संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : असम मुख्यमंत्री के इतने नफरती-साम्प्रदायिक बयान पर भी सुप्रीम कोर्ट चुप!
20-Nov-2022 1:47 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : असम मुख्यमंत्री के इतने नफरती-साम्प्रदायिक बयान पर भी सुप्रीम कोर्ट चुप!

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने एक बार फिर भयानक साम्प्रदायिक बात सार्वजनिक रूप से कही, और सुप्रीम कोर्ट को आईना दिखा दिया कि उसकी कोई औकात भारतीय राजनीति में नहीं है। अभी कुछ वक्त पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि नफरत की बातें करने वाले लोगों पर स्थानीय पुलिस अधिकारी खुद होकर मामले दर्ज करें, और अगर ऐसा नहीं किया गया तो उन अफसरों को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का दोषी माना जाएगा। अब गुजरात में हो रहे विधानसभा चुनाव प्रचार की रैली में असम मुख्यमंत्री ने कहा कि मोदी को जिताना बहुत जरूरी है, अगर वे नहीं जीते तो हर शहर में आफताब पैदा होगा। उन्होंने श्रद्धा हत्याकांड को लव-जिहाद का भयानक रूप बताते हुए कहा कि आफताब ने लव-जिहाद के नाम पर उसके 35 टुकड़े कर दिए और लाश फ्रिज में रखी। उन्होंने इसके अलावा भी इस किस्म की कई और बातें कहीं। 

हर शहर में आफताब पैदा होने की यह चेतावनी एक खुली साम्प्रदायिक बात है क्योंकि हिन्दुस्तान में इस तरह की हत्या कई धर्मों के लोग करते आए हैं, और इसका मुस्लिम धर्म या उसके किसी रिवाज से कोई लेना-देना नहीं है। लव-जिहाद शब्द भी आक्रामक हिन्दुत्व के हिमायती लोगों का गढ़ा हुआ है जिसके बारे में केन्द्र सरकार ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में कहा है कि सरकार की भाषा में लव-जिहाद कोई शब्द नहीं है, और न ही केन्द्र सरकार की कोई एजेंसियां ऐसी भाषा का इस्तेमाल करती हैं। ऐसे में एक धर्म के लोगों के लिए सभी के मन में दहशत और नफरत भरने के लिए अगर चुनावी रैली में एक मुख्यमंत्री यह भाषण देता है कि मोदी को नहीं जिताया गया तो हर शहर में आफताब होगा, यह बात घोर साम्प्रदायिक भी है, घोर नफरत की भी है, दहशत पैदा करने की भी है, और सुप्रीम कोर्ट में हेट-स्पीच मामले में जो आदेश दिया है, यह उसके तहत कार्रवाई के लायक एकदम फिट मामला है। अब गुजरात की पुलिस से यह उम्मीद तो कोई कर नहीं सकते कि वह एक भाजपा मुख्यमंत्री के खिलाफ जुर्म दर्ज करेगी, लेकिन गुजरात या देश के दूसरे जगहों की धर्मनिरपेक्ष ताकतें जरूर इस बयान को लेकर सुप्रीम कोर्ट को याद दिला सकती हैं कि यह उसकी सोच-समझकर की गई तौहीन है, और इस अवमानना के खिलाफ अदालत को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। प्रेमिका या पत्नी को मारने का ऐसा हिंसक तौर-तरीका मुस्लिमों के एकाधिकार वाला कोई तरीका नहीं है, और न ही उनके धर्म के किसी रीति-रिवाज के मुताबिक यह कोई धार्मिक संस्कार है, हिन्दुस्तान में पिछले दशकों में लगातार हिन्दू-हत्यारों के किए हुए कई अलग-अलग किस्म के तंदूर हत्याकांड अच्छी तरह खबरों में छाए रहे हैं, और इस एक मुस्लिम हत्यारे की वजह से पूरे देश में दहशत फैलाना साम्प्रदायिक नफरत फैलाने के अलावा और कुछ नहीं है। लोगों को याद रखना चाहिए कि अभी पिछले ही पखवाड़े इसी वारदात वाली दिल्ली में एक मुस्लिम प्रेमिका द्वारा रिश्ता जारी रखने से मना करने पर उसके हिन्दू प्रेमी ने घर घुसकर उसकी हत्या कर दी, और एक-दो नहीं 9 गोलियां दागकर उसे छलनी कर दिया। तो क्या पूरे देश की मुस्लिम लड़कियों को ऐसे हिन्दू हत्यारे की दहशत दिखाई जाए? 

हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट दोनों ही अधिकतर मामलों में अपनी आंखों से कुछ देखने से इंकार कर रहे हैं। चुनाव आयोग तो केन्द्र सरकार के एक और विभाग की तरह काम कर रहा है, और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट खुद होकर कोई भी पहल करने से पूरी तरह पीछे हट चुका है। एक वक्त था जब सुप्रीम कोर्ट के कुछ जागरूक जज देश के जलते-सुलगते मुद्दों पर कोई पिटीशन न आने पर भी उनकी सुनवाई शुरू करते थे, लेकिन अब तो देश की सबसे बड़ी अदालत भी किसी पिटीशन के इंतजार में बैठी रहती है, फिर चाहे पूरे देश में आग लगती रहे। असम के मुख्यमंत्री का यह बयान एक कसौटी है कि अदालत अभी कुछ हफ्ते पहले के अपने खुद के फैसले की चेतावनी को लेकर कितनी गंभीर है। गुजरात वैसे भी एक पूरी तरह से हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण वाला राज्य बनाया जा चुका है, और वहां पहुंचकर हिन्दुओं को एक अकेले मुस्लिम हत्यारे की मिसाल देकर इस तरह धमकाना और मोदी के लिए वोट मांगना सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले से परे भी एक जुर्म है, और यह देखना है कि चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट किसी में लोकतंत्र की कोई जिम्मेदारी बची है या नहीं। 

हिन्दुस्तानी चुनाव आमतौर पर यहां के नेताओं के मन में दबी-छुपी हिंसक कुंठाओं और नफरत को निकालने का एक मौसम रहता है। हर चुनाव कुछ न कुछ नेताओं की जुबान से लहूलुहान होते हैं, और ऐसा लगता है कि जनजीवन को, लोकतंत्र को, इंसानियत को लहूलुहान किए बिना इनकी जुबान को पहले से लगी हुई लहू की हवस पूरी नहीं होती है। चुनाव आयोग एक तरफ तो अंधाधुंध अधिकार अपने हाथ में रखे रहता है, और दूसरी तरफ ऐसी हिंसक और साम्प्रदायिक धमकी को अनदेखा करना वह एक धार्मिक जिम्मेदारी मानकर चल रहा है। हर कुछ दिनों में किसी न किसी नेता की ऐसी खूनी बात सामने आती है, और हिन्दुस्तान में एक ऐसा माहौल बन रहा है कि किसी पार्टी में ऊपर जाने के लिए, बहुसंख्यक मतदाताओं का दिल जीतने के लिए अधिक से अधिक हिंसक, अधिक से अधिक घटिया और अधिक से अधिक साम्प्रदायिक बात करना जरूरी है। अगर भारतीय लोकतंत्र में नफरत की इस सुनामी के बीच भी सुप्रीम कोर्ट अपनी जिम्मेदारी नहीं समझता है, तो मीडिया में अच्छी तरह रिकॉर्ड ऐसे बयान, और सुप्रीम कोर्ट की दर्ज की गई यह चुप्पी इतिहास में एक साथ पढ़ी जाएगी कि जब देश में नफरत फैलाई जा रही थी, देश में सबसे अधिक ताकत वाले जज क्या कर रहे थे।

 (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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