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स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी की 'अर्थ': ज़िंदगी के मायने तलाशती दो औरतों की दास्तां
04-Dec-2022 11:46 AM
स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी की 'अर्थ': ज़िंदगी के मायने तलाशती दो औरतों की दास्तां

-वंदना

एक शादी, दो रिश्ते और दो औरतें- पूजा जो बचपन से अनाथ थी और शादी हो जाने के बाद पति इंदर ही उसकी दुनिया है और दूसरी कविता जो सुपरस्टार है, लेकिन अंदर से ख़ुद को एकदम असुरक्षित और खोखला महसूस करती है, उसकी ज़िंदगी में प्यार तो है लेकिन वो प्यार दुनिया की नज़रों में नाजायज़ है.

इन दोनों को तोड़ने और जोड़ने वाला धागा है इंदर (कुलभूषण खरबंदा) जो पत्नी पूजा (शबाना आज़मी) से अपनी 'बेवफ़ाई' की सफ़ाई कुछ इस तरह देता है, "मैंने तुमसे प्यार करना नहीं छोड़ा पूजा. फ़र्क़ इतना पड़ गया है कि मैं कविता (स्मिता पाटिल) से भी प्यार करता हूँ."

रिश्तों के इस भंवर में ज़िंदगी का अर्थ खोजती इन दोनों औरतों की ही कहानी है फ़िल्म 'अर्थ', जो 40 साल पहले तीन दिसंबर, 1982 को रिलीज़ हुई थी.

अर्थ है लैंडमार्क फ़िल्म
महेश भट्ट की ये फ़िल्म हिंदी सिनेमा की एक लैंडमार्क फ़िल्म समझी जाती है, खास तौर पर ऐसी इंडस्ट्री में जहाँ ज़्यादातर कहानियाँ मर्दाना नज़रिए से ही लिखी जाती थीं.

लेकिन अर्थ जिस संवेदनशीलता, जिस नज़ाकत, जिस सफ़ाई, जिस साहस के साथ औरत के जज़्बात और उसके सफ़र को परत-दर-परत दिखाती है वो 80 के दशक के लिए बड़ी बात थी जहाँ 'डिस्को डांसर' से लेकर 'मर्द' जैसी मेनस्ट्रीम फ़िल्में बन रही थीं.

ये बात राज़ नहीं है कि 'अर्थ' महेश भट्ट की असल ज़िंदगी से ली हुई कहानी है जिसमें काल्पनिकता जोड़कर उसे फ़िल्म के तौर पर बनाया गया था.

इसमें महेश भट्ट की ज़िंदगी का वो हिस्सा है जब लॉरेन ब्राइट से शादी के बावजूद उन्होंने परवीन बॉबी से रिश्ता बनाया जो बाद में स्कित्ज़ोफ़्रिनीया की शिकार हो गईं और वो रिश्ता टूट गया.

औरत की सामाजिक कंडिशनिंग
फ़िल्म में शबाना ने उस स्त्री के किरदार की एक-एक परत को बहुत बारीकी से निभाया है जो कई औरतों की तरह भावनात्मक, मानसिक और आर्थिक तौर पर पूरी तरह अपने पति पर निर्भर है.

जब उसे पता चलता है कि उसका पति का रिश्ता किसी और के साथ है तो उसका रिएक्शन उसे भला-बुरा कहना नहीं होता बल्कि वो उसके सामने गिड़गिड़ाती है, "मुझसे क्या ग़लती हो गई इंदर. जो कमी थी कोशिश करूँगी वो न रहे. लेकिन एक मौका और दे दो."

पूजा मल्होत्रा (शबाना) की सामाजिक कंडिशनिंग और उसके जीवन का अर्थ यही है कि शायद कमी उसी में रही होगी.

लेकिन ये फ़िल्म दिखाती है कि कैसे वो इस रिश्ते से बाहर निकलती है और धीरे -धीरे ज़िंदगी का अर्थ समझती है. लेकिन यहाँ तक पहुँचने के लिए वो कई पड़ावों से गुज़रती है और यही पड़ाव फ़िल्म अर्थ की असली सुंदरता है. ये बदलाव रातों-रात नहीं होता. अर्थ दरअसल इस बदलाव की ही दास्तां है.

