विचार / लेख

किस्त-10
ईसा मसीह ने अपना मिशन घोषित किया था। वैसे ही ‘हिन्द स्वराज’ गांधी के विचार घोषणा-पत्र का उद्घाटन पर्व है। इसमें गांधी के शेष जीवन का एजेंडा सुविचारित ढंग से सुभाषित है। यह पुस्तक तेज गति के लेखन का भी नायाब नमूना है। इंग्लैंड से निराश लौटते गांधी ने 30 हजार षब्दों की यह पुस्तिका 13 से 22 नवंबर 1909 के बीच पानी के जहाज ‘किल्डोनन कैसल’ में बैठकर लिखी थी। 275 हस्तलिखित पृष्ठों के 40-50 पृष्ठ बाएं हाथ से लिखे गए थे क्योंकि दाएं हाथ ने जवाब दे दिया था। (इस नाते गांधी कम से कम पंद्रह प्रतिशत वामपंथी तो माने जा सकते हैं।) सवाल उठाया जाता है क्या ‘हिन्द स्वराज’ निखालिस भारतीय संदर्भ या तत्कालीन चुनौतियों के विचार-पत्र के रूप में लिखी गई, अथवा यह अपने समय और भूगोल के परे जाकर भी प्रासंगिक रह सकती है।
पहली नजर में यही लगता है कि एक खीझे हुए नवयुवक बैरिस्टर ने मालिक सभ्यता के दमन के लिए उसकी बदनीयती का कच्चा चि_ा तैयार किया है। ‘हिन्द स्वराज’ संभवत: अकेली किताब है जो इतनी सरल भाषा में लिखी गई है। उसे स्कूली पाठ्यक्रम में रखा जा सकता है और इस कृति को बार बार पढऩे से अर्थों के नए नए तिलिस्मी दरवाजे खुलते हैं। गांधी कहते हैं मैं यहां पाठकों को एक अप्रस्तुत प्रसंग भी बताऊं। इंग्लैंड में रहते हुए उनदिनों मेरी बातचीत बहुत से अराजकतावादियों से हुई। वहां मैंने उन सबके तर्कों का खंडन किया था। दक्षिण अफ्रीका में भी मैंने ऐसे कुछ लोगों की षंकाओं का समाधान किया था। मेरे ‘हिन्द स्वराज्य’ का जन्म इंग्लैंड में हुई इस चर्चा के आधार पर ही हुआ।
अपने जीवन के संध्याकाल में श्ी महात्मा गांधी ने आभार स्वीकार करते हुए कहा था: ‘रूस ने मुझे तॉल्स्तॉय के रूप में शिक्षक दिया जिनसे मुझे अपनी अहिंसा के लिए युक्तिसंगत आधार प्राप्त हुआ।’ उन्होंने तॉल्स्तॉय को विस्तार से एक पत्र 1 अक्टूबर 1909 को लंदन से श्ेजा गया था जहां गांधी ब्रिटिश सरकार के मंत्रियों से वार्ता के लिए पहुंचे थे।
उन्होंने दक्षिण अफ्रीकी नस्लवादियों के शासन में अपने देषवासियों की दूभर जिंदगी के बारे में तफसील से बताया और जोर देकर यह श्ी लिखा कि मुश्किलें और मुसीबतें चाहें कैसी श्ी क्यों न उठानी पड़ें, वे हिन्दुस्तानियों को किस्मत के आगे घुटने टेकने पर मजबूर नहीं कर सकतीं। तॉल्स्तॉय के विचारों से सीधे-सीधे मेल खानेवाली एकमात्र बात है ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ की धारणा जिसका संसार में प्रचार गांधी एकदम आवश्यक समझते थे।
