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कनक तिवारी लिखते हैं- अंगरेज या अंगरेजियत
19-Nov-2022 7:14 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- अंगरेज या अंगरेजियत

  किस्त-8  

गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ के चौथे अध्याय में स्वराज के लिए इशारे किये हैं कि अंग्रेजों के भारत से चले जाने भर को आजादी नहीं मानते। उन्होंने कहा अंग्रेज हर साल भारत से बहुत सा धन ले जाते हैं। अपनी ही चमड़ी के लोगों को बड़े ओहदे देते हैं। हमारे साथ बेरहमी का बर्ताव करते हैं। तब भी यह ऐसी प्रवृत्ति नहीं जिससे भारत अपनी बुनियाद में हिल जाए। उन्होंने साफ कहा पश्चिमी सभ्यता से पूरी तौर पर छुटकारा और भारतीय आदर्षों की बुनियाद पर नये देश का निर्माण ही स्वराज का अर्थ है। किसी भी जुल्म के खिलाफ रीढ़ की हड्डी पर खड़े होना और उसका मुकाबला करना गांधी के लिहाज से स्वदेशाभिमान था। इसी अर्थ में वे आजादी पाना चाहते थे। 

‘हिन्द स्वराज’ में गांधी ने लिखा ‘अगर आज की सभ्यता बिगाड़ करने वाली है। एक रोग है। तो ऐसी सभ्यता में फंसे हुए अंग्रेज हिन्दुस्तान को कैसे ले सके? हिन्दुस्तान अंग्रेजों ने लिया सो बात नहीं है, बल्कि हमने उन्हें दिया है। हिन्दुस्तान में वे अपने बल से नहीं टिके हैं, बल्कि हमने उन्हें टिका रखा है। गांधी कहते हैं अंगरेज को भारत में रहने दिया जाए लेकिन अंगरेजियत को दफा किया जाए। उनके तमाम सहयोगी इस वाक्य की फिरकी/गुगली को समझ नहीं पाए। अंगरेजों के रुखसत हो जाने भर को लोग स्वाधीनता समझ रहे थे। 

गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में यह भी कहा ‘जो नियम हिन्दुस्तानियों के बारे में है, वही अंग्रेजों के बारे में समझना चाहिये। सारे के सारे अंग्रेज बुरे हैं, ऐसा तो मैं नहीं मानूंगा। बहुत से अंग्रेज चाहते हैं कि हिन्दुस्तान को स्वराज मिले। उस प्रजा में स्वार्थ ज्यादा है यह ठीक है, लेकिन उससे हर एक अंग्रेज बुरा है ऐसा साबित नहीं होता। जो हक, न्याय चाहते हैं, उन्हें सबके साथ न्याय करना होगा। आजादी मिलने के कुछ समय पहले से ही गांधी उपेक्षा बल्कि अपमान में देश में रहने को मजबूर थे। संसार के बहुत कम देषों में शीर्ष नेतृत्व को उपेक्षित और अपमानित होना पड़ा हो। 

‘हिन्द स्वराज’ में गांधी ने कुछ और मूलभूत मुद्दे उठाए। ‘अंग्रेजी शिक्षा ने तो हमें सिर्फ  गुलाम बनाया है। हम अपने ही समाज और उसकी जड़ों से कट गए हैं।’ गांधी एक जगह लिखते हैं ‘जो अंग्रेजी पढ़े हुए हैं उनकी संतानों को पहले तो नीति सिखानी चाहिए। उनकी मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिन्दुस्तान की एक दूसरी भाषा सिखानी चाहिए। हिन्दू मुसलमानों के संबंध में ठीक रहें, इसलिए बहुत से हिन्दुस्तानियों का इनकी दोनों लिपियों का ज्ञान जरूरी है।’ केवल गांधी ने यह बात कही थी कि दरअसल आजादी उन्हें चाहिए जिन्होंने पश्चिम की षिक्षा पाई है और जो उसके पाष में फंस गये हैं। उन्हीं के षब्दों में ‘जिस तरह महासागर के किनारे पर मैल जमा हो, उस मैल से जो गंदे हो गये हैं, उन्हें साफ  होना है, बाकी करोड़ों लोग तो सही रास्ते पर ही हैं।’ बाकी 95 प्रतिशत निपट भारतीयों के लिए उन्होंने यहाँ तक कहा था कि जहाँ जहाँ पश्चिम की चाण्डाल सम्यता नहीं पहुँची है वहाँ हिन्दुस्तान आज भी ऐसे ही है कि ‘उस पर न अंग्रेज राज कर सके, न आप कर सकेंगे।’ 