स्मिता का संवेदनशील अभिनय
शबाना के सफ़र का पहला पड़ाव वो है जहाँ वो आँसू बहाती है, अपने गुरूर को एक तरफ़ रखते हुए कविता (स्मिता पाटिल ) के सामने गिड़गिड़ाती है.

ग़ुस्से और हताशा में शराब के नशे में धुत्त होकर पार्टी में कविता (स्मिता) के साथ जो बर्ताव करती है और जिन शब्दों का इस्तेमाल करती है, उस पर उसे ख़ुद भी यक़ीन नहीं होता.

स्मिता और शबाना के बीच टकराव वाला ये सीन दोनों के बीच फ़िल्म के दो बेहतरीन दृश्यों में से है. नशे में चूर शबाना का पल्लू उस सीन में गिर जाता है, लेकिन उस वक़्त उसे किसी बात का होश नहीं होता.

महेश भट्ट बताते हैं कि ये इत्तेफ़ाक़न हुआ था लेकिन वो सीन अश्लील नहीं लगता बल्कि इस पल की इन्टेसिटी को दिखाता है जहाँ एक सुपरस्टार (स्मिता पाटिल) सहमी चुपचाप खड़ी है और एक औरत (शबाना) जिसकी आवाज़ आज तक घर के बाहर तक नहीं गई, वो आज सुधबुध खोकर घर से बाहर आवाज़ उठा रही है.

परवीन बॉबी और महेश भट्ट का रिश्ता
अर्थ यूँ तो पूजा की कहानी है, लेकिन दूसरी औरत बनी कविता यानी स्मिता की कहानी को भी उसके नज़रिए से बताने की कोशिश करती है, ख़ास तौर पर उसकी असुरक्षा की भावना और उसकी नाज़ुक इमोशनल स्थिति को खंगालती है.

ये हिस्सा परवीन बॉबी और महेश भट्ट के रिश्ते से लिया गया है. ये वो समय था जब स्मिता पाटिल और राज बब्बर असल ज़िंदगी में रिश्ते में थे और राज बब्बर पहले से शादीशुदा थे.

पत्रिका फ़िल्मफेयर को 2018 में दिए इंटरव्यू में महेश भट्ट ने कहा था, "अगर मुझसे पूछें कि क्या स्क्रीन पर दूसरी औरत का रोल करने से स्मिता पर असर पड़ रहा था तो वो मुझसे कहती थीं, रात को तो मुझे ये दोहरी ज़िंदगी जीनी ही पड़ती है. अब दिन में भी यही शूट करना पड़ रहा है. कोई राहत नहीं है. मैं कहीं पागल न हो जाऊँ. तुम अपने अतीत से लड़ रहे हो और मैं अपने सवालों से."

'मैं अपना घर बसाना चाहती थी, तुम्हारा घर उजाड़ना नहीं'
फ़िल्म अर्थ का एक सीन है जहाँ स्मिता पाटिल ने दूसरी औरत के डर, उसके अंदर की असुरक्षा और बिगड़ती मेंटल हेल्थ को बड़ी संवेदनशीलता के साथ पर्दे पर उतारा है.

मनोचिकित्सक की सलाह पर शबाना स्मिता के घर उनसे मिलने आती हैं ताकि स्मिता अपने काल्पनिक डर का सामना कर सकें.

दोनों के बीच का संवाद सचमुच बहुत मार्मिक है, ग्लानि में घुलती जा रही स्मिता शबाना से कहती है, "मैं इंदर को चाहती हूँ, तुम्हारे पति को नहीं. मैं अपना घर बसाना चाहती थी, तुम्हारा घर उजाड़ना नहीं."

और बदले में शबाना उसे दिलासा देते हुए कहती है, "मेरा घर था ही नहीं, तुमने कुछ नहीं उजाड़ा..."

यहाँ दरअसल स्मिता के अंदर का गिल्ट उसे तिल-तिल मार रहा है, वहीं शबाना अब धीरे-धीरे उस दहलीज़ तक पहुँच चुकी है जहाँ वो स्मिता रूपी सच और ज़िंदगी का सामना हिम्मत और शालीनता से कर सकती है, शराब और गाली-गलौज से नहीं.

