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गुजरात चुनाव: महिलाओं को टिकट देना क्या केवल टोकनिज़्म है?
27-Nov-2022 3:48 PM
गुजरात चुनाव: महिलाओं को टिकट देना क्या केवल टोकनिज़्म है?

-सुशीला सिंह

गुजरात की 182 सीटों के लिए दो चरणों (एक और पांच दिसंबर) में मतदान होना है.
राज्य में पिछली बार अलग-अलग पार्टियों ने 22 महिलाओं को टिकट दिए थे. इस बार 40 महिलाएं मैदान में हैं.
बीजेपी की तरफ़ से 17 महिलाएं चुनाव लड़ने वाली हैं.
कांग्रेस ने 14 महिलाओं को टिकट दिए हैं.
आप की सात महिला उम्मीदवार हैं और ऑल इंडिया मजलिस-ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन या एआईएमआईएम की दो महिलाएं चुनाव लड़ेगीं.

महिलाओं की उम्मीदवारी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगभग हर रैली या भाषण में महिलाओं के मुद्दों को उठाते हैं और उनके सशक्तिकरण की बात ज़ोरशोर से करते हैं. हाल ही में उन्होंने गुजरात के अपने दो दिवसीय दौरे में कई स्कीमों की घोषणा भी की.

मोदी चाहें महिलाओं के बारे में जितनी भी बात करें लेकिन सच्चाई यह है कि पिछली बार के मुक़ाबले बीजेपी ने इस बार महिला उम्मीदवारों को सिर्फ़ पांच सीटें ज़्यादा दी हैं.

बीबीसी से बातचीत में प्रदेश बीजेपी प्रवक्ता डॉ यग्नेश दवे का कहना है कि राज्य में महिलाओं का राजनीति में आने का चलन कम है इसके हिसाब से बीजेपी ने बाक़ी पार्टियों से ज़्यादा सीट दी हैं और पिछले बार हुए चुनाव से भी ज़्यादा हैं.

वहीं कांग्रेस की बात की जाए तो पार्टी की उत्तरप्रदेश में महासचिव प्रियंका गांधी ने 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' का नारा दिया था और यूपी में महिलाओं को टिकट भी खुल के दिए गए लेकिन नतीजा फ़ीका रहा था. तो क्या गुजरात राज्य में कम टिकट देने का यही कारण बना?

इस पर प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता अमीबेन याग्निक ने बीबीसी से कहा कि प्रियंका गांधी ने यूपी में जो क़दम उठाया वो सराहनीय था पर अभी ये भी देखना पड़ता है कि महिलाएं कितनी सीट जीत सकती हैं और अभी इस दिशा में और काम करने की ज़रूरत है.

वे कहती हैं, ''अगर महिला उम्मीदवार पार्टी और लोगों के लिए काम करती है तो निश्चित रूप से उनके काम को सराहा जाता है. पार्टी भी ऐसी महिलाओं को प्राथमिकता देकर उन्हें ज़िम्मेदारी देती है.''

आम आदमी पार्टी दूसरी बार राज्य में विधानसभा चुनाव लड़ रही है.

पार्टी ने दिल्ली और पंजाब की तर्ज़ पर 300 यूनिट मुफ़्त बिजली, बेरोज़गारी भत्ता, महिलाओं को 1000 रुपए भत्ता आदि का वादा किया है तो हाल ही में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने एक रैली के दौरान कहा था कि वो सारे फ्रीबीज़ देगी जिसका आप वादा कर रही है. वहीं गृहणियों, शिक्षा, किसानों, स्वास्थय को लेकर आठ वचन जारी किए हैं.

बीजेपी ने भी अपाे संकल्प पत्र में कई वादे किए हैं.

बीजेपी ने कहा है कि अगर वो सत्ता में वापस आएगी तो आयुष्मान भारत के तहत दिया जाने वाला हेल्थ कवर पांच लाख से बढ़ा कर 10 लाख किया जाएगा. एससी, एसटी और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों को टॉप रैंकिक कॉलेज में दाख़िला होने पर 50 हज़ार रुपये दिए जाएंगे.

साथ ही पार्टी ने लड़कियों के लिए स्कूल, केजी से लेकर पीजी तक मुफ़्त शिक्षा, शारदा मेहता योजना, वरिष्ठ महिलाओं के लिए फ़्री बस सेवा और अगले पांच सालो में एक लाख सरकारी नौकरियां लाने का भी संकल्प पत्र में वादा किया है.

क्या हैं मुद्दे?

जानकारों के मुताबिक़ गुजरात चुनाव में आम आदमी पार्टी, बीजेपी और कांग्रेस की कई सीटों पर सेंध मारने का काम कर सकती है.

वरिष्ठ पत्रकार अजय उमट का कहना है कि राज्य में मंहगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे को लेकर लोगों में नाराज़गी है और उनके अनुसार इसका असर वोटिंग प्रतिशत पर पड़ सकता है.