साबरमती आश्रम सेे नटराजन को 16 मई, 1931 को गांधी ने लिखा, ‘ब्रिटिश शासन बुरी वस्तु है-इस निष्कर्ष पर हम बड़े अध्ययन और मनन के बाद पहुंचे हैं। ‘हिन्द स्वराज’ और ‘सत्य के प्रयोग’ में मैंने इसकी प्रक्रिया बतलाई है। कहा जाता है कि हिन्दुस्तान में जब स्वराज्य होगा, तब जिस कौम की संख्या ज्यादा होगी उसी का राज्य होगा। इससे बड़ी भूल और क्या हो सकती है? अगर यह बात सच हो तो मैं अकेला उस तरह के राज्य से लोहा लूंगा। मैं ऐसे राज्य को स्वराज्य नहीं कहूंगा। मेरे मन का हिन्द स्वराज्य सबका राज्य है। न्याय का राज्य है। उस राज्य में प्रधानमंत्री या चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, धारासभा के तमाम सदस्य चाहे मुसलमान हों, या पारसी हों या सिख, सबको इन्साफ  ही करना होगा। उस राज्य में न्याय नहीं हुआ तो उसे स्वराज्य नहीं कहूंगा।‘

गांधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने तक स्वतंत्रता आंदोलन की अभिव्यक्ति की भाषा अंगरेजी बनी बैठी थी। गांधी के आने के बाद भाषा का सवाल बहुमत की आकांक्षा, गरीब की भूख और देश के आहत अभिमान से जोड़ा गया। बापू की सीधी सादी, साफ -सुथरी और दो टूक समझाईश थी कि अवाम को आजादी की जद्दोजहद की एक एक इबारत को बराबरी के आधार पर लिखने, पढऩे, समझने का अधिकार है। गांधी लोगों में उस भाषा को संपर्क सूत्र बनाना चाहते थे, जिसे सबसे ज्यादा लोग खुद ब खुद समझते, बोलते और लिखते हैं। गांधी खुद एक खुली किताब रहे हैं। भाषा के सवाल को लेकर कांग्रेस नेतृत्व का महात्मा गांधी की भाषा दृष्टि से बेरुख होने का हिन्दी की उपेक्षा से सीधा संबंध है। महानता के बावजूद गांधी भाषा के मामले में कांग्रेस विचारकों को एकजुट , प्रतिबद्ध और हिन्दी उन्मेषक नहीं बना सके। कांग्रेसियों ने अपने संदर्भों, प्राथमिकताओं और चाहत का क्षेत्रीयकरण किया। वे एक ओर आजादी के लिए संघर्ष करने वाले योद्धा बने रहे। दूसरी ओर भाषा के सवाल पर देशभक्ति की खाल उतारकर अंग्रेजों के साथ हो गये। यह दोहरा आचरण शायद और किसी मुल्क के स्वतंत्रता आंदोलन में नहीं दिखाई पड़ता। गांधी बेखबर नहीं थे। कांग्रेसी कर्णधार गांधी की होती जा रही अप्रासंगिकता से बाखबर थे। चाकू चाहे खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर, कटता खरबूजा ही है। हिन्दी के खरबूजे पर अंग्रेजी का चाकू जिन हाथों ने दमित महत्वकांक्षाओं के चलते घोंपा है। राष्ट्र भाषा की अंतिम स्वीकारोक्ति का दिन उन्हें खलनायकों की मूर्ति बनाकर स्थापित करेगा। गांधी इसीलिए कहते रहे कि अंगरेज के चले जाने के बाद भी उनके शासनतंत्र की यदि नकल ही की जाएगी, तो भारत में इंगलिस्तान रहेगा हिन्दुस्तान नहीं। 

