विचार / लेख
किस्त-7
सबसे बड़े सामाजिक मसीहा बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ने अदालतों और वकालत की जनविरोधी भूमिका पर गहरा कटाक्ष ‘हिन्द स्वराज’ में किया है। उनका दो टूक कहना था अंगरेजी फितरत की अदालतें गोरी नस्ल की संसद की तरह भारत जैसे गरीब लेकिन सांस्कारिक देश के लिए नामाकूल हैं। गांधी नहीं चाहते थे, लेकिन अंगरेज मेम ठसक लिए हिन्दुस्तानी पोशाक पहनकर भारत में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की जनता से निरपेक्ष भूमिका में आखिर आ ही गई। गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में वकीलों को लेकर जो कहा, वह शश्वत सच दिखाई पड़ता है। उन्होंने वकील वर्ग के प्रति अपनी नफरत का इजहार नहीं बल्कि अंगरेजी पद्धति की न्याय व्यवस्था की जड़ों पर हमला किया। गांधी ने साफ कहा ‘जिन्हें अपनी सत्ता कायम रखनी है, वे अदालतों के जरिये लोगों को बस में रखते हैं। लोग अगर खुद अपने झगड़े निबटा लें, तो तीसरा आदमी उन पर अपनी सत्ता नहीं जमा सकता। सचमुच जब लोग खुद मारपीट करके या रिश्तेदारों को पंच बनाकर अपना झगड़ा निबटा लेते थे तब वे बहादुर थे। अदालतें आईं और वे कायर बन गए। लोग आपस में लडक़र झगड़े मिटायें, यह जंगली माना जाता था। अब तीसरा आदमी झगड़ा मिटाता है, यह क्या कम जंगलीपन है? क्या कोई ऐसा कह सकेगा कि तीसरा आदमी जो फैसला देता है वह सही फैसला ही होता है? कौन सच्चा है, यह दोनों पक्ष के लोग जानते हैं। हम भोलेपन में मान लेते हैं कि तीसरा आदमी हमसे पैसे लेकर हमारा इंसाफ करता है।’ इसी क्रम में गांधी ने आगे कहा कि ‘अंग्रेजी सत्ता की एक मुख्य कुंजी उनकी अदालतें हैं और अदालतों की कुंजी वकील हैं। अगर वकील वकालत करना छोड़ दें और वह पेशा वेश्या के पेशे जैसा नीच माना जाय, तो अंग्रेजी राज एक दिन में टूट जाय। वकीलों ने हिन्दुस्तानी प्रजा पर यह तोहमत लगवाई है कि हमें झगड़े प्यारे हैं और हम कोर्ट-कचहरी रूपी पानी की मछलियां हैं। जो शब्द मैं वकीलों के लिए इस्तेमाल करता हूं, वे ही शब्द जजों को भी लागू होते हैं। ये दोनों मौसेरे भाई हैं और एक-दूसरे को बल देने वाले हैं।’
गांधी रुक नहीं जाते। हिन्दुस्तान पर विचार करते हैं ‘अंग्रेजी सत्ता की एक मुख्य कुंजी उनकी अदालतें हैं और अदालतों की कुंजी वकील हैं। अगर वकील वकालत करना छोड़ दें और वह पेशा वेश्या के पेशे जैसा नीच माना जाय तो अंग्रेजी राज एक दिन में टूट जाय।’ पहले गांधी यह सवाल कर चुके थे-‘क्या आप मानते हैं कि अंग्रेजी अदालतें यहां न होतीं तो वे हमारे देश में राज कर सकते थे?’ उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा और उसमें दीक्षित वर्ग-वकील, डॉक्टर, इंजीनियर को ब्रिटिश साम्राज्य की शोषणधर्मी नीतियों का सबसे बड़ा समर्थक वर्ग माना है। गांधी लिखते हैं ‘पश्चिम के सुधारक खुद मुझसे ज्यादा सख्त शब्दों में इन धंधों के बारे में लिख गए हैं। उन्होंने वकीलों और डॉक्टरों की बहुत निन्दा की है। उनमें से एक लेखक ने एक जहरी पेड़ का चित्र खींचा है, वकील-डॉक्टर वगैरा निकम्मे धंधेवालों को उसकी शाखाओं के रूप में बताया है और उस पेड़ के तने पर नीति-धर्म की कुल्हाड़ी उठाई है।’ वे आगे लिखते हैं ‘हम डॉक्टर क्यों बनते हैं, यह भी सोचने की बात है, उसका सच्चा कारण तो आबरूदार और पैसा कमाने का धंधा करने की इच्छा है। उसमें परोपकार की बात नहीं है।‘
गांधी एक महत्वपूर्ण वकील रहे हैं। उन्होंने ज्ञान का उपयोग व्यक्तियों के बीच फैले विद्वेष को घटाने में किया। गांधी अमीर वकील की भूमिका का निर्वाह नहीं कर पाए। यही भूमिका संपन्न करने उन्हें दक्षिण अफ्रीका ले जाया गया था। तत्कालीन समाज में वकील और डॉक्टर दो प्रमुख व्यवसाय थे। वे अपने उद्देश्यों से भटक जाने के कारण/बावजूद सफलता का परचम हाथ में लिए थे। दोनों व्यवसायों का घोषित तौर पर मकसद जनसेवा करना था, लेकिन पथभ्रष्ट होकर ‘अर्थसंग्रह’ में लग गए। दोनों पश्चिम से उपजी मनुष्य विरोधी आधुनिक सभ्यता के प्रतीक, प्रस्तोता और प्रवक्ता हो गए थे। सचेत और अध्ययनशील वकील गांधी को सही प्राथमिक जानकारियां भी थीं।
