संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : केन्द्र के सबसे अच्छे चिकित्सा शिक्षा संस्थान एम्स में प्राध्यापक मंजूर पदों से आधे ही मौजूद...
11-Dec-2022 3:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   केन्द्र के सबसे अच्छे चिकित्सा शिक्षा संस्थान एम्स में प्राध्यापक मंजूर पदों से आधे ही मौजूद...

हिन्दुस्तान में एम्स, यानी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को देश का सबसे अच्छा सरकारी अस्पताल माना जाता है। एक वक्त यह सिर्फ दिल्ली में था, और बाद में अलग-अलग प्रदेशों में भी खुलते चले गया। इसकी शोहरत का यह हाल रहता है कि जिस प्रदेश में एम्स है, उसके पड़ोसी राज्यों से भी लोग वहां इलाज के लिए पहुंचते हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि एम्स न सिर्फ अस्पताल है, बल्कि यहां मेडिकल के ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, और सुपरस्पेशलिटी के कोर्स भी चलते हैं, और उनकी वजह से यहां पढ़ाने वाले डॉक्टर इलाज करते हैं जिनका ज्ञान सिर्फ इलाज करने वाले डॉक्टरों के मुकाबले बेहतर रहता है। लेकिन केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के जो आंकड़े नए बने 18 एम्स के बारे में सामने आए हैं, वे बड़ी फिक्र खड़ी करते हैं। इनमें पढ़ाने वाले डॉक्टरों की 44 फीसदी कुर्सियां खाली पड़ी हैं। चार हजार छब्बीस शिक्षक होने चाहिए, लेकिन अभी कुल 2259 शिक्षक ही हैं। इनमें से गुजरात के राजकोट के एम्स की हालत सबसे ही खराब है जहां पर शिक्षकों के 78 फीसदी पद खाली हैं, और 183 की जगह कुल 40 काम कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के रायपुर में भी 44 फीसदी कुर्सियां खाली हैं। खुद केन्द्र सरकार के भीतर प्राध्यापक-डॉक्टरों की इस कमी से फिक्र है, और इन जगहों पर नियुक्ति के लिए तरह-तरह के रास्ते सोचे जा रहे हैं। 

लेकिन देश के निजी चिकित्सा महाविद्यालयों को देखें, तो उनमें से भी अधिकतर में पढ़ाने वाले डॉक्टरों की भारी कमी रहती है, और छत्तीसगढ़ में हम सरकारी मेडिकल कॉलेजों में भी यही हाल देख रहे हैं कि उनकी मान्यता के नवीनीकरण के समय इधर-उधर से डॉक्टर जुटाकर, नामों का फर्जीवाड़ा करके किसी तरह मान्यता बचाई जाती है ताकि इन मेडिकल कॉलेजों में कोर्स बंद न हो जाएं। ऐसा भी नहीं है कि हिन्दुस्तान में डॉक्टर बिल्कुल नहीं हैं, शहरों में गली-गली डॉक्टर दिखते हैं, और इनमें से जितने पोस्ट ग्रेजुएट हैं, उनकी जगह मेडिकल कॉलेजों में बन सकती है, लेकिन निजी प्रैक्टिस में शायद डॉक्टरों की कमाई अधिक रहती है, इसलिए वे सरकारी नौकरी में जाना नहीं चाहते। फिर सरकार के जो नियम अपने दूसरे विभागों की नियुक्तियों के लिए हैं, अफसरशाही उनको ही मेडिकल कॉलेजों पर भी लागू करना चाहती है, और उतनी तनख्वाह और सहूलियतों पर पढ़ाने के लिए मेडिकल-शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं। 

