ताजा खबर

ब्रिटेन : अर्थव्यवस्था पर छाया है ब्रेक्जिट का साया
01-Dec-2022 10:23 PM
ब्रिटेन : अर्थव्यवस्था पर छाया है ब्रेक्जिट का साया

ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था पर मंडराते संकट के बादलों की कई तात्कालिक वजहें हैं लेकिन इन परिस्थितियों की जड़ में है ब्रेक्जिट का स्थायी और दूरगामी नकारात्मक असर.

   डॉयचे वैले पर स्वाति बक्शी तिवारी का लिखा-

 

ब्रिटेन के सुपर बाजारों से नदारद सामान और खाली रैक अर्थव्यवस्था के बड़े संकट की छोटी तस्वीर दिखा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्था-आर्थिक सहयोग और विकास संगठन ने हाल ही में कहा है कि दुनिया के सात सबसे अमीर देशों में ब्रिटेन अकेला है जिसकी अर्थव्यवस्था साल 2023 में और सिकुड़ जाएगी। देश की कंजरवेटिव सरकार भले ही इसे पूरी तरह रूस-यूक्रेन युद्ध से जोडक़र दिखा रही है लेकिन अर्थव्यवस्था के कुछ खास क्षेत्रों जैसे खाद्य वस्तुओं की कमी का सीधा संबंध ब्रेक्जिट से है।

करीब दो साल पहले यूरोपीय संघ से विदाई के बाद से ही इस बात की चिंताएं जाहिर की जाती रही हैं कि ब्रिटेन खाद्य संकट के संघर्ष भरे दौर में प्रवेश कर रहा है। सरकारी खर्च में कटौती और टैक्स में बढ़ोतरी के जरिए हालात पर काबू पाने की कोशिशें हो रही हैं लेकिन जानकार मानते हैं कि इस संकट के मूल में अगर कोई एक कारक है तो वो ब्रेक्जिट है।
खाद्य आपूर्ति संकट
दरअसल बाजार से गायब खाद्य सामग्री, ब्रेक्जिट के बाद उपजी सप्लाई चेन से जुड़ी दिक्कतों का मूर्त रूप है। इसमें खाना उगाने से लेकर उसे बाजार तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया के विविध चरण शामिल हैं। यूरोपीय नागरिकों के लिए ब्रिटेन में रहने और काम करने के नियमों के नये ढांचे ने श्रम-बाजार का संकट खड़ा कर दिया जो लगातार जारी है। इस श्रम-संकट का सबसे ज्यादा असर झेलने वालों में खाने-पीने से जुड़े व्यवसाय जैसे होटल, सामान पहुंचाने की प्रक्रिया में शामिल व्यावसायिक ट्रक ड्राइवर, फल-सब्जियां उगाने वाले उद्योग व किसान शामिल हैं।

ब्रिटेन में खाने-पीने के सामान की आपूर्ति के लिए आयात पर निर्भरता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2020 में खाद्य वस्तुओं के करीब 46 फीसदी हिस्से का आयात हुआ। यूरोपियन यूनियन ब्रिटेन का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। खासकर फल-सब्जियों और मांस का आयात यूरोपीय देशों से होता आया है।

यूरोपीय संघ की एकीकृत बाजार व्यवस्था से बाहर आने के बाद से ही सीमा पार ट्रकों की आवाजाही की दिक्कतों ने खाद्य सामान का संकट पैदा किया। कोविड के दौरान ड्राइवरों की भयंकर कमी और ब्रेक्जिट के बाद कागजात की बदली जरूरतों ने हालात को और जटिल बनाया। ब्रिटेन के भीतर सामान पहुंचाने के लिए जरूरी ड्राइवरों की संख्या जरूरत से तकरीबन एक लाख कम है। यानी सामान को बाजारों तक पहुंचने की प्रक्रिया में तगड़ी दिक्कतें हैं।

खेतीहर कामगारों की कमी
वीजा व्यवस्था में हुए बदलावों ने खेतीहर कामगारों का भी बड़ा संकट पैदा किया है जिसका बुरा असर फल-सब्जियों की खेती पर हुआ है। उदाहरण के लिए नर्म फलों को चुनने के लिए यूरोपीय कामगारों पर परंपरागत निर्भरता के चलते तुरत-फुरत में देसी मानवीय संसाधन जुटाना संभव नहीं है। इसी तरह मांस से जुड़े व्यवसायों में कसाइयों समेत मांस प्रसंस्करण से जुड़े कामगारों की बेहद कमी दर्ज की गई। कोविड के दौरान यूरोपीय कामगार अपने देश वापस चले गए और वापसी में आड़े आया महामारी के साथ ब्रेक्जिट के नियम-कायदों का नया दौर।