वकीलों के बारे में समाज में आम धारणा बहुत संतोषजनक नहीं है। यह धारणा है कि जो और कुछ नहीं बन सकता, वह वकील हो जाता है। विख्यात अंग्रेज कवि चॉसर ने सुप्रसिद्ध कृति ‘केन्टरबरी टेल्स’ में वकील का चित्रांकन करते लिखा है कि वकील वह प्राणी है जो अपने को व्यस्त दिखाने का उपक्रम करता रहता है। वकालत की सफलता का श्रेय तिकड़म तथा झांसापट्टी को दिया जाता है। कितनी ही मेहनत अपने मुअक्किल के लिए करे। खुद उसका पक्षकार भी उससे सशंकित रहता है। वकीलों की वाकपटुता, सफेद को काला दिखाने की क्षमता और हुनरबाजी का लोहा मानने पर भी समाज को उनसे आतंकित रहने की आदत पड़ गई है। माना जाता है अदालतों में न्याय के रूप में सत्य की खोज में लगे वकील वर्ग को सच से निजी तौर पर कोई सरोकार नहीं है। झूठी गवाही, झूठे हलफनामे और फरेब से सत्य की आत्मा बेहोश तो कर ही दी जाती है।
वकीलों के बारे में यह भी धारणा है कि यह समाज का पराश्रयी है। अंग्रेज साहित्यकार थैकरे ने यहां तक कहा था कि ईमानदार आदमी की हड्डियों पर ही वकील का गोश्त चढ़ता है। एक जस्टिस ने झल्लाकर कहा था, ‘राज्य आखिरकार वकीलों की तरह आपसे में बंट जायेगा।’ मुकदमों की नियति होती है कि उनका अन्त होते होते दोनों पक्ष हलाकान हो जाते हैं। फ्रांसीसी लेखक वोल्तेयर ने कहा था वे जीवन में केवल दो बार बरबाद हुए। एक बार जब मुकदमा जीते और दूसरी बार जब मुकदमा हारे। मानवतावादी, साहित्यकार शेक्सपियर प्रख्यात इतिहासपुरुष क्रॉमवेल, कवि टेनिसन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिजरायली आदि ने भी वकीलों के पेशे पर कटाक्ष किए हैं। प्रसिद्ध अंग्रेज वकील तथा लेखक बेन्थम ने कहा था ‘कानून का अज्ञान किसी भी व्यक्ति को नहीं बख्शता सिवाय वकील के।’ उसने व्यंग्य भी किया कि जब किसी मुल्क में क्रांति होती है। तो पहला सुधार यही होगा कि सारे वकीलों को सजा दी जाए। यह ऐसा फैसला होगा जिस पर आने वाली पीढिय़ाँ कभी नहीं पछताएंगी।
न्यायालय पीडि़त व्यक्तियों की अंतिम उम्मीद के रूप में बनाए गए। उन्हें भी ऐशगाह बनाया, समझाया जा रहा है। कई जजों को करोड़ों रुपयों की तलब के आरोप लगाए जाते हैं। उन्हें ज्ञान, सेवा और चरित्र के अतिरिक्त बाकी कुछ और भी चाहिए। वे बात-बात में झल्लाने लगते हैं। कुछ वकीलों को रियायत देते हैं। बाकी से डांटडपट करते हैं। न्यायालय घूसखोरी से परे नहीं हैं। पदों की बंदरबाट में अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग है। उनका धन व्यापार वगैरह में लगने की भी अफवाहें हैं। लोकतंत्र तो धर्मशाला, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या चैत्य विहार बनने आया था। जुरासिक पार्क बनकर रह गया है। इसमें संदेह नहीं बहुत मुश्किल समय में कई जजों ने साहसिक नवाचार से उपेक्षितों को अनाथालय बनने से बचा लिया। हजारों एकड़ जमीन किसानों, आदिवासियों को लौटाई गई। देश के कई हाईकोर्ट ऐतिहासिक भूमिका के लिए याद रखे जाएंगे। जेलों में सड़ रहे बंदियों, फुटपाथ के रहवासियों और प्रदूषण झेलते नागरिकों को सुप्रीम कोर्ट ने राहत दी है। अशेष कवि दुष्यंत कुमार ने जनसलाह दी थी कि आसमान में भी सूराख हो सकता है, यदि कोई तबियत से पत्थर तो उछाले। अदालतों की जनप्रतिष्ठा की कांच की दीवारें कुछ चटक गई है। उस शीशमहल सुप्रीम कोर्ट को संविधान निर्माताओं ने मशक्कत, जद्दोजहद, समझदारी, बहसमुबाहिसा और भविष्यमूलक दृष्टि से रचा। कार्यपालिका और विधायिका के कर्तव्य, फैसलों, विलोप और आलस्य तक के खिलाफ समझाईश, टिप्पणी और विवेक को बर्खास्त करना भी सुप्रीम कोर्ट के दायरे में रचा। कई पेंच डाल दिए जो मासूम जनता को नहीं दिखे। न्याय मिलता दिखता है, लेकिन मिलता नहीं है।