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कनक तिवारी लिखते हैं- हिन्द स्वराज क्यों?
12-Nov-2022 7:00 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- हिन्द स्वराज क्यों?

हिन्द स्वराज एक पुनर्विचार आज के लिए

बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ने 13 नवंबर 1909 से 22 नवंबर 1909 अर्थात दस दिनों में इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका जाते पानी के जहाज ‘एस एस किल्डोनन कैसल’ में बैठकर एक किताब लिखी। उस अमर कृति का नाम है ‘हिन्द स्वराज।’ पश्चिमी जगत और भारत में उस किताब पर सैकड़ों लेख और टिप्पणियां लिखी गई हैं। हिन्दी भाषा में लेकिन ‘हिन्द स्वराज’ पर पहली दस मुकम्मिल किताबें छत्तीसगढ़ के सुपरिचित लेखक सीनियर एडवोकेट और गांधीवादी विचारक कनक तिवारी को लिखने का सौभाग्य मिला। उनकी किताब ‘फिर से हिन्द स्वराज’ शताब्दी वर्ष 2009 में तथा अगली किताब ‘हिन्द स्वराज का सच’ 2010 में प्रकाशित हुई। इन दिनों कनक तिवारी ‘हिन्द स्वराज’ पर अपनी तीसरी किताब मौजूदा संदर्भ के उल्लेख के साथ लिख रहे हैं। छत्तीसगढ़ के लिए यह सुअवसर है और संयोग भी कि ठीक 13 नवंबर से 22 नवंबर तक दस दिनों में जब गांधी ने अपनी किताब लिखी थी, हम कनक तिवारी के रोज एक की दर से दस लेख ‘छत्तीसगढ़’ के पाठकों के लिए मुहैया कराएंगे। हमें उम्मीद है कि आपको यह लेख पसंद आएंगे जिनमें गांधी जी के ‘हिन्द स्वराज’ का संक्षेप में आलोचनात्मक ब्यौरा है।
-सम्पादक 

1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए पानी के जहाज ‘किल्डोनन कैसल’ पर सम्पादक पाठक संवाद की शैली में गांधी ने कालजयी कृति लिखी। तब के हिन्दुस्तानियों के हिंसावादी पंथ और उसी विचारधारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिए गए कथित जवाब में लिखी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’  है। यह एक लेखमाला के रूप में गांधी के ‘इण्डियन ओपिनियन’ नामक गुजराती अखबार में दक्षिण अफ्रीका में प्रकाशित हुई। दरअसल मुकम्मिल आजादी की कल्पना के पहले गांधी ने 1891 से 1894 के बीच दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों की तरफ से लिखी गई कई याचिकाओं में आज़ादी का खुद के विचार का खाका खींच रखा था।  हो सकता है  ‘हिन्द स्वराज’ उसका संशोधित रूप हो। इस पुस्तक के भारत में  गुजराती संस्करण के प्रकाशित होते ही बम्बई में ब्रिटिष सरकार ने जब्त कर लिया। जवाहरलाल नेहरू ने बाद में इस किताब में व्यक्त विचारों को भ्रम पैदा करने वाले और अव्यवहारिक कहकर उससे असहमति व्यक्त की थी। गांधी ने स्वयं गुजराती ‘हिन्द स्वराज’ का अंग्रेजी अनुवाद किया और फिर प्रकाषित कराया। उसे भी ब्रिटिष सरकार ने आपत्तिजनक बताकर जब्त कर लिया। 
1915 में महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो उन्होंने सबसे पहले ‘हिन्द स्वराज’ को फिर से प्रकाषित करवाया। तब सरकार ने इसे जब्त नहीं किया। ‘हिन्द स्वराज’ को गांधी ने आधुनिक सभ्यता की समालोचना के रूप में प्रचारित किया था। उन्होंने लगातार यही कहा कि पश्चिमी सभ्यता के संबंध में मेरे मूलभूत विचार यही हैं जो इस पुस्तक में मैंने व्यक्त किए हैं। उन्होंने साफ कहा था ‘यह किताब ऐसी है कि बालकों के हाथ में भी दी जा सकती है। यह द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है। हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है। पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। ‘हिन्द स्वराज’ में भारतीय स्वतंत्रता का जनपथ विस्तृत है। आजादी के पचहत्तर वर्ष बाद इस किताब के माध्यम से संघर्षषील हिन्दुस्तान की आजादी की जद्दोजहद को देखते ऐसा लगता है कि महापुरुषों की भीड़ में गांधी धु्रव तारे की तरह अकेले निर्विकार लेकिन हठधर्मी मुद्रा में मील का पत्थर बनकर खड़े हैं। इस निष्कलंक कृति के माध्यम से गांधी ने आजादी की लड़ाई के सभी योद्धाओं से अलग हटकर कुछ बुनियादी सवाल हमारी चेतना में छितराये हैं। ये सवाल आज भी वैसे ही मुँह बाए खड़े हैं। 

