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कनक तिवारी लिखते हैं - मालिक सभ्यता की समीक्षा
13-Nov-2022 6:56 PM
कनक तिवारी लिखते हैं  - मालिक सभ्यता की समीक्षा

हिन्द स्वराज एक पुनर्विचार आज के लिए

बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ने 13 नवंबर 1909 से 22 नवंबर 1909 अर्थात दस दिनों में इंग्लैंड से दक्षिण अफ्र्रीका जाते पानी के जहाज ‘एस एस किल्डोनन कैसल’ में बैठकर एक किताब लिखी। उस अमर कृति का नाम है ‘हिन्द स्वराज।’ पश्चिमी जगत और भारत में उस किताब पर सैकड़ों लेख और टिप्पणियां लिखी गई हैं। हिन्दी भाषा में लेकिन ‘हिन्द स्वराज’ पर पहली दस मुकम्मिल किताबें छत्तीसगढ़ के सुपरिचित लेखक सीनियर एडवोकेट और गांधीवादी विचारक कनक तिवारी को लिखने का सौभाग्य मिला। उनकी किताब ‘फिर से हिन्द स्वराज’ शताब्दी वर्ष 2009 में तथा अगली किताब ‘हिन्द स्वराज का सच’ 2010 में प्रकाशित हुई। इन दिनों कनक तिवारी ‘हिन्द स्वराज’ पर अपनी तीसरी किताब मौजूदा संदर्भ के उल्लेख के साथ लिख रहे हैं। छत्तीसगढ़ के लिए यह सुअवसर है और संयोग भी कि ठीक 13 नवंबर से 22 नवंबर तक दस दिनों में जब गांधी ने अपनी किताब लिखी थी, हम कनक तिवारी के रोज एक की दर से दस लेख ‘छत्तीसगढ़’ के पाठकों के लिए मुहैया कराएंगे। हमें उम्मीद है कि आपको यह लेख पसंद आएंगे जिनमें गांधी जी के ‘हिन्द स्वराज’ का संक्षेप में आलोचनात्मक ब्यौरा है।
-सम्पादक 

आज सामाजिक जीवन में राजनीति ने सबसे बड़ी भूमिका हथिया ली है। गांधी के अनुसार राजनीति को ऐसी भूमिका तब मिलनी चाहिए, जब वह धर्म की मर्यादा में रहे। यहां धर्म से आशय आधुनिक धर्म से है जिसमें स्वतंत्रता, समानता और प्रगति के सभी संभावित तत्वों का समावेश हो। गांधी आग्रहपूर्वक कहते हैं कि जब तक भारतीय इस तरह की मनोवृत्ति का धर्म विकसित नहीं करते, वे अपनी बेहतर संस्कृति के बावजूद आधुनिकता और औपनिवेशीकरण से संघर्ष नहीं कर सकते। ‘सच्ची सभ्यता कौन सी है?’ वाले तेरहवें परिच्छेद में गांधी इस सवाल का जवाब देते हैं ‘सभ्यता वह आचरण है जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने के मानी हैं नीति का पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इन्द्रियों को बस में रखना। ऐसा करते हुए हम अपने को (अपनी असलियत को) पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उलटा है वह बिगाड़ करने वाला है।’ 

‘हिन्द स्वराज’ की यही अनुगूंज या प्रतिध्वनि थी। 1909 में ‘हिन्द स्वराज’ को एक बड़ी राजनीतिक चुनौती देने के खतरनाक आरोप के एवज में प्रतिबंधित कर दिया गया था। तब भी सत्ता प्रतिष्ठान की समझ में यह बात नहीं आई कि गांधी ने सांस्कृतिक मूल्य-युद्ध के लिए पश्चिमी गोलाद्र्ध को जिस तरह ललकारा है। वह आवाज ‘हिन्द स्वराज’ के प्रतिबंधित करने से इसलिए खामोश नहीं हो सकती थी क्योंकि उसकी अंर्तध्वनि तो पूरी दुनिया की अभिव्यक्ति के पसरते माध्यमों में शामिल हो चुकी थी। 