आज जिस हिन्दुस्तान के आईआईएम और आईआईटी जैसे संस्थान से निकले हुए लोग दुनिया भर में बड़ी-बड़ी कंपनियां चला रहे हैं उस हिन्दुस्तान में सरकार के लंबे समय से चले आ रहे इस चिकित्सा शिक्षा के ढांचे की बुनियादी जरूरतों को सुलझाने का काम यह देश नहीं कर पा रहा है। जब किसी नौकरी के लिए लोगों की कमी है, और वैसे ही लोग बाजार में निजी अस्पतालों को हासिल हैं, तो इसका एक ही मतलब है कि डिमांड और सप्लाई की शर्तों में कोई कमी है। आज अगर पढ़ाने लायक डॉक्टरों को निजी अस्पतालों और निजी प्रैक्टिस में बहुत अधिक तनख्वाह मिल रही है, तो केन्द्र और राज्य सरकारों को अपने मेडिकल कॉलेजों के लिए तनख्वाह और बाकी सहूलियतों पर दुबारा गौर करना चाहिए। तनख्वाह तय करके लोगों से अर्जियां बुलवाने के बजाय काबिल लोगों से तनख्वाह की उनकी उम्मीदें मंगवानी चाहिए, और उनसे मोलभाव करके उन्हें बाजार भाव पर लाने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। यह तो खुली बाजार व्यवस्था है जिसमें मेडिकल कॉलेजों से लेकर अस्पताल तक इन सबमें सरकारी भी हैं, और कारोबारी भी हैं। इसलिए जब इन दोनों किस्मों को आमने-सामने खड़ा कर दिया गया है, तो सरकार को भी कारोबार के मुकाबले खर्च करना पड़ेगा। जो मेडिकल अस्पताल-कॉलेज देश में सबसे अच्छे माने जाते हैं, वहां अगर पढ़ाने वालों की आधी कुर्सियां खाली पड़ी हैं, तो इससे वहां से निकलने वाले डॉक्टरों की क्वालिटी पर भी फर्क पड़ेगा, और दुनिया भर में भारत की चिकित्सा शिक्षा की साख भी घटेगी। वैसे यह साख इस छोटे से तथ्य से भी घट रही है कि जिस गुजरात के राजकोट के एम्स में सबसे अधिक कुर्सियां खाली हैं, वह प्रधानमंत्री और देश के स्वास्थ्य मंत्री का गृहप्रदेश है। 

दूसरी दिक्कत यह भी है कि हर सरकारी मेडिकल कॉलेज के साथ ऐसा अस्पताल भी जुड़ा रहता है जहां लोगों को मुफ्त में जांच और इलाज की सहूलियत रहती है। अब अगर पढ़ाने को डॉक्टर कम हैं, तो इसका मतलब यह है कि इलाज के लिए भी डॉक्टर कम मौजूद हैं। एम्स जैसे प्रमुख चिकित्सा केन्द्रों को पूरी क्षमता से चलाना चाहिए क्योंकि ये क्षेत्रीय उत्कृष्टता केन्द्र रहते हैं। अपने इलाकों में ये राज्य सरकार के मेडिकल कॉलेजों से बेहतर तो रहते ही हैं, ये अधिकतर निजी अस्पतालों से भी बेहतर माने जाते हैं। एम्स में पढ़ाई के लिए दाखिला इम्तिहान देश में सबसे कड़ा होता है, और वहां से डिग्री लेकर निकलने वाले डॉक्टरों की अच्छी साख रहती है। इसलिए आज की खुली बाजार व्यवस्था से विशेषज्ञ डॉक्टरों को लाकर यहां जगह भरनी चाहिए ताकि देश में उत्कृष्ट शिक्षा-चिकित्सा जारी रह सके। यह नौबत फिक्र की इसलिए भी है कि केन्द्र सरकार ने देश में चार सौ नए मेडिकल कॉलेज खोलना शुरू कर दिया है। जब एम्स जैसे केन्द्र सरकार के अस्पताल में पढ़ाने को डॉक्टर नहीं मिल रहे हैं तो जिलों के सरकारी अस्पतालों में खुलने वाले नए मेडिकल कॉलेजों को डॉक्टर कहां से मिलेंगे? और ताजा समाचार तो यह भी बता रहा है कि केन्द्र सरकार 22 नए एम्स खोलने जा रही है। हो सकता है कि ये एम्स इलाज पहले शुरू करने, और चिकित्सा-शिक्षा बाद में चालू हो, लेकिन मौजूदा और नए एम्स के लिए ही अगर चिकित्सा-शिक्षकों की कमी है, तो जिलों में खुलने वाले मेडिकल कॉलेजों के बारे में फिर से सोचना चाहिए। मान्यता पाने और जारी रखने के लिए अगर मेडिकल कॉलेज शिक्षकों के नाम उधार लाकर, फर्जी मरीज भर्ती दिखाकर काम चला रहे हैं, तो यह घटिया शिक्षा की आसान राह है। यह नौबत बदलनी चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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