अंदाज़ में उर्दू बोलते सुनकर मुझे ईर्ष्या होती है। एक दफ़ा उर्दू के एक बड़े उस्ताद शायर को मैंने कहा- मैंने बहुत-बहुत कोशिश की उस्ताद, लेकिन मेरी ज़बान से आपलोगों जैसी उर्दू निकलती ही नहीं। उनका कहना था- 'बस मुहब्बत कर लीजिए ज़नाब, उर्दू अपने आप आ जाएगी।' आज यह देखकर अफ़सोस होता है कि एक ही भाषा से जन्मी और हिन्दी की सगी बहन कही जाने वाली मुहब्बत की यह भाषा अपने ही वतन में उपेक्षा झेल रही है।
हिंदी को हिंदुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा कहा जाने लगा है। नतीज़तन उर्दू बोलने वालों और इसकी क़द्र करने वाले लोगों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। यह बेहद अफ़सोसनाक तो है, लेकिन इसमें ताज़्ज़ुब की कोई बात नहीं। मुहब्बत और मुहब्बत की ज़बान ने आख़िर इतिहास के किस दौर में उपेक्षा और बदसलूकी नहीं झेली है ?
आज विश्व उर्दू दिवस पर उर्दू प्रेमी दोस्तों को बधाई, बशीर बद्र साहब के इस शेर के साथ - वो इत्र-दान सा लहजा मिरे बुज़ुर्गों का / रची-बसी हुई उर्दू ज़बान की ख़ुश्बू !