विचार / लेख

इतिहास के पन्नों पर गुमनाम किरदारों की वापसी
05-Dec-2022 12:12 PM
इतिहास के पन्नों पर गुमनाम किरदारों की वापसी

आजादी की लड़ाई का दायरा उतना ही बड़ा है जितना बड़ा इस देश का भूगोल और उसकी संस्कृति। बंगाल की भवानी महतो उस समय भूमिगत क्रांतिकारियों के लिए खाना बनाती थीं जब सूबा विश्व-कुख्यात अकाल से जूझ रहा था। भवानी महतो का काम सिर्फ रसोई में खाना बनाना नहीं बल्कि खेतों में अनाज उपजाना भी था। मुख्यधारा की इतिहास की किताबों में भवानी महतो जैसी स्वतंत्रता सेनानियों के लिए तो जगह नहीं ही है बल्कि वे खुद भी नहीं मानती कि वे आजादी की लड़ाई जैसे किसी आंदोलन का हिस्सा रही हैं, क्योंकि यह उनके सहज जीवन और गृहस्थी से जुड़ा था। जिसे हम आजादी की लड़ाई कह रहे हैं वो उनके लिए बुनियादी काम था। देश की आजादी की कहानी किस तरह जंगलों, गांवों, गृहणियों, किसानों के बीच छुपी हुई है उसे खोजने की कोशिश है पी साईनाथ की किताब ‘द लास्ट हीरोज’। इन संदर्भों का इतिहास जानने के लिए  पी साईनाथ से अनिल अश्विनी शर्मा ने बातचीत की।

सवाल:  इतिहास की किताबों का नायक कौन होगा यह लिखने वाले पर निर्भर करता है। पिछले दशकों में इतिहास के कई केंद्र उभरे हैं और इतिहास की किताबों में हाशिए पर रखा गया तबका नए इतिहास लेखन की मांग कर रहा है। आप इसे कैसे देखते हैं?
उत्तर: अगर हम इतिहास की किताब पढ़ेंगे तो लगता है कि औपनिवेशिक गुलामी के खिलाफ आजादी की लड़ाई केवल उत्तर भारत में लड़ी गई। लेकिन, पूर्वी भारत में प्लासी युद्ध के तीन साल के अंदर-अंदर ही विद्रोह शुरू हो गया था। आदिवासी लोग ऐसे पहले स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ अपनी शहादत दी। पूर्वी भारत के जंगल महल में चुहाड़ विद्रोह हुआ, यह संघर्ष 1760 से 1806 ई. तक चला। वहीं 1857 के संग्राम के पहले भी संथाल विद्रोह हुआ था। इतिहास की मुख्यधारा की किताब में इन्हें बस छू भर दिया गया है। इन्हें पढऩे और समझने के लिए मुकम्मल जगह नहीं मिली। इतिहास की किताबों में जो स्वतंत्रता सेनानी अगुआई कर रहे हैं उनमें आक्सफोर्ड-कैंब्रिज से आने वाले लोग ही शामिल हैं। वास्तविकता यह है कि स्वतंत्रता की लड़ाई में देश के आमजनों ने संघर्ष किया। उनमें किसान, मजदूर, खानसामा, गृहिणी, कूरियर तक शामिल हैं। इन लोगों ने अपना सब कुछ ताक पर रख कर यह खतरा उठाया था। उनके साथ औपनिवेशिक सत्ता कुछ भी कर सकती थी। हर तरह के अत्याचार से लेकर उनकी हत्या तक हो सकती थी। ये अपने मन की आवाज से ही आजादी की मांग कर रहे थे। इन आम लोगों की चेतना के बिना आजादी की लड़ाई पूरी हो ही नहीं सकती थी। लेकिन इतिहास की किताबों में सिर्फ खास लोगों को जगह मिली।

सवाल: आपकी किताब में औपनिवेशिक आजादी के इतिहास को किस नजरिए से देखा गया है?
उत्तर- आज का युवा क्या पढ़ रहा है? आजादी का 75वां साल सरकार आजादी के अमृत महोत्सव के रूप में मना रही है। लेकिन आप गौर से सरकार की अमृतमहोत्सव की वेबसाइट देखेंगे तो पाएंगे कि वे स्वतंत्रता सेनानी जो आज भी जिंदा हैं उनके बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा गया है। सरकारों को भी जिंदा स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में पता है लेकिन सब खामोश हैं। मैंने 15 ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों से मुकालकात की। लेकिन, सरकारी वेबसाइट में देखिए तो बस प्रधानमंत्री का नाम छाया हुआ है। आप देश के किसी स्कूल या कालेज में जाकर देखें और पूछें कि आजादी की लड़ाई के नायकों के नाम बताएं तो सभी पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाए गए चार-पांच नामों की खानापूर्ति कर देंगे। अभी हालात ऐसे हैं कि हमारी नई पीढ़ी आजादी का अमृतमहोत्सव की वेबसाइट देखेगी तो उन्हें यही लगेगा कि प्रधानमंत्री ही हमारे स्वतंत्रता सेनानी हैं। क्या इतिहास ऐसे बनता है? मैं इस बात से चिंतित हूं कि अगले पांच या छह सालों में इस देश की आजादी के लिए लडऩे वाला एक भी व्यक्ति जीवित नहीं होगा। अभी सबसे कम्र उम्र के स्वतंत्रता सेनानी 97 साल के हैं तो सबसे बड़ी उम्र के 104 साल के हैं। युवा भारतीयों की नई पीढ़ी को भारत के स्वतंत्रता सेनानियों से कभी आमने-सामने मिलने, देखने, बोलने या सुनने का मौका नहीं मिलेगा। इसलिए मैंने भारत की इस युवा पीढ़ी के लिए यह पुस्तक लिखी है।