‘हिन्द स्वराज’ में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश पैटर्न की शासन व्यवस्था को भारत के लिए कैन्सर की तरह बताया। आजादी के बाद पंडित नेहरू की अगुआई में गांधी के विचारों को सिरे से खारिज कर दिया गया। स्वराज भवन के बेटे को ‘हिन्द स्वराज’ में कुछ भी वैज्ञानिक , समकालीन और भविष्यमूलक हल नहीं दिखा। वही शासन प्रणाली कायम रही, जैसी गोरे छोड़ गए थे। वाइसराय के घर राष्ट्रपति आ गए। प्रधान सेनापति के घर प्रधानमंत्री और कई अस्तबल वगैरह में सरकारी दफ्तर, मेज कुर्सियाँ, फाइलें, लालफीते, बाबू साहब सब कायम रहे। जनता भी वैसे ही कायम रही। पहले विदेशी वायरस से पीडि़त थी। फिर विदेश से आए देषी नस्ल के ढिलाई, ढिठाई, भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता, छुट्टियाँ, लंच, मीटिंग, दौरे अब भी फल-फूल रहे हैं। लोग पहले की तरह ही सूख रहे हैं। 
इंग्लैंड या ऑस्ट्रेलिया की क्रिकेट या हॉकी की टीम पाकिस्तान को हराती है तो भारत में लोग खुश क्यों होते हैं? भारत हारता है तो पाकिस्तान में जश्न क्यों होता है? 

साम्राज्यवादी मुल्कों ने देश के दो टुकड़े कर दिए। जुदा लेकिन एक ही परम्परा की संस्कृतियों के भाइयों में दरार पैदा कर दी। हम घरफोड़ू के पिछलग्गू बने हैं। हर बड़ा नेता, उद्योगपति, फिल्मकार इलाज के लिए इंग्लैंड, अमरीका वगैरह क्यों जाता है, जबकि भारत में उच्च चिकित्सा की सुविधाएं जुटाना उसका ही दायित्व है? विदेशों में नौकरी ढूंढने जाते नौजवान पलायन को उपलब्धि समझते हैं। उनकी शिक्षा का पूरा खर्च देश के टैक्सदार उठाते हैं। सूट टाई में लैस अंगरेजी में गिटपिट करते व्यक्ति को ट्रेन या बस में जल्दी जगह मिल जाती है, हिन्दीदां को नहीं। सरकारी कर्मचारियों द्वारा किए गलत निर्णय को ‘सद्भावनाजन्य भूल’ वाले अंगरेज जुमले का रक्षा कवच मिल जाता है। 
सब जानते हैं आज कल मंत्रियों-अफसरों के रेवड़ में दुर्भावना ही दुर्भावना है। तिरंगे झंडे के नीचे खड़े अफसर और कर्मचारी जनता की पैसा-वसूल सेवा कर रहे हैं। गांधी की स्वराज की कल्पना में भाषा केवल माध्यम का सवाल नहीं थी। वह दरअसल मनुष्य के अस्तित्व का एक बड़ा सवाल है। पंद्रह अगस्त 1947 की बीतती रात बीबीसी के पत्रकार ने अंग्रेजी में आजादी पर उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। गांधी ने सिर्फ  इतना कहा, ‘कृपया, दुनिया को खबर कर दें गांधी अंग्रेजी भूल गया है।’ 

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