संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : निजी और सरकारी कैसी भी सार्वजनिक जगहों पर सेहतमंद खानपान अनिवार्य हो
04-Jan-2023 4:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  निजी और सरकारी कैसी  भी सार्वजनिक जगहों पर  सेहतमंद खानपान अनिवार्य हो

photo : twitter

अभी कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर किसी एक पत्रकार का यह पोस्ट तैर रहा है कि किस तरह मुंबई एयरपोर्ट पर उसे दो समोसे और पानी की एक बोतल के लिए चार सौ से अधिक रूपये देने पड़े। यह हाल देश के हर एयरपोर्ट का है जहां अगर लोग चाहें कि उन्हें खाने को कोई सेहतमंद चीज मिल जाए, तो वह मिल नहीं सकती, और जंकफूड दर्जे के सामान अंधाधुंध दाम पर मिलते हैं। जिन लोगों को एयरपोर्ट या बड़े रेलवे स्टेशनों के निजीकरण में पहली नजर में सिर्फ साफ-सफाई और अधिक सहूलियतें दिखती हैं, उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि बाद में पूरी जिंदगी वे हर छोटी-छोटी चीज के लिए कितना अधिक भुगतान करेंगे। अब जिन बड़े रेलवे स्टेशनों का निजीकरण हो रहा है, वहां पर पार्किंग से लेकर खाने-पीने तक हर चीज का कई गुना भुगतान करना पड़ रहा है। जब यह कहा जाता है कि सरकार सार्वजनिक संपत्तियों को बेच रही है, तो उसका यही मतलब होता है कि दाम के ऐसे लूटपाट की तीस बरस की लीज बेच देने से भी ज्यादा बुरी होती है। लेकिन सार्वजनिक संपत्ति से परे भी हिन्दुस्तान में सार्वजनिक जगहों पर खानपान के सामान सेहत के ठीक खिलाफ होते हैं, और सुप्रीम कोर्ट का एक ताजा फैसला ऐसे खानपान को बढ़ाने वाला साबित होने वाला है।

जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने कुछ अरसा पहले सिनेमाघरों की लगाई हुई इस रोक को खारिज कर दिया था कि वहां आने वाले दर्शक अपना कुछ खानपान लेकर नहीं आ सकते। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को खारिज करते हुए कहा है कि सिनेमा हॉल एक निजी संपत्ति होती है, और वहां पर खाने-पीने की कौन सी चीजें बेची जाएं, बाहर से लाने पर रोक लगाई जाए, वह सिनेमा मालिक का अपना फैसला रहेगा। अदालत ने कहा कि सिनेमाघर जिम नहीं है जहां आपको पौष्टिक भोजन चाहिए, वह मनोरंजन की जगह है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह तर्क भी दिया कि यह दर्शकों का अधिकार या इच्छा है कि वे थियेटर में कौन सी फिल्म देखने जाएं, और यह सिनेमा मालिक का हक है कि वहां खानपान के क्या नियम बनाने हैं।

 