सवाल-किताब के किरदार चुनते वक्त आपकी प्राथमिकता क्या रही?
उत्तर- मैंने पूरी किताब में जितने चरित्रों से बातचीत की हैं उनमें उत्तर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण से लेकर पूर्वोत्तर सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व है। उत्तर भारत से केवल एक ही चरित्र को जानबूझ कर लिया है। किताब में दक्षिण से तीन, पश्चिम से तीन और पूर्व से आठ हैं। पंजाब से भगत सिंह जुग्यान हैं। फिर शोभाराम गहढ़वाल की बात है। कैप्टन बाउ पर आधारित फिल्म युवाओं को दिखाई तो वे रो पड़े कि हमारी आजादी के लिए लोगों ने कैसी कुर्बानी दी है। किताब में बंगाल की भवानी महतो का जिक्र है जो बंगाल के अकाल के समय क्रांतिकारियों के लिए खाने का इंतजाम कर रहीं थीं। आजाद भारत की युवा पीढ़ी को उनके इतिहास से वंचित किया जा रहा है, उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि आजादी की लड़ाई का दायरा कितना बड़ा है। किन-किन लोगों ने अपना सब कुछ कुर्बान कर देश की आजादी के लिए लडऩा चुना।

प्रश्न- आपने अपनी किताब में भवानी महतो के बारे में बताया है जो अपने पति और उनके साथियों के लिए खाना पहुंचाती थीं जो भूमिगत रहकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे। यहां हम देखते हैं कि किस तरह एक पूरा परिवार स्वतंत्रता सेनानी होता है। भवानी महतो से जब आप मिले तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी।

उत्तर- उनकी सादगी का यह आलम है कि अपने योगदान को मानती ही नहीं हैं। पश्चिम बंगाल के पुरलिया जिले की भवानी महतो की शादी मात्र नौ वर्ष में हो गई थी। शादी करने के बाद वे अपने स्वतंत्रता सेनानी पति और बीस से अधिक भूमिगत आंदोलनकारियों के लिए ढाई दशक तक खाना बनाती रहीं। इसके साथ ही अपने घर, खेत और मवेशी को भी संभाला। उनसे मैंने पूछा कि आपको भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़े होने का श्रेय मिलने पर कैसा लगता है? भवानी महतो ने कहा कि उससे या किसी भी दूसरे आंदोलन से मेरा क्या लेना-देना? भवानी आगे बताती हैं कि उस आंदोलन से मेरा कोई लेना-देना नहीं था, मेरे पति वैद्यनाथ महतो का जरूर था। मैं तो एक बड़े से परिवार की देखभाल करने में बहुत व्यस्त रहती थी। इतने सारे लोगों के लिए मुझे खाना बनाना पड़ता था। मेरा खाना बनाने का काम बढ़ता ही जाता। इसके साथ ही मुझे अपनी खेती व मवेशी भी देखने होते थे। फिर 1940 का दौर था जब बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। अब आज आप बंगाल के अकाल के समय की दुर्दशा याद कीजिए और देखिए कि एक स्त्री उतने सारे क्रांतिकारियों के लिए खाने का इंतजाम कर रही है। उसे सिर्फ खाना बनाना नहीं था बल्कि अनाज खेत से उपजाना भी था। और, इन्हें इस बात का इल्म भी नहीं कि वे देश की आजादी की भागीदार हैं।

सवाल: आजादी हासिल हुए 75 साल हो गए हैं। आजाद भारत में स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों को किस तरह देखते हैं?
जवाब: औपनिवेशिक लड़ाई का हासिल हमारे भारत के संविधान के सिद्धांतों में मिलता है। स्वतंत्रता संग्राम के बाद ही हमने हमारे संविधान का निर्माण किया। स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के मूल्य इसमें समाहित हैं। सबके लिए न्याय, आर्थिक और सामाजिक आजादी की बात इसमें की गई है। पिछले दिनों नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जो स्वत: स्फूर्त नागरिक आंदोलन हुआ वह संविधान के इन्हीं बुनियादी मूल्यों की मांग को लेकर हुआ था। हम तकनीकी रूप से सिर्फ औपनिवेशिक स्वाधीनता हासिल कर पाए हैं। अभी आर्थिक, सामाजिक आजादी हासिल करना बाकी है।

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