गांधी ने इस सभ्यता के बहुत से नए उपादानों का गांधी ने स्वागत भी किया-मसलन नागरिक आजादी, समानता, अधिकारजन्यता, आर्थिक सुधारों का आग्रह, ढकोसलों और परंपराओं से नारी की मुक्ति और धार्मिक सहिष्णुता वगैरह। ‘नवजीवन’ के 28 अप्रैल 1929 के अंक में गांधी ने पश्चिमी सभ्यता की आलोचना करते हुए स्वीकार किया कि उन्होंने ‘हिन्द स्वराज’ में उसका एक मोटा सा खाका खींचा है। समय बीतने के बाद भी उनके दृष्टिकोण में अंतर नहीं हुआ है। गांधी ने लेकिन यह भी कहा कि पश्चिम की हर वस्तु या विचार को बुरा नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन्होंने पश्चिम से बहुत कुछ सीखा भी है। पष्चिम में बहुत से नैतिक और पवित्र चरित्र के लोग हैं और गांधी के अनुसार उनके बहुत से मित्र भी। 

एक बार नहीं, लेकिन बार बार गांधीजी इस सभ्यता को ‘शैतानी’, ‘चाण्डाल’, ‘आसुरी’ तथा ‘रावण का राज्य’ कहते हैं। स्पष्ट है कि गांधीजी इस सभ्यता के किसी एक उपांग या अंग की बात नहीं करते हैं। इसके किन्हीं विशेष पक्षों की भी अलग से बात नहीं है। जहां है भी, वहां यही बताने के लिए है कि इसका मूल स्वभाव, मूल प्रवृत्ति ही शैतानी, चाण्डाल, राक्षसी है। वे यह नहीं कहते कि राक्षस है लेकिन अगर उसके हाथ पैर ठीक कर दिये जाएं। तो उसके समस्त कारोबार भी ठीक हो जाऐंगे। बहुत लोग हैं, जो मानते हैं कि अगर टेक्नालॉजी को ठीक कर दिया जाए  या संसदीय प्रणाली को चुस्त और दुरुस्त कर दिया जाय, या विकास के कामों में कुछ हिस्सेदारी बढ़ा दी जाए, तो सब ठीक हो जाएगा। गांधीजी ने यह तो नहीं कहा है कि इसके हाथ पैर शैतान के हैं। बाकी मन और दिमाग देवता के हैं। 

गांधी के एक बड़े अध्येता भीखू पारेख उनकी कुछ कमियों की ओर भी इशारा करते हैं। उनका तर्क है कि आधुनिक सभ्यता की गांधी-समीक्षा कुछ उपलब्धियों की अनदेखी करती है। मसलन सभ्यता की वैज्ञानिक और आलोचनात्मक अन्वेषण वृत्ति, मनुष्य द्वारा प्रकृति का नियंत्रण और सभ्यता की स्वयं की सांगठनिक शक्ति। पारेख का कहना है कि ऐसी उपलब्धियों का यह भी निहितार्थ है कि इनका कुछ न कुछ आध्यात्मिक आयाम तो है। उसे गांधी ने ठीक से नहीं देखा होगा। बहरहाल गांधी का फोकस एक खास युग की आधुनिक सभ्यता की समीक्षा और औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की बुराइयों को देखने का था। इसी संदर्भ में औद्योगीकरण और पूंजीवाद से उपजी बुराइयों की ओर भी था। 

यह अलग बात है कि गांधी ने कोई सौ वर्ष से भी पहले पाठक के जरिए जो सवाल पूछे थे, उन्हें अब तक तथाकथित अविकसित और विकासशील देशों की दुनिया पश्चिम की मालिक सभ्यता से अब तक पूछ रही है। गांधी ने भारत को सभ्य बनाए जाने के इंग्लैंड के मिशन की वैधता और नीयत पर ही सवाल किया था। उसे लगभग अकेले/पहले भारतीय के रूप में खारिज भी कर दिया था। उन्हें पश्चिम से कुछ सीखने की इच्छा ही नहीं थी। हालांकि पश्चिम से बहुत कुछ सीखा गया और सीखा भी जा सकता था।

