संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति का मौजूदा तरीका संविधान के बहुत से जानकार लोगों की नजरों में गलत है, और केन्द्र सरकार भी कई बार इसका विरोध कर चुकी है कि जज ही जजों को छांटते हैं, और फिर सरकार को उन्हीं में से नामों को मंजूरी देनी पड़ती है। जानकारों का कहना है कि जब संविधान बनाया गया तो उसमें ऐसी सोच बिल्कुल नहीं थी कि एक कॉलेजियम बनाकर सुप्रीम कोर्ट खुद ही अगले जज छांटते रहेगा। यह नौबत अगर कोई कामयाब नतीजा लाती, तो भी चल जाता, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के सबसे सीनियर जजों के इस कॉलेजियम ने अब तक कैसे जज छांटे हैं उन्हें अगर देखें तो समझ पड़ता है कि यह पूरा इंतजाम एक सवर्ण तबके से बनाई गई न्यायपालिका सामने रख पाया है।
केन्द्र सरकार ने संसद की एक कमेटी को यह जानकारी दी है कि 2018 से 2022 तक, इन चार बरसों में देश के हाईकोर्ट में जो जज बनाए गए, उनमें 79 फीसदी जज ऊंची जातियों के थे। देश की 35 फीसदी ओबीसी से 11 फीसदी जज ही हैं, दलितों से कुल 2.8 फीसदी, और आदिवासियों से कुल 1.3 फीसदी जज बने हैं। केन्द्र सरकार ने इस संसदीय समिति को बताया है कि चूंकि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज कॉलेजियम प्रणाली से बनते हैं इसलिए सामाजिक विविधता के लिए सरकार इसमें कुछ भी नहीं कर सकती। सरकार ने यह भी बताया कि वह कई बार सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों को यह लिख चुकी है कि जजों की नियुक्ति में सामाजिक विविधता और सामाजिक न्याय का ध्यान रखना चाहिए, लेकिन कॉलेजियम प्रणाली इसमें नाकामयाब रही है। केन्द्र सरकार मुख्य न्यायाधीशों को विभिन्न जातियों और धर्मों के तबकों के अलावा महिलाओं के प्रतिनिधित्व के बारे में भी लिखते आई है, लेकिन ऊंची अदालतों में महिलाओं की मौजूदगी उंगलियों पर गिनी जा सकती है।
आज ही छपी एक और अखबारी रिपोर्ट में ये आंकड़े हैं कि कोर्ट में कितने पुराने केस भी चल रहे हैं। देश का सबसे पुराना चल रहा आपराधिक मामला 69 साल पुराना है, और चले ही जा रहा है। इसी तरह जमीन-जायदाद के पारिवारिक मामले में 70 साल में अब तक फैसला नहीं हुआ है। सरकार के खिलाफ दायर एक दूसरा मामला बंगाल में 70 साल से चल रहा है। कलकत्ता हाईकोर्ट में एक मामला 71 साल से चल रहा है। यह रिपोर्ट बताती है कि देश की निचली अदालतों में सवा चार करोड़ से अधिक मामले चल रहे हैं। इन आंकड़ों से परे अदालतों की रोजाना की हकीकत यह है कि वहां वादी, प्रतिवादी, गवाह, सभी को हर पेशी पर जुर्माने की तरह रिश्वत देकर आना होता है, और जजों की आंखों के सामने बैठे उनके बाबू यह रिश्वत वसूलते रहते हैं। अदालत के बाहर रिश्वत वसूलने के लिए बदनाम पुलिस वाले भी अदालतों में रिश्वत दिए बिना नहीं निकल पाते।