ये दो मामले अलग-अलग किस्म के हैं, एक तो एयरपोर्ट और स्टेशन जैसी सार्वजनिक जगहों पर खानपान से जुड़ा हुआ है, उनकी किस्म और उनके दाम दोनों ही, और दूसरा मामला निजी मालिकाना हक की सार्वजनिक जगहों पर मैनेजमेंट के लगाए प्रतिबंधों को लेकर है। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना तो सही है कि यह दर्शक की आजादी है कि वह किस सिनेमाघर में जाए और किसमें नहीं, लेकिन यह अदालत यह बात भूल रही है कि सेहतमंद खाने की जरूरत सिर्फ जिम में नहीं होती, हर जगह होती है। आज हिन्दुस्तान को दुनिया का डायबिटीज कैपिटल कहा जा रहा है क्योंकि यहां न सिर्फ गिनती में बल्कि आबादी के अनुपात में इसके मरीज लगातार बढ़ते चल रहे हैं। यह बात बहुत जाहिर है कि ऊपर जिन सार्वजनिक जगहों की चर्चा की गई है, उनमें सेहत के लिए सही खाने को रखा ही नहीं जाता, और बहुत बुरी तरह से शक्कर, नमक, फैट, और मैदे से भरा हुआ खानपान वहां रहता है। अब किसी से यह उम्मीद की जाए कि वे इन जगहों पर कई घंटे गुजारें, लेकिन घर से लाया हुआ कुछ न खाएं, यह बात अटपटी है, और नाजायज है। स्टेशनों और एयरपोर्ट पर तो लोग घर से लाया खाना खा सकते हैं, लेकिन सिनेमाघरों में सफाई के नाम पर भी इस पर रोक लगाई गई है, और सुप्रीम कोर्ट ने इसे जायज माना है। हमारा मानना है कि अदालत ने मध्यमवर्गीय लोगों, और सेहत की खास जरूरत के लोगों के हक और जरूरत को अनदेखा किया है। तमाम सिनेमाघरों में भी हॉल के बाहर ऐसी जगह रहनी चाहिए जहां बैठकर लोग अपना लाया हुआ खाना खा सकें, और सिनेमाघर के भीतर खानपान पर मैनेजमेंट की बंदिश जारी रहे क्योंकि यह वहां की सफाई से भी जुड़ी हुई है। इन तीन-चार घंटों में जिन लोगों को कुछ खाने की जरूरत रहती है, उनसे उनकी पसंद को छीनना ठीक नहीं है, क्योंकि अब तो ऐसे कोई सिनेमाघर भी नहीं है जो कि सेहतमंद चीजें बेचते हों। जनता को सिनेमाघरों के रहम-ओ-करम पर इस तरह छोड़ देना ठीक नहीं है कि वहां पर बिना किसी सेहतमंद सामान के सिर्फ जंकफूड को बेचा जाए। इसके बजाय तो सुप्रीम कोर्ट को ऐसी हर महंगी जगहों के लिए खानपान के कुछ बेहतर सामान भी रखने की शर्तें तैयार करने के लिए एक कमेटी बना देनी थी जिसकी सिफारिशें स्टेशन, एयरोपोर्ट, सिनेमाघर, और ऐसी दूसरी सार्वजनिक जगहों पर लागू हों। आज जब हिन्दुस्तान कई किस्म की बीमारियों से जूझ रहा है, ऐसे में मनोरंजन की जगहों को सिर्फ जानलेवा बाजारूकरण के हवाले कर देना समझदारी का फैसला नहीं है।

 

हमारा यह मानना है कि पर्यटन स्थलों और दूसरी जगहों पर सेहतमंद और बेहतर खानपान रखने के लिए, रियायती खानपान के लिए सरकार को नियम बनाने चाहिए। और जिस तरह अब विमानों में भी लोग घरों से ले जाया हुआ खाना खाते हैं, उसी तरह सिनेमाघरों में भी हॉल के बाहर इसके लिए इंतजाम करना राज्य सरकार को अपने नियमों के तहत करवाना चाहिए। राज्य सरकार जिस तरह निजी कॉलोनियों में भी गरीबों के लिए छोटे प्लॉट या मकान छोडऩे की शर्त लगा चुकी है, उसी तरह महंगे सिनेमाघरों पर भी मध्यमवर्गीय लोगों के हित में ऐसा लागू करना चाहिए। और फिर इस महंगाई से परे एक बात तो अनिवार्य रूप से लागू करनी चाहिए कि हर जगह सेहतमंद सामान अनिवार्य रूप से रखा जाए, और तभी बाकी दूसरी किस्म का सामान बेचने की छूट मिले। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बनाए हुए शक्कर और नमक भरे हुए खानपान से सेहत पर बुरा असर पूरी दुनिया में दर्ज किया जा रहा है, और भारत में सार्वजनिक जगहों को लीज पर देने, या महंगे किराये के नाम पर इसी तरह के खानपान के एकाधिकार की जगह बना देना बहुत गैरजिम्मेदारी की बात है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला मौजूदा कानून के हिसाब से है, लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों को अपने अधिकार क्षेत्र में चलने वाले कारोबार पर खानपान के बेहतर सामानों की शर्त लागू करने से कोई नहीं रोक सकता, और इलाज का खर्च कुल मिलाकर सरकार पर ही आता है, इसलिए सरकार को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए।

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