विचार / लेख

-राजेन्द्र चतुर्वेदी
जब 1999 में विष्णु प्रयाग में अलकनंदा नदी पर बांध बनने का काम शुरू हुआ था, तब ज्योतिर्मठ और द्वारका शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी ने जनता से अनुरोध किया था कि इस बांध के खिलाफ प्रबल आंदोलन छेड़ा जाए। अगर ये बांध बन गया तो जोशीमठ को निगल जाएगा।
तब शंकराचार्य के अनुयायियों ने एक आंदोलन की शुरुआत की भी थी, उस आंदोलन को कमजोर करने के लिए एक सांस्कृतिक संगठन आगे आया, उसके स्वयंसेवक घर घर गए। जनता को समझाया कि विकास के लिए बांध जरूरी है।
जनता को यह भी समझाया गया कि शंकराचार्य इसलिए विरोध कर रहे हैं, क्योंकि वे वामपंथी शंकराचार्य हैं, कांग्रेसी शंकराचार्य हैं, इसलिए नहीं चाहते कि एक राष्ट्रवादी सरकार विकास का कोई काम करे।
और जनता की समझ में बात आ गई। आंदोलन खत्म हो गया। विकास इतनी तेजी से शुरू हुआ कि नदियों की धाराओं को मोडऩे के लिए सुरंगें तक बना दी गईं। जिस सुरंग ने काम नहीं किया, उसे वैसा का वैसा छोड़ दिया गया, अधबना।
अब विकास के इस दौर में मीडिया का यह कर्तव्य है कि वह देश को इस बात की भनक तक न लगने दे कि जोशीमठ कस्बे के ठीक नीचे से एक सुरंग निकाली गई है और जब अलकनंदा का पानी उससे नहीं निकाला जा सका, तो उस सुरंग को वैसा ही छोड़ दिया गया, जो भू-धसान का एक बड़ा कारण बन गई है।
चेतन भगत जैसे विद्वान लेखकों, विचारकों, कॉलमिस्ट का फर्ज है कि वे विष्णु प्रयाग में बंधे विनाशकारी बांध की तरफ देश का ध्यान न जाने दें और जोशीमठ के विनाश का ठीकरा केवल और केवल पर्यटन पर फोड़ दें।
इससे आम के आम और गुठलियों के दाम।
एक तरफ तो जनता का ध्यान बांध की तरफ नहीं जाएगा, और वह बांध को हटाने की मांग नहीं करेगी, दूसरी तरफ यह लिखकर सरकार की चापलूसी भी की जा सकेगी कि देश में प्रतिव्यक्ति आय बढ़ गई है, जिससे पहाड़ों पर ज्यादा पर्यटक पहुंचने लगे हैं।
लेखक को और क्या चाहिए। ऊपर से कृपा आती रहे और जीवन धन्य।
दो खुल्ले रुपैया वाले आईटीसैलियों और फोकट में भड़ैती करने वाले फ्रिंज एलिमेंट्स का फर्ज यह है कि जोशीमठ के संकट के लिए जहां भी कोई व्यक्ति अटल श्रद्धेय की भूमिका पर सवाल उठाए, वे फौरन वहां कूद पड़ें और पूछें कि 10 साल तक मनमोहन सिंह क्या करते रहे। जरूरत पड़े तो श्रद्धेय पर सवाल उठाने वालों को 10-20 गालियां तो छूटते ही दे मारें।
और जोशीमठ की जनता की नियति है कि वह अपनी जड़ों से कटे, विस्थापित हो। आंदोलन करने से अब कुछ नहीं होगा। आंदोलन तो उस दिन करना चाहिए था, जिस दिन शंकराचार्य (अब ब्रह्मलीन) स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी ने आवाज दी थी।
अब कुछ नहीं हो सकता। ‘जब जागो, तभी सबेरा’ वाला मामला नहीं है यह। देर से जागे, इसलिए चीजें हाथ से निकल गई हैं।
अब सरकार विष्णु प्रयाग का बांध हटाने और पहाड़ों की छाती में किए गए छेद मूँदने के लिए भी अगर तैयार हो जाए तो भी जोशीमठ को सामान्य होने में 20 साल से ज्यादा का समय लगेगा।