विचार / लेख

कनक तिवारी लिखते हैं- धर्म की संस्कृति
16-Nov-2022 3:51 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- धर्म की संस्कृति

  किस्त-5  

‘हिन्द स्वराज’ में गांधी भारत में आदर्ष राष्ट्र-राज्य स्थापित होने की अनुकूलता पाते हैं क्योंकि पश्चिम के विचारक भारत को इस तरह की अनुकूलता में नहीं पाते थे। गांधी ने लिखा, ‘जिन दीर्घद्रष्टा पुरुषों ने सेतुबन्ध रामेश्वरम् जगन्नाथ और हरिद्वार की यात्रा की, क्या आप जानते हैं, उनके मन में क्या विचार था? आप स्वीकार करेंगे कि वे लोग मूर्ख नहीं थे। वे जानते थे कि ईश्वर भजन तो घर बैठे हो जाता है। उन्होंने हमें सिखाया कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। किन्तु उन्होंने विचार किया कि प्रकृति ने भारत को एक देश बनाया है तो उसे राष्ट्र भी होना चाहिए। इसलिए इन विभिन्न धामों की संस्थापना करने उन्होंने लोगों को एकता की ऐसी कल्पना दी जैसी दुनिया में दूसरी जगह नहीं है। दो अंग्रेज जितने एक नहीं हैं, हम भारतीय उतने एक थे और हैं। केवल हमारे और आपके मन में, जो ‘सभ्य’ हो गये हैं, यह आभास उत्पन्न हो गया है कि भारत में अलग अलग कौमें हैं।’

गांधी की धारणा थी धर्म तो शुरू से ही कर्तव्यों और आदेषों का पर्व रहा है। मजहबी आडंबरों और पुरोहितों ने निर्णायक हैसियतें बाद में अख्तियार कर लीं। गांधी के अनुसार वक्त आ गया है कि धर्म की परिभाषा, उद्देश्यों और संभावनाओं का परिष्कार किया जाए कि उसमें राजनीतिक-सामाजिक आजादी, आर्थिक बराबरी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, बंधुत्व और पारस्परिक सहयोग के तत्व भी गूंथे जा सकें। ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने सीधी, सपाट, बेलाग और अविचल भाषा में अपने इन्हीं आदर्शों को पुनर्परिभाषित धर्म की उनकी व्याख्याओं के अनुसार परोसा है। गीता और रामायण गांधी के दो आदर्श ग्रंथ रहे हैं। गांधी के अनुसार ‘हिन्द स्वराज’ की भाषा भले ही राजनीतिक हो लेकिन उसका मूल मकसद धर्म-तत्व का विवेचन करना ही है। ‘हिन्द स्वराज’ को धर्म-संहिता अथवा रामराज्य का उपनाम/सहनाम भी समझा जा सकता है।

‘हिन्द स्वराज’ के अनुसार राजनीति सक्रिय जीवन की सबसे महत्वपूर्ण सहायिका हो सकती है। बशर्ते वह धर्म की उपयोगिता का परिष्कार करते उससे संपृक्त हो। इस संघर्ष बिन्दु पर गांधी नए भारत में राष्ट्रवाद की अपनी परिकल्पना इंजेक्ट करते हैं। वह पूरी तौर पर भारतीय नस्ल की नहीं भी है और है भी। गांधी नए सामाजिक धर्म को भारत में राष्ट्रवाद में ढल जाने की उम्मीद जगाते ‘हिन्द स्वराज’ में तर्कों की बीजगणित से पश्चिम को चुनौती देते हैं। वे एक साथ उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, आधुनिकता और पदार्थवाद के खिलाफ हल्ला बोलते हैं। ‘हिन्द स्वराज’ की भाषा प्राथमिक, ग्रामीण और देसी किस्म का सोंधापन लिए हुए है। यह धोखा होता है कि यूरोप के राजनीतिक सदियों में पुष्ट, रूढ़ और आप्त हुए मानदंडों को उन्हें यह निरीह किताब किस तरह चुनौती देगी।

गांधी ने हिन्दू धर्म को उसकी कुरीतियों, रूढिय़ों और आडंबरों से मुक्त करने के प्रयत्न किए। ब्राह्मणवाद में अभिषाप धर्म की ही छाती पर उगाए गए। गांधी ने उनको चुनौती दी। उन्होंने आश्रम भजनावली के पदों में हिन्दू मतवाद के अतिरिक्त अन्य मजहबों का समावेश कर एक तरह का सेक्युलर-भारतधर्म विकसित किया, हालांकि वह बहुलांश में उदारवादी हिन्दू मान्यताओं से परे नहीं था। यह अलग बात है कि ईसाइयत के नैतिक मूल्यों का उस पर मुलम्मा चढ़ा भी दीखता था। कई लोग व्यंग्य में गांधी को ईसाई हिन्दू तक कह देते रहे हैं। राष्ट्रवादी मानसिकता के हिन्दुत्व का दक्षिणपंथी धड़ा गांधी की धर्म-थीसिस का समानांतर रचता रहा अब भी कायम है। पारंपरिक हिन्दुत्व के संरक्षकों और टीकाकारों के लिए यह जरूरी हो गया था कि गांधी की हत्या करें।