सितंबर 2021 में एक गैर-सरकारी संगठन इंस्टिट्यूट फॉर गवर्नमेंट के एक कार्यक्रम में ब्रिटेन की फूड ऐंड ड्रिंक एसोसिएशन के प्रमुख इयन राइट ने चेताया था कि ब्रिटेन की खाद्य आपूर्ति चेन में करीब 5 लाख कामगारों की कमी है। सीमाओं पर पहले जहां व्यापारिक संबंधों में आसानियां थीं वहां अब लालफीताशाही और कानूनों का बोलबाला है। यूरोपियन यूनियन से लोगों को नौकरी पर रखना अब आसान नहीं है। सीमाएं पार कर काम ढूंढने की स्वतंत्रता के साथ ही अब यूरोपीय नागरिकों के लिए भी, अन्य देशों के नागिरकों की तरह अंग्रेजी भाषा ज्ञान और तनख्वाह के मानकों की कसौटी लागू होती है। वर्तमान संकट की जड़ में ये सब अहम कारक हैं।


रूस-यूक्रेन युद्ध ने पहले से ही पस्त अर्थव्यवस्था पर ऊर्जा संकट का बोझ डालकर हालात को इतना चिंताजनक बना दिया कि नए प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के सत्ता संभालते ही सरकारी खर्च में कटौती के कायदे-कानून लागू करने की नौबत पैदा हो गई।


ब्रेक्जिट पर सरकारी चुप्पी
आर्थिक दिक्कतें ब्रिटेन की यूरोपीय संघ से विदाई के नकारात्मक असर के सूबूत भले ही दे रही हों लेकिन सरकार उस पर जुबान खोलने को तैयार नहीं है। ऋषि सुनक और चांसलर जेरमी हंट लगातार इस बात पर जोर देते रहे हैं कि ब्रिटेन का घरेलू संकट दरअसल वैश्विक संकट का असर है लेकिन विशेषज्ञों की राय अलग है। ब्लूमबर्ग टीवी को दिए एक इंटरव्यू में बैंक ऑफ इंग्लैंड की वित्तीय नीति कमेटी के पूर्व सदस्य माइकल सॉन्डर्स ने कहा कि ‘ब्रेक्जिट की वजह से ब्रिटेन को सरकारी खर्च में कटौती के दौर में प्रवेश करना पड़ रहा है। ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को ब्रेक्जिट की वजह से स्थायी आघात पहुंचा है।’


चाहे पक्ष हो या विपक्ष, इस बहस को हवा देने का जोखिम कोई उठाने को तैयार नहीं है। चांसलर हंट ने नवंबर में अपने संसदीय भाषण में तमाम आर्थिक दिक्कतों और लोगों के दैनिक-जीवन पर उसके असर का जिक्र करते हुए सिर्फ एक बार ब्रेक्जिट का नाम लिया। इससे पहले लेबर पार्टी ने सितंबर महीने में ये साफ किया कि पार्टी का इरादा यूरोपीय संघ के बाहर ब्रिटेन के लिए एक सकारात्मक दृष्टि पैदा करना है। लेबर नेता पीटर काइल ने ब्रेक्जिट पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में जोर देकर कहा कि ‘नकारात्मकता पर ध्यान लगाने, उसमें डूबे रहने से चुनाव नहीं जीता जा सकता’।


कुल मिलाकर ब्रिटेन में पैदा हुए आर्थिक संकट को ब्रेक्जिट से ना जोडऩे की रणनीतिक मजबूरी के पीछे पार्टियों की भीतरी राजनीति भी है। अगर ये बहस दोबारा छिड़ती है तो सत्ता और विपक्ष दोनों के भीतर गुटबाजी और उथल-पुथल मचने की पूरी आशंका है। हालांकि सरकारी खामोशी का मतलब ये नहीं कि लोगों की राय नहीं बदली है। गैर-सरकारी संगठन यूगव के ताजा सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि ब्रेक्जिट के हक में वोट करने वाले हर पांच में से एक व्यक्ति को अब लगता है कि उसका फैसला गलत था।


ब्रिटेन में ‘बीती ताहि बिसार दे' कि नीति पर चलने की चाहे जितनी कोशिश की जा रही हो लेकिन पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था आखिरकार सिर्फ नंबरों का खेल नहीं है। ब्रेक्जिट पर बहस हो या ना हो, उसकी कीमत आम इंसान हर दिन चुका रहा है। (dw.com)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news