हालांकि पूरी तरह अपने पैरों पर खड़े होने के लिए अभी वो तैयार नहीं है.

तभी तो वो इससे पहले इंदर (कुलभूषण) को ख़त लिखती है, "घर की चाबी और कैश भेज रही हूँ. तुम्हारी कविता की ज़िंदगी से जा रही हूँ. तुम्हारी ज़िंदगी से नहीं. तुमसे जुदा होकर जीना तो आता ही नहीं मुझे. जब कभी मेरी ज़रूरत महसूस करो मैं हूँ, रहूँगी."

यानी वो गिड़गिड़ाने वाले पड़ाव से निकलकर अब उस पड़ाव पर आ चुकी है जहाँ उसे अपने स्वाभिमान को ताक पर रखना मंज़ूर नहीं है.

अर्थ में रास्ता तो ख़ुद शबाना को ही तय करना है लेकिन बदलाव के लिए कैटेलिस्ट का काम करते हैं राजकिरण, जो एक ग़ज़ल गायक हैं जो ख़ुद बेरोज़गार हैं, लेकिन शबाना के दोस्त और उसकी हिम्मत बन जाते हैं.

पार्टी में पहली मुलाक़ात में ही जैसे राज पूजा को समझने लग जाता है. तभी जब पार्टी में उदास पर मुस्कुराती पूजा को देखता है तो कहता है, "अगर आप थक गई हों तो मुस्कुराना बंद कर दीजिए."

फ़िल्म की कहानी और एक्टिंग के अलावा फ़िल्म की एक दूसरी बड़ी ताक़त इसके गीत और संगीत है. फ़िल्म के ज़्यादातर गीत कैफ़ी आज़मी ने लिखे.

जगजीत सिंह और चित्रा सिंह की ग़ज़लें फ़िल्म की रूह हैं और ज़हन में बहुत सारे सवाल भी छोड़ जाती हैं.

प्यार को जीवन का अंतिम सत्य मानने वाली कसमों के बीच जगजीत पूछते हैं, "कहते हैं प्यार का रिश्ता है जनम का रिश्ता, है जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यूँ है?..."

ये प्यार के स्थाई होने पर सवाल खड़ा करता है. और ज़िंदगी के अकेलेपन को वो यूँ आवाज़ देते हैं, "कोई ये कैसे बताए के वो तनहा क्यूँ है? वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यूँ है?"

'कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यों है'- ये ग़ज़ल ज़िंदगी के एकाकीपन के नाम एक पैग़ाम है.

स्मिता बनाम शबाना
फ़िल्म अर्थ के बाद ये बहस लगातार चलती रही कि शबाना या स्मिता में से किसने बेहतर काम किया.

फ़िल्म का एक असरदार सीन वो है जहाँ स्मिता पाटिल एक दिन कुलभूषण खरबंदा से कह देती है, "जो शादी सात साल में उसे (शबाना) कोई सिक्योरिटी नहीं दे सकी वो मुझे क्या देगी."

अपने ही काल्पनिक डर, मानसिक बीमारी और गिल्ट में क़ैद स्मिता के इस सीन के बारे में महेश भट्ट ने कहा था फ़िल्म में स्मिता का काम एक 'ज़ख़्म से उपजे' विस्फोट की तरह था, एक ऐसा घाव जो उस वक़्त हरा था.

फ़िल्म समीक्षक अजय राय बताते हैं, "शबाना आज़मी और स्मिता दोनों ने अपने अपने ढंग से अपना रोल बख़ूबी निभाया. स्मिता पाटिल ने एक महत्वाकांक्षी हीरोइन का रोल किया जो चंचल हैं, भटक रही है और शॉर्ट टेंपर है. दूसरी ओर, शबाना धीर-गंभीर शबाना थीं. दोनों का रोल एक दूसरे से एकदम अलग था लेकिन दोनों ने बेहतरीन काम किया. मुझे लगता है अर्थ हमेशा एक सार्थक फ़िल्म बनी रहेगी क्योंकि आज भी भारतीय समाज में औरतों को लेकर समस्याएँ मौजूद हैं और इस तरह के विषयों पर अर्थपूर्ण फ़िल्में कम देखने को मिलती हैं."

