विचार / लेख

किस्त-6
हिन्दू मुसलमान का उलझाया गया रिश्ता गांधी के जीवन का अहम सवाल रहा है। ‘हिन्द स्वराज’ में ही उन्होंने चिंता व्यक्त की एक-राष्ट्र होकर रहने वाले लोग एक-दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते, अगर देते हैं तो समझना चाहिये कि वे एक-राष्ट्र होने के लायक नहीं हैं। अगर हिन्दू मानें कि सारा हिन्दुस्तान सिर्फ हिन्दुओं से भरा होना चाहिये, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिये। फिर भी हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं एक-देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं, और उन्हें एक-दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा। गांधी लगातार ‘हिंद स्वराज’ के दिनों से ही इस समस्या और परेशानी से रूबरू होते रहे। उनकी अपनी एक मानवीय, दार्शनिक दृष्टि रही।
साथ ही गांधी ने स्पष्ट किया जहां मूर्ख होंगे, वहां बदमाश भी होंगे। कायर होंगे, वहां उजड्ड भी होंगे-चाहे हिन्दू हों या मुसलमान। सांप्रदायिक विद्वेषों में सवाल नहीं है कि दो में से एक समुदाय को किस तरह सबक सिखाया जाये या उसका मानवीकरण किया जाये। सवाल है किस तरह कायर को बहादुर बनाया जाए। गांधी ने साफ कहा कोई अपनी और अपनों की रक्षा अहिंसात्मक प्रतिरोध (जिसमें मृत्यु भी शामिल है) के जरिए नहीं कर सकता। तो हमलावर का मुकाबला हिंसा के आधार पर भी कर सकता है। जो दोनों नहीं कर सकता, वह खुद एक बोझ है। सवाल है कौन हिंसा कर रहा है? कौन है जिसे अपनी और अपनों की रक्षा के लिए दूसरे विकल्प के रूप में हथियार उठा लेने चाहिए?
‘हिन्द स्वराज’ में 39 वर्ष के बैरिस्टर गांधी लिख गए ‘‘मैं खुद गाय को पूजता हूं यानी मान देता हूं। जैसे मैं गाय को पूजता हूं वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूं। क्या गाय को बचाने के लिए मैं मुसलमान से लड़ूंगा? क्या उसे मारूंगा? गाय की रक्षा करने का यही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोडऩे चाहिये और उसे देश के खातिर अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिये, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं। मुझे गाय पर अत्यंत दया आती हो तो जान दे देनी चाहिये, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिये। यही धार्मिक कानून है। मेरा भाई गाय को मारने दौड़े, तो उसके साथ कैसा बरताव करूंगा? उसे मारूंगा या उसके पैर पड़ूंगा? आप कहें कि मुझे उसके पांव पडऩा चाहिये, तो मुझे मुसलमान भाई के भी पांव पडऩा चाहिये। जो हिन्दू गाय की औलाद को पैना (आरी) भोंकता है, उस हिन्दू को कौन समझाता है?
संघ परिवार ने रहस्योद्घाटन किया कि गांधी ने औसत हिन्दू को कायर तथा औसत मुसलमान को लगभग गुंडा कहा था। गांधी को खंगाले बिना कहना संभव है कि बापू जैसा संतुलित समन्वयवादी न तो हिन्दू को कायर कह सकता है और न मुसलमान को मवाली या गुंडा। जो अफवाह को भारत का पांचवां वेद बनाए हुए हैं, उनके गुरुकुल में चरित्र हत्या, धर्मोन्माद, परनिन्दा जैसी फैकल्टियां भी खुली हुई हैं। उनके कई विशेषज्ञ इन विषयों के अंतरराष्ट्रीय ख्यातिनाम हस्ताक्षर हैं।
गांधी के वक्त गोधरा सहित अन्य जगहों में दोनों समुदायों के बीच युद्ध की मानसिकता थी। वे झगड़े शहरों तक सीमित थे, गांवों तक नहीं फैले थे। इक्कीसवीं सदी का गुजरात गांवों को भी बुरी तरह झुलसाये हुए है। गांधी के साबरमती आश्रम में उन्मादी तत्वों की भीड़ मेधा पाटकर जैसी शख्सियत को नेस्तनाबूद करने हिंसक थी। दुर्भाग्य है कि पुलिस पत्रकारों को पीट रही थी और टेलीविजन के परदे पर मुस्करा रही थी। गांधी के सामने एक समुदाय के लोग गाजर मूली की तरह काटे जा रहे हों और दूसरा समुदाय राज्य संरक्षण में अट्टहास कर रहा हो, तब गांधी अहिंसा को लेकर क्या कहते? गांधी ने इसका भी इशारा किया है।