अब इन दो अलग-अलग खबरों के साथ देश की इस सामाजिक हकीकत को भी जोडक़र देखें कि आरक्षण के खिलाफ देश में कैसा माहौल बनाया जाता है। यह भी देखें कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में किसी तरह का कोई आरक्षण नहीं है, और ये ताजा आंकड़े बताते हैं कि किस तरह वहां सवर्ण तबके का बहुमत है। अब ऐसे सवर्ण तबके के बहुमत वाली बड़ी अदालतों में भी अगर मामले नहीं सुलझ रहे हैं, तो इसकी तोहमत तो उन आरक्षित जातियों पर नहीं डाली जा सकती जिन्हें देश की बर्बादी का गुनहगार ठहराते हुए सवर्ण तबका थकता नहीं है। यह एक और बात है कि आज देश के बड़े से बड़े सवर्ण नेता को भी अगर संविधान के बारे में चार लाईनें कहनी होती हैं, तो उन्हें एक दलित, बाबा साहब अंबेडकर का नाम लेना ही होता है। कानून के इतने बड़े जानकार के इतिहास वाले हिन्दुस्तान में दलित, आदिवासी तबकों को ही हिकारत से देखा जाता है। और ऐसी हिकारत अगर कॉलेजियम में नहीं भी है, तो भी उनकी पसंद तो 79 फीसदी ऊंची जातियों के जजों की है।
हम यहां दो-तीन मुद्दों को जोडक़र लिख रहे हैं, और भारत की सामाजिक हकीकत में इनको जोडक़र देखने की जरूरत भी है। जहां सवर्ण तबकों से आए हुए जजों का इतना बहुतायत है, वहां पर अदालतों की रफ्तार इतनी धीमी क्यों होनी चाहिए? जिस देश की ऊंची अदालतों में दलित-आदिवासी जज नाम के हैं, वहां पर तो काम बहुत तेजी से और बहुत अच्छे से होना चाहिए था, फिर क्या हो गया है? दूसरी तरफ अदालतों से बाहर का हाल देखें तो देश के अफसरों में जो सबसे भ्रष्ट लोग हैं, उनमें दलित-आदिवासी तो सबसे ही कम हैं। जितने नाम खबरों में आते हैं उनमें से बड़े-बड़े भ्रष्टाचार वाले लोगों को देखें, बड़े-बड़े आर्थिक अपराधियों को देखें, तो तकरीबन तमाम लोग सवर्ण दिखते हैं। मतलब यह कि वैसे ही लोग राजनीति और सरकार में, बैंक और कारोबार में ताकत की ऐसी जगहों पर पहुंचे रहते हैं कि वे ही लोग बड़ा भ्रष्टाचार और बड़ा जुर्म कर पाते हैं। भारत में जनता के पैसों के खिलाफ होने वाले बड़े-बड़े जुर्म में किन जातियों के कितने मुजरिम हैं, इसका एक सामाजिक अध्ययन दिलचस्प हो सकता है। फिलहाल तो हम लोगों को यही सुझा सकते हैं कि वे अपनी पूरी याददाश्त के सारे के सारे बड़े आर्थिक अपराधियों के नाम याद कर लें कि उनमें सवर्ण कितने थे, और बाकी जातियों के कितने थे, तो उनकी याददाश्त हंडी के एक दाने की तरह बता देगी कि खाना कितना पका है।
जिस सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति को अपना एकाधिकार बना रखा है, उसे इस सामाजिक भेदभाव की नौबत पर सफाई देनी चाहिए। देश की बड़ी-बड़ी अदालतों में काम करने वाले हर जाति और धर्म के बड़े-बड़े वकील हैं, महिला वकीलों में भी बहुत सी बहुत नामी-गिरामी हैं, इसलिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को आरक्षण से बचाकर चलने का तर्क करीब 80 फीसदी सवर्ण जजों के मनोनयन के बाद दम तोड़ता दिखता है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट के जजों के घर का नहीं है, यह सार्वजनिक महत्व का और सामाजिक न्याय का मामला है, इसलिए कॉलेजियम को खुलकर जनता के सामने अपनी सोच रखनी चाहिए, और अपनी पसंद की वजह भी बतानी चाहिए, उसे फाइलों में एक रहस्य की तरह बंद करके रखना ठीक नहीं है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)