जब सुषमा स्वराज ने की शबाना की तारीफ़
पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का एक पुराना वीडियो काफ़ी वायरल है जिसमें उनसे पूछा गया था कि उनकी पंसदीदा अभिनेत्री कौन है.

उनका जवाब कुछ यूँ था, "शबाना आज़मी, ख़ास तौर पर अर्थ में. शबाना और स्मिता दोनों के रोल बहुत कठिन थे. अंत तक आप तय नहीं कर पाते कि कौन बेहतर है. अर्थ से पहले भी मानवीय रिश्तों पर फ़िल्में बनीं है लेकिन आम तौर पर यही होता है कि जब थिएटर से लोग निकल कर जाएँ तो फ़िल्म में जुदा हुए लोग मिल चुके होते हैं. अंत हमेशा हैप्पी करते हैं फ़िल्म में लेकिन अर्थ अकेली फ़िल्म है जिसमें कुलभूषण पूछते हैं शबाना से कि तुम मुझे माफ़ कर दो, पर ऐसा नहीं होता. ये कमाल था."

'तुम्हारी ज़िंदगी का कोई अर्थ है या नहीं...'

अर्थ का अंत कई मायनों में रैडिकल माना जाता है फिर वो पति पत्नी के रिश्ते का अंजाम हो या राज किरण के साथ दोस्ती का.

पति के छोड़ देने के बाद अर्थ में शबाना के पास राज किरन की दोस्ती ही है जो हमदर्दी और प्यार की बीच कहीं अपनी जगह तलाश रही है.

जब तलाक़ के बाद शबाना पूजा मल्होत्रा से पूजा बन जाती है तो ये राज ही हैं जो उन्हें समझाते हैं, "कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ है. बस मल्होत्रा हट जाने वाला है. पूजा तो अपने आप में पूरी है. आज ही तो जन्म हुआ है असली पूजा का."

ज़िंदगी में चोट खाई शबाना जब ख़ुद को सारे रिश्तों से काट लेती है तो यही राज उससे पूछने की हिम्मत रखता है- तुम्हारी ज़िंदगी का कोई अर्थ है या नहीं ये फ़ैसला मेरे लिए न सही कम से कम अपने लिए तो करना ही होगा.

यानी हर पल शबाना उस तरफ़ बढ़ रही है जहाँ उसे अपनी ज़िंदगी का अर्थ खोजना है.

घरेलू हिंसा पर भी बात करती है अर्थ
अर्थ सिर्फ़ पूजा और कविता की ही कहानी नहीं है. ये स्टेटस और जाति से ऊपर उठकर तमाम औरतों की कहानी भी बयां करती है जो किसी न किसी स्तर पर अपनी जंग लड़ रही हैं.

फ़िल्म में एक छोटा लेकिन अहम रोल है रोहिनी हट्टगिड़ी का जो शबाना के यहाँ काम करती हैं- जिसके पति की एक दूसरी औरत है, शराब पीकर वो उसे पीटता है. लेकिन वो बाई अपनी छोटी बच्ची को पढ़ाना चाहती है. समय पड़ने पर शबाना उसके लिए आवाज़ भी उठाती है.

जब पति के छोड़ने के बाद शबाना ख़ुद बेसहारा महसूस करती है वही बाई उसका हाथ थामते हुए कहती है- मैं रहूँगी न इसके साथ.

एक दिन हालात बेकाबू हो जाने पर जब बाई अपने पति का क़त्ल कर देती है तो शबाना उस दिन बच्ची को अपने पास रख लेती है.

इस फ़िल्म के क्लाइमेक्स को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है. एक वो लैंडमार्क सीन जब कुलभूषण खरबंदा ये कहते हुए शबाना के पास वापस आते हैं, "ये सच है कि मैं कभी कविता के पास लौटकर नहीं जाऊँगा. मैं नए सिरे से शुरुआत करना चाहता हूँ तुम्हारे साथ."

और शबाना पूछती है, "एक सच और बता दो. जो कुछ तुमने मेरे साथ किया अगर वही मैं तुम्हारे साथ करती और इसी तरह लौट कर आती तो क्या तुम मुझे वापस ले लेते ? गुड बाय इंदर."

