विचार / लेख
दलित सामाजिक वैचारिकी को राष्ट्रीय स्तर पर वाचाल करने का दारोमदार मुख्यतः डाॅ. भीमराव अम्बेडकर पर है। हिन्दू धर्म की रूढ़ियों से पीड़ित अम्बेडकर ने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उससे समतामूलक समाज भूमि पर खड़ा होने का मौका दलित वर्ग को मिला। अम्बेडकर ने दो टूक कहा उन्हें अनुकूल तत्व हिन्दू धर्म में दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि वह जाति प्रथा की गिरफ्त में है। हिन्दू धर्म पर आक्रमण के पीछे बुद्ध की शिक्षाओं के अलावा पष्चिम के ज्ञानशास्त्र से उपजा नवउदारवाद भी था।
जाति-समस्या हिन्दू धर्म की आंतरिकता ही हो गई है। उसका ज़हर दलितों में वर्षों से घुल रहा है। गांधी तक सोचते थे समाज के कथित उच्च वर्गों की जिम्मेदारी है कि दलितों को सामाजिक रूप से काबिल बनाने बढ़ें। विवेकानन्द और गांधी के अनोखे और पुरअसर तर्क थे कि जाति प्रथा और वर्णाश्रम व्यवस्था के सकारात्मक पक्ष भी हैं। उन्हें ठीक से समझा नहीं गया है। अम्बेडकर ने यह तर्क कतई मंजूर नहीं किया। उन्होंने जाति प्रथा की सड़ी गली रूढ़ि के खिलाफ जेहाद फूंका।
इसमें शक नहीं भारत में धर्म एक प्रमुख सामाजिक ताकत, ज़रूरत और उपस्थिति है। धर्म का झुनझुना बजाकर लोगों को ग़ाफिल किया जाता है। शंख बजाकर लोगों में घबराहट पैदा की जाती है। राजनीति में धर्म का इस्तेमाल नहीं करने के वायदे के बावजूद धर्म ने राजनीति को खिलौना बना लिया है। उसके समर्थन में हिन्दू मान्यताओं का फतवा दिया जाता है।
दलित और स्त्रियां मिलकर देश की आधी से ज्यादा आबादी हैं। अम्बेडकर इन मुफलिसों को ऐसे पड़ाव पर खड़ा कर देना चाहते थे जो नई राह का प्रस्थानबिन्दु हो। सावधानी चुस्ती और चालाकी के कारण राजसत्ता सदैव उच्च वर्गों के हाथ ही रही। दलित, आदिवासी, पिछड़ों को सामाजिक, धार्मिक और निजी आयोजनों में साथ बैठने, भोजन करने और बराबरी के आधार पर सम्मान के अवसर देने की परंपरा हिन्दू धर्म में अम्बेडकर को नहीं दिखी। संघ परिवार इस बात की कभी ताईद नहीं करेगा कि वह अपने खास सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों में दलितों और आदिवासियों को सम्मानजनक बराबरी के साथ भागीदारी करके दिखा दे। जातिवाद के चलते वैवाहिक रिश्तों, शिक्षा, इलाज और अन्य सामाजिक स्थितियों में ढाक के तीन पात हैं। ऐसा नहीं है कि अम्बेडकर ने समाज के लिए धर्म की आवश्यकता प्रतिपादित नहीं की।
तल्ख चिंतकों में कार्ल मार्क्स के बाद डाॅ. भीमराव अम्बेडकर के दर्शन में करुणा की कविता के साथ धारदार तर्क भी हैं। गांधी के आग्रह पर अम्बेडकर और डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को संविधान सभा में सम्मानजनक ढंग से शामिल किया गया। गांधी और अम्बेडकर दोनों की लेकिन दुर्गति है कि उनके शिष्य या तो अंधश्रद्धा के कायल हैं अथवा उनकी उपेक्षा करते हैं। अम्बेडकर पुरअसर दिमाग थे और दलितों के लिए दिल भी। अम्बेडकर मंे पैने तर्कों के संवैधानिक नश्तर बनाकर कई पुराने बिगड़े घावों का इलाज करने की कोशिश की। अम्बेडकर की तल्खी और बेबाक बयानी संविधान सभा की आखिरी बैठक में प्रकट हुई। उन्होंने आत्मस्वीकार किया कि तमाम कोशिशों के बावजूद संविधान सभा ने भले ही त्रुटिहीन दस्तावेज नहीं बनाया हो, फिर भी वह जनता के भविष्य का फिलवक्त तो षिलालेख है।
