संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गुजरात के लड्डू-गुलाल के नजारे तो ठीक हैं, लेकिन इन तीन चुनावों की हकीकत तो..
08-Dec-2022 5:15 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  गुजरात के लड्डू-गुलाल के नजारे तो ठीक हैं, लेकिन इन तीन चुनावों की हकीकत तो..

देश के दो विधानसभा चुनावों और एक म्युनिसिपल चुनाव के नतीजे उम्मीदों के मुताबिक ही रहे। जिस हिमाचल को एक्जिट पोल डांवाडोल बता रहे थे, वहां पर कांग्रेस का साफ बहुमत आते दिख रहा है, और अगर कोई खरीद-बिक्री का सिलसिला न चले तो हिमाचल में कांग्रेस की सरकार बनना तय दिख रहा है। दूसरी तरफ गुजरात में बीजेपी देश का एक अलग ही रिकॉर्ड बनाने जा रही है, और 1998 से अब तक वह लगातार वहां सत्ता में है, और जनता ने उसे पांच और बरस दिए हैं। यह पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे की सरकार के 33 बरस के लगातार शासन के बाद का एक रिकॉर्ड बना है। हिमाचल के नतीजे वहां बारी-बारी से सरकार बदलने के रहते आए हैं, और उसी मुताबिक वहां सत्तारूढ़ भाजपा को खासे वोटों से हटाकर जनता ने कांग्रेस को बड़ी संख्या में लीड दी है, यह भी प्रत्याशित ही था। चुनावी सर्वे इसे कांटे की टक्कर बता रहे थे, लेकिन नतीजे कांग्रेस के हक में गए हैं। आम आदमी पार्टी ने इन दोनों जगहों पर खासा दम लगाया था, लेकिन हिमाचल में अभी उसका खाता खुलते नहीं दिखा है, और गुजरात में भी वह छह सीटें पाकर रह गई है। यह जरूर है कि गुजरात में कांग्रेस ने बड़ी संख्या में सीटें खोई हैं, और वे आम आदमी पार्टी और भाजपा में गई दिखती हैं। लगातार सत्ता में रहने के बाद भी जनता का सरकार से न थकना, उसके वोट भी कम न होना, उसकी सीटें भी कम न होना एक बड़ी बात है। अब गुजरात की इस जीत के साथ लोग यह बात जोड़ सकते हैं कि इसे राज्य सरकार या भाजपा के नारे पर नहीं लड़ा गया, इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चेहरा दिखाकर लड़ा गया, और यह जीत किसी भी हिसाब से राज्य सरकार के कामकाज को मिली जीत नहीं कही जा सकती। लेकिन हर जीत और हार के ऐसे बहुत से तर्क दिए जा सकते हैं, क्योंकि कोई भी राष्ट्रीय पार्टी अपने राष्ट्रीय नेताओं को किसी प्रदेश के चुनाव में झोंकती ही है। खुद केजरीवाल अपने पंजाब के मुख्यमंत्री के साथ गुजरात में डेरा डाले हुए थे, और दिल्ली के वार्डों के चुनाव में पंजाब के मुख्यमंत्री गली-गली घूम रहे थे। इसलिए हार और जीत के बाद ऐसे तर्क अधिक मायने नहीं रखते, इन आंकड़ों के आधार पर कुछ बुनियादी मुद्दों पर बात होनी चाहिए। 