इस तरह का पलटवार और तीखा सवाल करते हुए किसी हीरोइन को हिंदी सिनेमा दर्शकों ने बहुत कम ही देखा था. यानी अर्थ में पूजा मल्होत्रा से पूजा बनने का सफ़र लगभग पूरा होने को था. लेकिन ज़िंदगी के दूसरे छोर पर वो हमसफ़र (राज किरन) भी था जिसने पूजा का साथ तब दिया जब वो ख़ुद भी अपना साथ छोड़ चुकी थी.

फ़िल्म के क्लाइमेक्स का दूसरा लैंडमार्क सीन था जब शबाना राज किरण से कहती है, "एक दिन तुम्ही ने कहा था कि पूजा तुम अपने आप में पूरी हो. अपने नाम को हर नाम से अलग करके मैं आज पूजा बनकर ही जीना चाहती हूँ. तुमने हमेशा मुझे सहारा दिया लेकिन आज तुम्हारा सहारा मुझे कमज़ोर बना देगा."

और पलटकर राज कहता है, "जाओ पूजा. जो साहस तुम्हारे अंदर जागा है वही जीवन का सही अर्थ है. अब तुम्हे किसी मल्होत्रा या राज की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. पलट कर मत देखो."

और डूबते सूरज की किरणों के बीच सागर किनारे, बाई की गोद ली बच्ची के साथ शबाना का वो सीन किसी भी फ़िल्म के सबसे ख़ूबसूरत क्लाइमेक्स सीन में से एक है.

फ़िल्म समीक्षक अजय राय कहते हैं, "अर्थ की सबसी बड़ी ख़ूबी इसका क्लाइमेक्स था जो क्लासिक था, रियलिस्टिक था और औरतों की आज़ादी और स्वाभिमान के पक्ष में था. इसका अंतिम सीन है जब शबाना अपने पति के पास वापस जाने से मना कर देती. अब उसे किसी पति की ज़रूरत नहीं है. ये फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर हिट थी. मुझे याद है कि मैं पटना के अशोक सिनेमा हॉल में गया था फ़िल्म देखने और दो दिन तक हाउसफुल होने के कारण टिकट नहीं मिला था. एक ऐसी फ़िल्म जिसे आप कुछ कुछ पैरलल, अर्थपूर्ण और कला सिनेमा कह सकते हैं वो हाउसफ़ुल हो गई, ये बड़ी बात थी. ये एक स्त्री की पूर्णता की कहानी थी."

शायद कुलभूषण खरबंदा भी नहीं, वो ज़िंदगी में अपने लिए स्टैंड नहीं ले पाता. न स्मिता जो अपने हिस्से की ख़ुशी तलाश रही है.

दरअसल, अर्थ में हर कोई ही अपने हिस्से की ख़ुशियाँ ढूँढ रहा है लेकिन इन सबसे ऊपर उठकर और इन सब के बीच एक साधारण औरत है जो खुशियाँ ही नहीं ज़िंदगी का अर्थ भी तलाश लेती है.

इस फ़िल्म के लिए शबाना को नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड मिला था और महेश भट्ट को एक नई पहचान. स्मिता पाटिल ने राज बब्बर से शादी की जिनकी नादिरा से पहले शादी हो चुकी थी.

फ़िल्म अर्थ के ठीक चार साल बाद 31 साल की स्मिता पाटिल की अपने बेटे को जन्म देने के बाद मौत हो गई.

और फ़िल्म के कुछ सालों बाद राज किरण आश्चर्यचकित तरीक से कहीं ग़ायब हो गए. आख़िरकर वो ऋषि कपूर और दीप्ति नवल थे जिन्होनें उन्हें अमरीका में ढूँढने की बहुत कोशिश की और ऋषि कपूर ने 2011 में बताया कि राज किरण अमेरिका के एक मेंटल असाइलम में हैं लेकिन इसके आगे ऋषि उन तक नहीं पहुँच पाए.

इस बीच ऋषि कपूर की मौत हो गई और राज किरण की तलाश अधूरी है. (bbc.com/hindi)

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