गुजरात में साल 1995 में बीजेपी सत्ता में आई थी और इसके बाद खिला कमल अब तक यानी 2022 तक नहीं मुरझाया है.

पत्रकार अजय उमट, अलग-अलग पार्टियों की तरफ़ से महिलाओं को दिए गए टिकट को टोकेनिज़्म की तरह देखते हैं और कहते हैं कि सत्ताधारी पार्टी ने आठ प्रतिशत से भी कम महिलाओं को टिकट दिया है, कांग्रेस और आप में वो संख्या और कम हैं.

राज्य में पंचमहल ज़िले की मोरवा हदफ़ एक ऐसी सीट है जिस पर बीजेपी और कांग्रेस दोनों की तरफ़ से महिला उम्मीदवार एक दूसरे के आमने-सामने हैं. ये एक आदिवासी आरक्षित सीट है.

अजय उमट के अनुसार, ''गुजरात में अगर महिलाओं के मुद्दों की बात की जाए तो यहां रोज़गार में महिलाओं की हिस्सेदारी कम है, लिंग अनुपात की बात की जाए तो ये बहुत ख़राब है.''

वे बताते हैं, ''इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि राजधानी गांधीनगर से क़रीब 40 किलोमीटर दूर के गांव में इस मामले में स्थिति बहुत ख़राब है. वहीं लड़कियों का स्कूलों से ड्रॉप आउट भी मामला है. वहीं आदिवासी इलाक़ों में मानव तस्करी भी एक बड़ा मामला है लेकिन इस मुद्दे को कोई पार्टी तवज्जो नहीं दे रही है.''

ख़राब लिंग अनुपात और ड्रॉप आउट

वरिष्ठ पत्रकार दिपल त्रिवेदी कहती हैं कि गुजरात एक ऐसा राज्य है जहां लड़कियों या महिलाओं की सुरक्षा मुद्दा कभी नहीं रहा और इसका कारण शराबबंदी का क़ानून हो सकता है.

गुजरात निषेध (संशोधित) बिल 2017, विधानसभा में पारित किया गया था और इस बारे में जारी की गई सरकारी प्रेस विज्ञप्ति के ज़रिए बताया गया था कि राज्य सरकार एक निगरानी सेल बनाएगी जिसका काम शराबबंदी को लागू करना होगा.

उनके अनुसार राज्य में महिला की प्रति व्यक्ति आय देखी जाए तो देश के कई राज्यों से कहीं ज़्यादा है. लेकिन विरोधाभास ये है कि महिलाओं में कुपोषण कहीं ज़्यादा है और कोई भी राजनीतिक पार्टी इन मुद्दों को नहीं उठाती है.

ग़ौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओं का नारा दिया था जिसका असर भी हुआ है लेकिन गुजरात में कारगर होता क्यों नहीं दिखता?

इस पर डॉ यग्नेश दवे कहते हैं, ''राज्य में लिंग अनुपात में सुधार हुआ है और इसमें मोदीजी के बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओं अभियान ने ही काम किया है. वहीं कुपोषण में सुधार हुआ है.''

इस पर अजय उमट समाज में मौजूद पितृसत्तात्मक सोच को कारण बताते है और कहते हैं कि यहां लव जिहाद जैसे मुद्दे ज़्यादा मुखर होकर नज़र आते हैं. साथ ही आदिवासियों के विकास की बातें भी कम ही होती हैं.

वहीं दिपल त्रिवेदी कहती हैं कि गुजरात में महिलाओं की सोच बहुत ही प्रगतिशील रही है.

उनके अनुसार, ''सरदार वल्लभभाई पटेल की बेटी मणिबेन उस ज़माने में साइकिल लेकर कॉलेज जाती थीं जब पुरुष तक साइकिल नहीं चलाते थे लेकिन राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात करें तो बहुत कम दिखाई देता है.''

वो मानती हैं कि राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व ज़्यादा होना चाहिए ताकि उनके मुद्दों को और बल मिल सके.

वे मानती हैं कि यहां लिंग अनुपात मुद्दा है लेकिन बीजेपी को इस बात के लिए क्रेडिट दिया जा सकता है, वो लड़कियों को स्कूल लाने में कामयाब रही है यानी ड्राप आउट में सुधार हुआ है. साथ ही वे मानती हैं कि पानी की समस्या भी सुधरी है.

भारत में साल 2011 की जनगणना के अनुसार गुजरात में 1000 पुरुषों की तुलना में 919 महिलाएं हैं. हालांकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफ़एचएस-5) में इसमें सुधार देखा गया.

एनएफ़एचएस-5 (2019-2020) के आंकड़ों के मुताबिक़ 1000 पुरुषों की तुलना में 965 महिलाएं हैं और शहरी इलाक़ों के मुक़ाबले ग्रामीण इलाक़ों में स्थिति बेहतर है.

हालांकि वो मानती हैं कि गुजरात में ज़मीनदार या ज़मीन के मालिक जो परिवार या समुदाय होते हैं उन परिवारों में लिंग अनुपात ख़राब देखा जाता है जैसे कि पटेल समुदाय.