गांधी की अहिंसा दांव पर चढ़ी है। बहुसंख्यकों के लिए उन्होंने अहिंसा का विचार चौपाल पर रखा था। वह राज्यतंत्र के सहारे कुछ लोगों की मु_ी में आ गया है। अल्पसंख्यक वर्ग को हिंसा का खतरा बढ़ गया है। मौजूदा भारत गांधी के सच की उलटबांसी है। गुजरात सहित भारत आधे अधूरे सच का यतीमखाना है। आज गांधी के सत्य के प्रयोगों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। गांधी के संदेष की समीक्षा संघ परिवार कर रहा है। संकट तो यह है कि लोग ट्रिपल रिफाइंड दांडी का नमक तक वफादारी जताये बिना हजम कर गये।
130 करोड़ की आबादी में हिन्दू सौ करोड़ के ऊपर हैं। करीब बीस करोड़ लोगों में मुसलमान, ईसाई, पारसी वगैरह विदेशी धर्मों की मजहबी अल्पसंख्यकता है। हिंदू लगातार सत्ता में हैं। फिर भी उनके मन में खरोंच है कि तुर्क, पठान और मुगल मुसलमान वगैरह सदियों तक हुकूमत करते रहे। अंगरेज के साथ पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसी वगैरह भी तो आए थे। भारत में इतनी हिम्मत क्यों नहीं थी कि विदेशी हमलावरों को रोक सके। अपने हाथों अपनी पीठ ठोंकने की कला में कुछ लोग माहिर हैं। आत्मा से पूछें क्या हम यूरोप और अमेरिका बल्कि चीन के भी सामने रीढ़ की हड्डी पर सीधे खड़े होकर कह सकते हैं कि हम पराजित नहीं होंगे। भारतीयों में साहस, विजय, सहनशीलता और भाईचारे का इंजेक्शन लगाने के बदले भडक़ाऊ नारे जबान पर चस्पा हों तो क्या देश मजबूत होगा?
भारत गैरजरूरी और आ बैल मुझे मार जैसे सांस्कृतिक संकट में उलझ जा रहा है। राजनीति, भूगोल, भाषा, पोषाक, तहजीब, खानपान और रस्मोरिवाज की किसी भी खिडक़ी से देखने पर यही सवाल कई तरह से देखा जा सकता है। होना तो चाहिए कि कोई बेगैरत सवाल देश की एकता, सामूहिकता और लोकतांत्रिक भविष्य के मद्देनजर उठाया ही नहीं जाए। अनोखी, एकल और जबरिया बनाई जा रही सुरंग में देश धकेला जा रहा है। धरती पर दूसरा देश नहीं है, जहां इतने जुदा-जुदा धर्म, क्षेत्रीयताएं, आदतें, तीज त्यौहार और जीवन के बहुविध शऊर सदियों से आपसी सहकार में रच बस गए हैं। सूख गए घाव से नोंच-नोंचकर ऊपर की त्वचा हटा देने पर ताजा चोट उभर उभर आती है।
यह सवाल केवल राजनीति के जरिए नहीं सुुलझ सकता। मस्जिदों के सामने भीड़ लेकर हनुमान चालीसा पढ़ी जाए। मॉल के अंदर नमाज पढ़ी जाए या सडक़ों पर। उत्तेजक नारे लगाकर धर्म को हिंसक संघर्ष के रास्ते खड़ा किया जाए। आपसी सहकार के बिना संविधान में संशोधन केवल वोट बैंक को निगाह में रखकर क्यों किया जाए? आजादी की दहलीज पर हिन्दू मुस्लिम अलगाव का नासूर बहने लगा था। वह आजादी के अमृत वर्ष में भी सूख नहीं सका। आत्मा के लोहारखाने में कबीर नाम का दार्शनिक कवि हुआ है। उसकी फितरत और रोम रोम में सच्ची हिन्दुस्तानियत है। संविधान, राजनीति, संसदें और इक्कीसवीं सदी के तेवर किताबी तौर पर भले ही मानव धर्म को समझ लें। अपने जेहन और चरित्र में दाखिल नहीं कर पाते।
इरादा हो कि मनुष्य में मजहब की सिखावन और रूढिय़ां कुलबुलाती नहीं रहें। वह मनुष्य होने की अंतिम सीढ़ी है। विवेकानन्द ने मित्र मोहम्मद सरफराज हुसैन को लिखा था कि जब वेदांत का मन इस्लाम की देह में जज्ब हो जाएगा, वही दिन इंसानियत के उदय का होगा। गांधी ने राम की प्रार्थना में अल्लाह का नाम संयुक्त किया था। समान नागरिक संहिता दुनिया के कई देशों में है। उसे लागू करने में बुराई नहीं है। सवाल है क्या उसे राजनीति अपना लाभ, हानि का खाता देखकर तय करेगी। असल में धर्मों की एकता का सांस्कृतिक समास होता है। उसे वक्त या भविष्य कुदरती हुक्म मानकर कभी लागू कर भी लेंगे।