‘हिन्द स्वराज’ संक्षिप्त पुस्तक है। उसमें बड़े बड़े सवाल सूत्रों में पिरोए गए हैं। पुस्तक में लेकिन उपन्यास का विस्तार भी है। गांधी ने अपने दिमाग के सयानेपन का इस्तेमाल किया है कि विषयवस्तु तत्कालीन होने के साथ साथ सर्वकालीन हो गई है। एक साथ उनके गुरु गोपालकृष्ण गोखले और षिष्य जवाहरलाल नेहरू ने पुस्तक को खारिज किया। गांधी के विचार नेहरू के नेतृत्व में न तो राज्य-सत्ता का आधार बने और न ही उन्हें किसी कार्य योजना से संपृक्त किया। सत्ता-तंत्र के लिए गांधी पूरी तौर पर असुविधाजनक और असंगत नजर आते रहे। औद्योगीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र, योजना आयोग, शहरीकरण और वैश्वीकरण के दबावों के चलते गांधी की हाइपोथीसिस तिरस्कृत विचार-पत्र लगती है। ‘हिन्द स्वराज’ के पूरे आग्रह में नैष्ठिक और नैतिक जीवन की ष्वास है। गांधी का (एक तरह का) देहाती और लगभग अर्धसभ्य दिखता तर्क तिरस्कृत ही हो सकता है। गांधी के शिष्य जवाहरलाल नेहरू और उनके सहयोगियों ने यूरोप का चश्मा चढ़ाकर बाइस्कोप में जो रंगीनियां देखी थीं। उनके बदले गांधी की पुरानी आंखों से श्वेत श्याम बल्कि रंगहीन कोई नैतिक फिल्म देखना उन्हें गवारा नहीं हो सकता था।
गांधी निर्विकल्प नहीं हैं। कोई भी व्यक्ति, विचार या व्यवस्था निर्विकल्प नहीं है। मौजूदा हालातों में गांधी एक बेहतर विकल्प हैं-यह बात धीरे-धीरे दुनिया पर हावी होती जा रही है। गांधी के विकास का अधिकांश बल्कि असली युवा समय दक्षिण अफ्रीका में बीता। वहां उन्हें भारत से दूर रहकर एक अकल्पित, परोक्ष और व्याख्यात्मक समझ मिली।
गोरी हुकूमत से दो-दो हाथ करते बैरिस्टर गांधी दक्षिण अफ्रीकी जनसमुदाय से, जिनमें आप्रवासी भारतीय भी शामिल थे, पूरी तौर पर घुल मिल गए थे। उन्हें कई अंग्रेजों और ईसाई मित्रों का समर्थन और सहयोग मिला। गांधी अध्ययनशील और अध्यवसायी थे। उनकी पैनी दृष्टि ने ईसाई बनाम आधुनिक (पश्चिमी) सभ्यता के बीच भेद करना समझ लिया था। उन्होंने कहा कि विज्ञान जनित सभ्यता ने ‘माइट इज राइट’ और ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ नामक दो घातक नारे उछाले हैं। उनका ईसाइयत के मूल्यों से कुछ लेना-देना नहीं है। गांधी ने इतिहास को धर्म की तरह नहीं लेकिन धर्म को इतिहास की तरह समझने, पढऩे और रेखांकित करने की लगातार कोशिशें कीं।
बहुत सा गांधी सहजता से पचता भी नहीं है। उसमें धरती की सोंधी गमक अलबत्ता है। 1925 के आसपास हिन्दू महासभा, कम्युनिस्ट पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मुस्लिम लीग आदि की स्थापना हुई। 1931 में भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत को स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का सबसे घुमावदार मोड़ समझा जा सकता है।