पश्चिमी सभ्यता से आज हम सीख रहे हैं पश्चिम से उसका मन। 31 दिसम्बर की रात को सडक़ों पर शराब के पेगों से उत्पन्न किए गए उल्लास के कारण नौजवान पीढ़ी को पुलिस के संरक्षण में नाचने कूदने की अनुमति दी जाए-इसे हम आधुनिक संस्कृति कहते हैं। इसे हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के निर्यात लाइसेंस का जवाबी आयात लाइसेंस समझते हैं। रोजा अफ्तार अपनी पवित्रता, कुर्बानी और भाइचारे की बुनियादी सांस्कृतिक अवधारणा से अलग हटकर पांच सितारा होटलों, मंत्रियों तथा दिग्गज नौकरशाहों की सामाजिक पार्टियों का पर्याय बनाया जा रहा है। दीवाली पर जलने वाले दियों के लिए तेल अब बचा ही नहीं है। होली अश्लील गालियों के सामूहिक नारे का नाम हो गई है। इतनी ताब इतनी जुम्बिष हाथों में नहीं बची कि हम आल्हा ढोलक की थाप पर गा लें। कृष्ण की झांकियां उनकी लीलाओं के देह पथ के सरोकारों से जुड़ती जा रही है। तिलक ने जिस उद्देश्य से गणेश उत्सव प्रारंभ किये थे, वह अंग्रेजों के जाने के साथ पूरा हो गया। अब गणेष उत्सवों में फूहड़ आर्केस्ट्रा गूंज रहा है। देश कभी गांधी के कारण प्रभात फेरियों का देश था। अब देश में किसी भी सांस्कृतिक कार्य में सुप्रभात नहीं होता। भारतीय व्यंजन अपनी अस्मिता खो चुके हैं। वे किसी आदिम कबाइली परम्परा के वंशज हैं। अब तो फास्ट फूड के खोमचे वाले हर नुक्कड़ चौराहे पर शाम से आधी रात तक खड़े तरह तरह की बीमारियां परोस रहे हैं। 

आधी रात के बाद दूरदर्शन में उत्तेजक फिल्में और सीरियल शुरू होते हैं। दिन में अपसंस्कृति पर व्याख्यान देने वाले रात में जागकर उन्हें खुद देखते हैं। भारतीयता पर धुंआधार भाषण देने वाले राष्ट्रवादी नेता, उद्योगपति और नौकरशाह अपने बच्चों को विदेषों में ही पढ़ाते हैं। राष्ट्रभाषा प्रचार समितियों के कर्ताधर्ता अपनी संतानों के लिए देषों विदेशों से आयातित सेल फोन, वॉकमैन, लैपटॉप कम्प्यूटर , जीन्स वगैरह के तोहफे विश्व हिन्दी सम्मेलनों से खरीद कर लाते हैं। स्वदेशी के तमाम पैरोकारों के आसपास से विदेशी गंध आती रहती है। गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस, गांधी जयंती वगैरह के मुख्य अतिथियों और अन्य कपड़ों से नीनारिक्की, चार्ली, ब्रूट, जोवन, सेक्स अपील जैसे विदेशी इत्रफुलेलों की गंध वातावरण में ठसके से समाती जा रही है।

हमारे देश में कुलीनता का यही बैरोमीटर है कि कौन सा महत्वपूर्ण व्यक्ति कितनी बार विदेश गया है। उनके निजी मद्यगृह में कितने देशों की कितनी पुरानी मदिरा है। उनके कितने विदेशी बैंकों में खाते हैं। वह कितनी विदेशी किताबें और पत्रिकाएं मंगाता है। उनकी बीबियों के पास किस विदेशी बुटीक के वस्त्र हैं। माइकल जैक्सन, मेडोना वगैरह के कितने नम्बर किसे कंठस्थ हैं। ‘बे वॉच’ जैसे टेलीविजन कार्यक्रम की किसे कितनी समझ है। महात्मा गांधी के नाम पर खोले गए विश्वविद्यालय के भविष्य और पाठ्यक्रम का निर्धारण गोडसे-वृत्ति कर रही है। सैकड़ों हजारों करोड़ रुपए ऐय्याशी पर खर्च करने के लिए अमरीकी फोर्ड और रॉकफेलर फाउन्डेशनों की तरह भारत में भी मिशन स्थापित कर लिए गए हैं। इनकी एजेन्सी (दलाली) सेवानिवृत्त और मौजूदा नौकरशाही पर है। कुछ भद्र दिखते राजनीतिज्ञ परिवार खुरचन खाकर ही संतुष्ट रहते हैं।

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