गुजरात में कांग्रेस की ऐसी शर्मनाक हार को लेकर अब यह कहा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी की पदयात्रा में लगी हुई थी, और उसने गुजरात चुनाव एक किस्म से छोड़ ही दिया था। सच तो यह है कि कांग्रेस की हर चुनावी हार के बाद भाजपा की ओर से यह तंज कसा जाता रहा है कि राहुल गांधी को सक्रिय रहना चाहिए, उनकी वजह भाजपा की जीत होती है। अभी एक राजनीतिक विश्लेषक ने एक निजी बात में यहां तक कहा था कि मोदी-शाह एकाध राज्य कांग्रेस के पास बने रहने देना चाहते हैं ताकि कांग्रेस पार्टी का खर्च चलता रहे, और सोनिया परिवार देश छोडक़र बाहर न जाए, और चुनावों में राहुल गांधी का फायदा मिलता रहे। अब अगर राहुल गांधी के नाम पर चुनावों में हार मिलती है, तो फिर राहुल गांधी तो गुजरात चुनाव से तकरीबन दूर ही रहे। वे महीनों से एक पदयात्रा पर हैं, और गुजरात चुनाव भाजपा की भाषा में राहुलमुक्त था। फिर वहां कांग्रेस की सीटें इतनी क्यों गिरीं? दूसरी तरफ राहुल हिमाचल चुनाव से भी दूर थे, वहां पर गृहमंत्री अमित शाह लगे हुए थे, पूरी भाजपा लगी हुई थी, लेकिन भाजपा वहां साफ-साफ हारी हुई है। इसलिए राहुल की पदयात्रा से चुनाव को न राहुल गांधी ने जोड़ा था, और न ही इन नतीजों पर उसका कोई असर दिखता। बहस की यह एक अलग बात हो सकती है कि एक पार्टी के एक सबसे बड़े नेता को दो राज्यों में चुनावों के दौरान क्या चुनावी राजनीति से अलग रहकर देश को जोडऩे की ऐसी पदयात्रा करनी चाहिए थी? लेकिन चुनाव पूर्व के अनुमानों को देखें तो पहले से हिमाचल में कांग्रेस आते दिख रही थी, और गुजरात में भाजपा बनी रहते दिख रही थी। और नतीजे भी वहीं हैं। इसलिए राहुल गांधी की पदयात्रा से किसी राज्य की जीत-हार को जोडक़र देखना ठीक नहीं है। अगर वे गुजरात से दूर रहकर वहां पार्टी की सीटें खासी कम होते देख रहे हैं, तो वे हिमाचल से दूर रहकर पार्टी की सीटें खासी बढ़ते भी देख रहे हैं। 

आज इन तीनों चुनावों को सामने रखकर बारीकी से देखा जाए तो दिल्ली में लंबे समय से म्युनिसिपल चला रही भाजपा उन्हें बुरी तरह खो बैठी है, और आम आदमी पार्टी ने दिल्ली प्रदेश सरकार के साथ-साथ अब इस संयुक्त म्युनिसिपल पर भी कब्जा कर लिया है। दूसरी तरफ भाजपा ने हिमाचल प्रदेश साफ-साफ खो दिया है, और गुजरात पर कब्जा महज कायम रखा है। मतलब यह कि इन तीनों जगहों पर भाजपा का राज था, और दो जगहों पर खत्म हो गया। जिस एक जगह वह अपना राज बचा पाई है, उसके लिए उसने अपने आपको बुरी तरह से झोंक दिया, मोदी एक पदयात्री मतदाता की तरह मतदान के बीच कई किलोमीटर सडक़ पर चलते रहे, अमित शाह ने बहुसंख्यक हिन्दू मतदाताओं को साफ-साफ याद दिलाया कि 2002 में मोदी सरकार ने गुजरात में जो सबक सिखाया था, उसके बाद से अब तक शांति है, और प्रदेश और देश की भाजपा सरकारों ने मिलकर एक गर्भवती मुस्लिम से सामूहिक बलात्कार और हत्या के 11 मुजरिमों को गलत तरीके से समयपूर्व जेल से रिहा किया था। ऐसे कई किस्म के ध्रुवीकरणों के बाद भाजपा वहां अपनी सत्ता बचा पाई है। इसलिए आज देश के एक साथ हुए इन तीन चुनावों के नतीजों को एक साथ मिलाकर देखने की जरूरत है। कांग्रेस ने खोया हुआ हिमाचल वापिस पाया है, आम आदमी पार्टी ने दिल्ली म्युनिसिपल पर पूरा कब्जा कर लिया है, और भाजपा गुजरात में अपने को बचा पाई है। इन तीन चुनावों के नतीजों को देखें तो सबसे बड़ा नुकसान भाजपा का ही हुआ है जिसके हाथ से एक राज्य निकल गया, और दूसरा, राज्य जितना बड़ा म्युनिसिपल निकल गया। ये नतीजे यह भी बताते हैं कि राज्यों के चुनावों में कोई राष्ट्रीय लहर काम नहीं आ रही है, और जहां दिल्ली के एक-एक वार्ड में मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा गया, वहां भी वह नाम वार्ड जीतने के काम नहीं आ सका। यह बात आने वाले बरसों में देश में होने वाले और राज्यों के चुनावों के संदर्भ में अगर देखें, तो फिक्र का बड़ा सामान आज भाजपा के सिर पर ही है।

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