इन समुदाय में आमधारणा यही होती है कि ज़मीन का मालिक मर्द होगा और फिर उसी से आगे वंश चलता रहेगा.

लेकिन अजय उमट मानते हैं कि कई क्लीनिक्स लिंग अनुपात को ख़राब करने में भूमिका निभा रहे हैं.

राजनीति में महिलाएं

प्रोफ़ेसर सोनल पंड्या का कहना है कि इन मामलों को लेकर आप कोई ख़बर नहीं पढ़ेंगे कि डॉक्टर के परिवार के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई की गई हो.

वो सवाल करती हैं, "तो क़ानून हो लेकिन उसको अमलीजामा न पहनाया जाए तो कैसे सुधार होगा?"

सोनल पंड्या गुजरात यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं और जेंडर मुद्दों पर लिखती भी हैं.

वे कहती हैं, "राज्यों में चुनाव का माहौल है और आप देख लीजिए की पोस्टर में कहीं आप को महिला प्रतिनिधि नहीं दिखाई देगी. उनके विधानसभा क्षेत्र में वो दिख सकती हैं लेकिन वैसे महिलाएं पोस्टर या कैंपेन से नदारद दिखती हैं. वहीं 24 मंत्रियों में केवल दो महिलाएं हैं. सारी पार्टियां हमारा परिवार की बात करती हैं लेकिन उनके परिवार में महिलाएं नहीं हैं."

वो कहती हैं कि जब महिलाओं के मुद्दों की बात आती है तो महिला प्रतिनिधि जेंडर मुद्दों की तुलना में पार्टी से ज़्यादा ईमानदार नज़र आती हैं. ऐसे में वो ये भी मानती हैं कि महिलाओं की संख्या बढ़ती है तो महिलाओं के मुद्दों को आवाज़ मिलेगी इससे वो सहमत नहीं हैं.

कृषि के क्षेत्र की बात की जाए तो राज्य में तक़रीबन 78 फ़ीसद महिलाएं खेतों में अलग-अलग काम करती है और क़रीब 16 फ़ीसद महिलाओं के नाम ज़मीन है लेकिन जब भी कृषि को लेकर नीतियां बनाई जाती हैं तो भाइओं(गुजराती में भाईयों) की बात ही की जाती है.

सोनल पंड्या कहती हैं कि पशुपालन उद्योग में भी महिलाएं हैं लेकिन इस बात को स्वीकार नहीं किया जा रहा है कि वो भी हैं.

जानकारों का कहना है कि पिछले कुछ दशकों से राज्य पानी की समस्या से जूझ रहा था हालांकि अब इसमें सुधार देखा गया है.

हालांकि बीजेपी का दावा है कि पीने का पानी घर-घर पहुंचा है और उसमें नर्मदा बांध को लेकर नरेंद्र मोदी द्वारा लिए गए फ़ैसले को लेकर सौराष्ट्र और कच्छ जैसे ऊंचाई वाले इलाक़ों में पानी पहुंचा है.

दिपल कहती हैं कि हर घर पानी तो नहीं पहुंचा लेकिन स्थिति बहुत सुधरी है.

बीबीसी गुजराती के संपादक दीपक चुडासमा का कहना है कि नर्मदा बांध की वजह से शहरी इलाक़ों और उससे जुड़े गांवों तक तो पीने का पानी ज़रूर पहुंचा है लेकिन दूरदराज़ के इलाक़े ऐसे हैं जहां अभी भी पीने का पानी समस्या हैे.

उनके अनुसार यह दिक़्क़त गर्मियों में और बढ़ जाती है और महिलाओं को पानी के लिए जाना पड़ता है.

लेकिन इसका श्रेय वो राजनीतिक पार्टियां को नहीं बल्कि महिला मंडलियों और पंचायत स्तर पर महिलाओं को देती हैं कि निचले स्तर पर इन महिलाओं ने इन मुद्दों को उठाया और पार्टियों को पानी के लिए क़दम उठाने को लेकर मजबूर किया.

दिपल मानती हैं कि शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण औरतें ज़्यादा सशक्त हैं और वे महिलाएं मतदान के लिए आगे आती हैं. लेकिन विडंबना ये है कि महिलाओं की अहमयित न ही राजनीति और न ही समाज समझ रहा है.

जानकारों के अनुसार आज़ादी के समय से देखें तो अनसुयाबेन साराभाई, पूर्णिमाबेन पकवासा और हंसा मेहता ऐसी महिलाएं थी जिन्होंने राजनीति और समाजिक जीवन में मिसाल पेश की.

आज के दौर में भी महिलाएं कृषि, पशुपालन और अन्य उद्योगों में अहम भूमिका निभा रही हैं और अर्थव्यवस्था में अहम योगदान दे रही हैं लेकिन राजनीति की बिसात में वो कहीं पीछे नज़र आती हैं. (bbc.com/hindi)

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