क्रांतिकारियों की शहादत ने गांधी के अहिंसा विचार की व्यावहारिकता की समझ को तहस नहस कर दिया था। यही वजह है कि कांग्रेस का वामपंथी धड़ा जवाहरलाल और सुभाष बोस सहित क्रांतिकारियों के मामले में गांधी से अलग थलग हो गया। नेहरू और सुभाष अपनी तमाम गांधी समझ के बावजूद धीरे धीरे उनसे अलग मुकाम ढूंढने का उपक्रम भी रचते रहे। 1942 के प्रसिद्ध भारत छोड़ो आंदोलन में अहिंसा के व्यवहार को युवकों के जोश के कारण आहत भी होना पड़ा। भारत पाक विभाजन और हिंदुत्व के लगातार विरोध के मुहाने पर गांधी का कत्ल किया गया।
गांधी जब सोलह वर्ष के हुए, तब कांग्रेस का जन्म हुआ। गांधी को गए पचहत्तर वर्ष हो रहे हैं। कांग्रेस देश की सत्ता पर काबिज हुई। ‘गांधी’ उपनाम कांग्रेस से उसी तरह चिपका है जैसे प्राणी की त्वचा होती है। इंदिरा गांधी, फीरोज, राजीव, संजय, सोनिया, राहुल और प्रियंका-एक लंबी फेहरिश्त है। इसमें गुजरात के गांधी के वंशज शामिल नहीं है। मूल गांधी नहीं हैं। ‘मोहन’ के ‘बदले’ मनमोहन की सरदारी में कांग्रेस वक्त की दीवार पर लिखे असली गांधी को मिटाने की पूरी कोशिश करती रही है। गांधी का रचनात्मक कार्यक्रम कांग्रेस के नाबदान में फेंक दिया गया। मनरेगा का प्रयोग गांधी के नाम पर तो है लेकिन गांधी का सोच नहीं है। कुटीर उद्योगों का जाल बिछाने के बदले खेतिहर और सडक़ मजदूरों की फौज खड़ी करने को उसके ही सर माथे फोड़ा जा रहा है। दांडी के नमक सत्याग्रह के प्रणेता ने कहा था कि हर गांव को आत्मनिर्भर होना चाहिए। उसे केवल मिट्टी तेल और नमक के लिए ही शहरों पर निर्भर होना चाहिए। गांधी का नमक टाटा परिवार की तिजोरी में है। टाटा परिवार एक जमाने में देशसेवक था। अब कोयला और लोहा से लेकर टूजी स्पेक्ट्रम की सबसे बड़ी दलाली करने का उसने राष्ट्रीय रिकार्ड बनाया है।
गांधी कहते थे साठ वर्ष की उम्र के बाद सत्ता पर नहीं बैठना चाहिए। हर पार्टी के असली कर्णधार साठ वर्ष के ऊपर हैं। चल नहीं सकते, सुन नहीं सकते, दिमाग उन्हें मतदाताओं की तरह छोड़ रहा है। फिर भी सत्ता का नारद मोह भारतीय राजनीति का सबसे आकर्षक रोमांस है। गांधी ने सविनय अवज्ञा, सत्याग्रह वगैरह के लोकतांत्रिक हथियार धरती की छाती पर रोपे। गांधी ने अनशन किए लेकिन जन लोकपाल नहीं, जनशक्ति के मुद्दे को लेकर आज सरकार आंदोलनकारी की पीठ पर सीबीआई, इन्कम टैक्स और पुलिस आदि के हाथों से छुरा मारने में गुरेज नहीं करती। गांधी की मूर्ति को जगह जगह खंडित किया गया। संसद में इस तरह चर्चा हुई मानों स्कूल के किसी बच्चे की स्लेट या कापी चोरी हो गई। गांधी ने खादी पहनना कांग्रेस के लिए अनिवार्य किया था। कांग्रेसियों की देह तो क्या उनकी रसोई तथा साफ-सफाई के काम में भी खादी के कपड़े नहीं आते। गांधी ने मद्यनिषेध को अपने देष और पार्टी का मकसद बनाया था। हालत यह है कि जो शराब नहीं पीता उसे कांग्रेस में बड़े पद ही नहीं मिलते। अपवाद जरूर हैं लेकिन धीरे धीरे उनकी संख्या कम होती जा रही है। अनिवार्य शराबखोरी और खादी निषेध यदि दस्तूर बन जाएगा तो गांधी का क्या होगा?