‘हिन्द स्वराज’ दुनिया की सबसे तेज़ गति से लिखी किताबों में से है। उसे 13 नवंबर से 22 नवंबर 1909 के बीच ‘एस.एस. किल्डोनन कैसल’ नामक जलयान में इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका लौटते समय गांधी ने लगभग भावनात्मक उद्रेक में लिखा था। जहाज की स्टेशनरी पर गुजराती में गांधी ने 40 पृष्ठ बाएं हाथ से और 235 पृष्ठ दाएं हाथ से लिखे। मात्र 16 लकीरों को काटकर अलग किया गया और लगभग तीस हजार में से गिने चुने शब्दों में हेर फेर किया गया। गांधी ने अपने मित्र हरमैन कैलेनबाख को दक्षिण अफ्रीका में लिखकर सूचित किया कि ‘हिन्द स्वराज’ उनकी मौलिक कृति है। ‘हिन्द स्वराज’ के परिशिष्ट में 14 लेखकों की 20 किताबों को पढऩे की सिफरिश पाठकों से करते हैं। 

‘इंडियन ओपिनियन’ के गुजराती पाठकों के लिए ‘हिन्द स्वराज’ भूचाल की तरह था क्योंकि उसकी भाषा बेलाग और तर्क बेहद धारदार थे। पुस्तक के लिखने के दो वर्ष पहले ही गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में निष्क्रिय प्रतिरोध का आंदोलन शुरू किया था। वह आंदोलन गांधी के आंतरिक व्यक्तित्व में उठ रहे ज्वालामुखी के प्राथमिक संकेतों/संवेगों की तरह था। ‘हिन्द स्वराज’ गांधी के राजनीतिक अस्तित्व का पहला पुख्ता और विश्वसनीय पड़ाव था। कहने को तो वह उनको इंग्लैंड में मिले हिंसक आंदोलनों के समर्थकों से हुई असहमतियों का प्रतिक्रियात्मक ब्यौरा था, लेकिन अचानक उसमें पष्चिम की पूरी भौतिकवादी सभ्यता को लेकर एक उभरते हुए राजनीतिक विचारक के तेवर समाहित हो गये थे।