जो धर्म-गति गांधी की थी, वही दिक्कत जातीय समरसता को लेकर भी आती रही। सवर्ण हिन्दुओं और दलितों में सामाजिक समरसता कायम करने की गांधी की कोशिशें ऊपरी तौर पर स्वीकार होती रहीं। लेकिन जाति प्रथा की जड़ें इतनी अगम्य और गहरी हैं कि उन्हें नष्ट कर पाना गांधी के परे था। बीसवीं सदी में और कोई विकल्प भी नहीं था। जिन्ना और मुस्लिम राष्ट्रवाद को लेकर कठिनाई गांधी को हुई। वैसी ही अंबेडकर और उनके समर्थकों द्वारा बार बार गतिरोध पैदा करने के कारण होती रही। गांधी के विरोधी, विदेशों में कम और भारत में ज्यादा रहे। वे सत्ताविहीन व्यक्तियों की दुनिया के सबसे बड़े प्रवक्ता और जनसत्ता के व्यक्ति हैं। गांधी ने हाशिए पर खड़े व्यक्ति को राजनीति के केन्द्र में स्थापित कर दिया। 

गांधी ने इस ‘हिन्द स्वराज’ में ‘धर्म’ शीर्षक से कोई परिच्छेद नहीं लिखा, हालांकि पूरे वर्णन में वह विस्तृत है। वे मजहबों को भी धर्म की परिभाषा में शामिल करते यही कहते हैं कि दुनिया के तमाम धर्म एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। गांधी की धर्म-मीमांसा पश्चिम की ईसाईयत की मान्यताओं से अलग है। केवल ईश्वर में विश्वास रखना धार्मिक होने के लिए गांधी की परिभाषा में पर्याप्त रहा है। यह पश्चिम को स्वीकार नहीं रहा है। भारत में जातिवादी व्यवस्था के चलते धर्म को आक्टोपस की आठ भुजाओं की तरह जकडऩ का पर्याय बनाया गया। हिन्दू होकर जीना गरिमा का समानार्थी होने के बदले सामाजिक धर्म का उदाहरण बनाया गया। इसलिए धर्म परिवर्तन का एक विकल्प दिखाई पड़ा। लिहाजा हिन्दू साम्प्रदायिकों के लिए गांधी की नंगी छाती पर गोली मारना निर्विकल्प हो गया। हिन्दू-मुसलमान के बीच गांधी के रहते नफरत फैलाना संभव नहीं था। इसलिए गांधी का मरना तय किया गया। अफवाहें फैलाई गईं कि गांधी की वजह से पाकिस्तान को बत्तीस करोड़ रुपए दिए जा रहे हैं। यह भी कि हिन्दुओं की दंगों में हो रही मौतों के लिए गांधी जिम्मेदार हैं। यह भी कि गांधी की नपुंसकता की वजह से क्रांतिकारियों का इतिहास धूमिल किया जा रहा है। जो तत्व अंगरेजों के मुकाबले चूहों की तरह बिलों में दुबके रहे, गांधी की छाती को छलनी करने ‘राष्ट्रवादी’ कृत्य के लिए भाड़े के टट्टू ले आए। 

सात दशक बीत गए हैं गांधी को गए हुए, लेकिन वे जाते नहीं हैं। देश में कोई बड़ी घटना, चुनाव या परिवर्तन मोहनदास करमचंद गांधी की याद के बगैर अंजाम नहीं पाते। गांधी पर किताबें लिखी गई हैं। विश्वविद्यालयों में शोध किए गए हैं। स्मरण पट्टिकाएं लगाई गई हैं। चुनाव घोषणापत्रों और कार्यक्रमों में उल्लेख किया गया है। तस्वीरें लगाई गई हैं। उतना नसीब और किसी जननेता का नहीं है। गांधी की तस्वीर एक साथ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के दफ्तरों में कैसे लगाई जा सकती है?उनकी तस्वीर के नीचे बैठे न्यायाधीश घूस भी खा रहे और अंगरेजी भाषा की स्तुति भी कर रहे हैं। स्कूली पाठ्यक्रम से लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं में गांधी एक महत्वपूर्ण प्रयोजन हैं, भले ही प्रयोजनहीन हों। गांधी इतिहास की किरकिरी हैं, जो उसकी आंख से निकल जाने के बाद भी आंख को मसलने के लिए मजबूर कर रही है। गांधी रक्तबीज की तरह हैं जिन्हें रोज ब रोज मारे बिना उनके जीते रहने का खतरा सत्ताधीशों के लिए बढ़ जाता है।

गांधी का हिन्दुत्व मनुवादी संस्कारों, वर्ण व्यवस्थाओं और धार्मिक अनुष्ठानों के खिलाफ  जेहाद बोलने के बदले उनका आधुनिकीकरण और समायोजन करने के पक्ष में था। उन्होंने मन, वचन और कर्म सहित लेखन में जितनी बार ‘राम’ और ‘हिन्दू’ शब्द का इस्तेमाल किया है। उतनी बार संघ परिवार ने नहीं किया होगा। भारत से अंग्रेज को हटाने, खुद का बुखार उतारने, देश में फैली हिंसा को शांत करने और कंाग्रेस से जुड़े सभी जटिल मुद्दों को हल करने में गांधी राम नाम का प्रयोग करते थे। उनका राम अर्थशास्त्र का अध्यापक भी था। वह समाज के सबसे गरीब व्यक्ति की परिभाषा माल्थस या पार्किन्सन से कहीं आगे बढक़र करने, समझने के काम आता था। संविधान में घोषित लोकतंत्र की उद्देशिकाओं से ऐसे व्यक्तियों का कोई संबंध नहीं है। राम इस देश में लोकतंत्र के जनक हैं। लोकतंत्र का अक्स राम के अस्तित्व में ही समाया। राम हुए हों या नहीं हुए हों उनके मिथक का लोकतंत्रीय व्यक्तित्व सारी दुनिया में आज भी अप्रतिम है। 

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