बाबा साहब ने कहा राजनीति में दखल रखते कई लोग ‘भारत की जनता‘ जैसे शब्दांश की अनदेखी करते ‘भारतीय राष्ट्र‘ शब्द को अहमियत देते थे। हम ‘एक राष्ट्र‘ जैसे शब्द में सामूहिक यकीन करने के नाम पर बड़े मायाजाल में खुद को फंसा रहे हैं। हज़ारों जातियों में बंटे लोग किस तरह एक राष्ट्र कहला सकते हैं? जितनी जल्दी अहसास कर लें कि अभी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अर्थ में भारत एक राष्ट्र नहीं हैं, उतना बेहतर होगा। उन्होंने गरीबी, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान और जातीय अहंकार के मनोविज्ञान के विकारों को आत्मा के ताप के साथ सहा था। इस बात की मुखालफत नहीं की जा सकती कि देश में राजनीतिक सत्ता लम्बे समय तक केवल कुछ लोगों के अधिकार में रही है। अधिकांश लोग बोझ ढोने वाले पशु तक समझे गए और अब भी हैं।
अम्बेडकर की शोहरत संविधान की धड़कन के जरिए लोकशक्ति के रूप में है। उनकी राजनीतिक दृष्टि विवादग्रस्त रही है। संवैधानिक बुद्धि उपजाऊ नहीं होती तो संविधान की फसल का उगाया जाना मुमकिन नहीं हो सकता था। अम्बेडकर ने वक्त के माथे पर नई लकीरें खींचीं। आलोचक कहते हैं अम्बेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष भर की सीमित भूमिका में रहे। पत्रकार तथा पूर्व भाजपा नेता अरुण शौरी ने अपनी पुस्तक ‘वर्शिपिंग फाॅल्स गाॅड्स‘ में अम्बेडकर की निंदा करने में कोताही नहीं की। अम्बेडकर ने साफ कहा था बहुसंख्यक वर्ग ने अल्पसंख्यक वर्ग का वजूद मंजूर नहीं किया। अल्पसंख्यक वर्ग ने खुद को अल्पसंख्यक ही बनाए रखा। अल्पसंख्यक भयंकर विस्फोटक पदार्थ के समान होते हैं। अगर फटे तो सारे राजकीय ढांचे को तहस नहस कर सकते हैं।
अम्बेडकर नहीं होते तो आईन की आयतें इस तरह स्थिर नहीं की जा सकती थीं। नेहरू और अम्बेडकर आधुनिक हिन्दुस्तान तेवर का बनाना चाहते थे। अम्बेडकर का यश उपलों की दीवार नहीं, जिसे धक्के से गिरा दिया जाए। बाबा साहब बुद्ध नहीं, बुद्धिमय बौद्ध थे।
अम्बेडकर का हुनर था कि उन्होंने फेडरल और यूनिटरी शासन प्रबंधों और संविधानों के मर्म को अपनी आलोचनात्मक तथा मौलिक भाषा में भविष्य के आचरण के लिए सिद्ध कर दिया। उन्होंने कहा ‘संविधान सभा में अनुसूचित जातियों के अधिकारों की रक्षा कराने से ज़्यादा बड़े इरादों को लेकर नहीं आया था। सपने में भी भान नहीं हुआ था कि ज़्यादा बड़े कामों को हाथ में लेने आमंत्रित किया जायगा। जब संविधान सभा ने मसौदा समिति में मनोनीत कर फिर उसका सभापति चुना तो मुझे अधिक अचरज हुआ।‘ बाबा साहब का साफ कहना था हिन्दी को एकबारगी पूरे देश की राजकाज की भाषा नहीं बना दिया गया, तो उसका विकास संदिग्ध भी हो सकता है।
अम्बेडकर भी गांधी और नेहरू की तरह केवल दिमागी रोबोट या मशीन नहीं थे। ऐसा नहीं है कि धार्मिक कठमुल्लापन को लेकर अम्बेडकर ने मुसलमान कूपमंडूकता पर विचार व्यक्त नहीं किया। यह अलग बात है कि उनके ऐसे उल्लेख को बीन बीनकर दक्षिणपंथी तत्व संकीर्ण हिन्दुओं का रहनुमा बनाने की निंदनीय कोशिशें करते हैं। यह जानने में रोमांचकारी लगता है कि डाॅ. अम्बेडकर ने ही उद्देशिका में देश के संकल्प को ’ईश्वर के नाम पर’ घोषित करने की अपील की थी। सदन में गर्मागर्म बहस के बाद उनके प्रस्ताव को 41 के मुकाबले 68 वोटों से खारिज कर दिया गया था। यही अम्बेडकर बाद में नास्तिकता के बौद्ध धर्म में अन्तरित हो गए। ‘हम भारत के लोग‘ अभिव्यक्ति के आविष्कारक अम्बेडकर की आत्मा के साए तले बैठकर संविधान बांच रहे हैं। आईन की इबारतों में अम्बेडकर की जेहनियत दर्ज़ है।