‘हिन्द स्वराज’ सम्पादक-पाठक संवाद की शैली में लिखी कृति है। यहां भी गांधी ने वर्षों पूर्व गुरु-षिष्य के भारतीय परंपरावादी चरित्रों का सहारा नहीं लिया। सम्पादक एक आधुनिक उपपत्ति है और पाठक तत्कालीन भारत के कथित आधुनिक व्यक्तियों का वैसा ही प्रतिनिधि, संभवत: जिनसे गांधी इंग्लैंड में मिले थे। भूमिका के अनुसार इस शैली का उपयोग गांधी ने इसलिए किया था ताकि वह पाठकों को जल्दी समझ में आए और उन्हें सुविधा हो। पुस्तक 20 अध्यायों में विभाजित है। 11 अध्यायों में ऐतिहासिक विवेचन है और बाकी में दार्शनिक। ऐतिहासिक विवेचन के परिच्छेद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के योगदान का मूल्यांकन भी करते हैं। उसमें गांधी कांग्रेस के प्रयासों की सराहना तो करते हैं लेकिन स्वराज्य के संबंध में कांग्रेस की समझ के मकडज़ाल से परहेज भी करते हैं और उसे पुनर्विचार करने को कहते हैं। गांधी बंगाल के विभाजन से बेहद दुखी हैं। उस संबंध में अहिंसक आंदोलन करने का इषारा भी करते हैं। भारत में ब्रिटिश हुकूमत के कारणों और परिणामों की व्याख्या भी ‘हिन्द स्वराज’ में विस्तृत है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि अंगरेज वाणिज्य और शक्ति संबंधी कारणों से भारत में आए। उसका एक कारण भारतीय समाज की राजनीतिक और नैतिक ताकत का क्षरण भी रहा है। भारत में वकीलों और डॉक्टरों जैसे मध्यवर्ग के पतन के उत्थान और भूमिका की कथा भी गांधी ने लिखी। इन सब मुसीबतों से बचने का उपाय गांधी की दृष्टि में भारतीय परंपराओं पर विश्वास करने से ही होगा। 

22 नवंबर 1909 से गांधी अपनी निर्दोष दिखने वाली क्लासिक कृति ‘हिन्द स्वराज्य’ से पूरी दुनिया की विचार परिधि पर चलते हुए उसके केन्द्र में आ गए। जवाहरलाल नेहरू ‘हिन्द स्वराज’ के कट्टर आलोचक रहे हैं। गांधी से गहराते चले जा रहे उनके मतभेद भी जगजाहिर हैं। चाहे सवाल भारत-पाक विभाजन का रहा हो या राष्ट्रभाषा का या देष के आर्थिक आयोजन का-दोनों शीर्ष नेता दो विपरीत ध्रुवों पर नजर आते हैं। सवाल है कि गांधी इस देष को किन नतीजों तक ले जाना चाहते थे? क्या वह मानते थे कि यही देष है जो विश्व को फिर से मानवता का रास्ता दिखा सकता है? क्या इसमें अब भी इतना आत्मबल और साहस बचा है कि सारी दुनिया के सामने अपने आदर्शों की वरिष्ठता और श्रेष्ठता लेकर खड़ा हो सके? एक जगह भारतीय समाज व्यवस्था और सांस्कृतिक मूल्य की चर्चा करते गांधी इस सन्दर्भ में हमें याद दिलाते हैं हमारे पुरखों ने भोग की हद बांध दी। हमने नाशकारक होड़ को समाज में जगह नहीं दी। सब अपना-अपना धंधा करते रहे। उसमें उन्होंने दस्तूर के मुताबिक दाम लिये। ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरह की खोज करना ही नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैरह की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ बैठेंगे। उन्होंने सोचा कि बड़े शहर खड़े करना बेकार की झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। उनमें धूर्तों की टोलियां और वेश्याओं की गलियां पैदा होंगी। गरीब अमीरों से लूटे जायेंगे। इसीलिए उन्होंने छोटे देहातों से संतोष किया। 

‘हिन्द स्वराज’ गांधी वांग्मय की अकेली पुस्तक है, जिसके मूल गुजराती भाष्य का गांधी ने खुद अंग्रेजी में अनुवाद किया था। अपनी ‘आत्मकथा‘ तक को बापू ने अनुवाद के लिए अपने ‘बॉसवेल‘ महादेव देसाई के भरोसे छोड़ दिया था। इस अर्थ में ‘हिन्द स्वराज’ बापू के लिए ‘आत्मकथा‘ से भी बढक़र उनका विश्वसनीय फलसफा बल्कि व्यवहार्य ‘टेन कमांडमेंट्स‘ है। अंग्रेजी का भाष्य ही तॉल्स्तॉय, रोम्या रोलां, जवाहरलाल नेहरू और राजाजी वगैरह ने पढ़ा था और टिप्पणियां की थीं। गांधी खुद इसी अंग्रेजी पाठ को पूरे जीवन अपने विचार प्रवर्तन में खंगालते रहे थे। 

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