संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : उत्तराखंड में दरार मकानों में नहीं, धरती के सीने में पैदा की है इंसानों ने...
14-Jan-2023 3:48 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   उत्तराखंड में दरार मकानों में नहीं, धरती के सीने  में पैदा की है इंसानों ने...

उत्तराखंड में जोशीमठ जो दरारें शुरू हुईं, वे इस राज्य के दूसरे कई कस्बों तक पहुंच रही हैं, और दूसरे कस्बों में भी टूटते हुए घरों को देखकर सरकार बस्तियां खाली करा रही है। ठंड का यह मौसम और पीढिय़ों से बसे हुए लोग इस बीच बेघर हो रहे हैं, न सिर्फ उनके मकान जा रहे हैं, बल्कि उनकी जमीन भी धंस जा रही है, और वह शायद ही उन्हें कभी वापिस मिले क्योंकि हिमालय के किनारे बसे इस प्रदेश में इंसान की बाजारू नीयत ने विकास के नाम पर जो विनाश किया है, उसका असर शायद सदियों तक जारी रहेगा। इसलिए देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में लाखों लोगों की जिंदगी तबाह होने जा रही है, और यह आंकड़ा बढ़ते ही चले जाना है, ठीक उसी तरह, जिस तरह कि कोई दरार बढ़ती चली जाती है। 

लोगों को याद होगा कि पर्यावरण की फिक्र करने वाले लोग लगातार दशकों से यह मुद्दा उठा रहे थे कि हिमालय के पड़ोस के इस राज्य की भूगर्भ की हालत नाजुक है, और उसके साथ बांध और सुरंग बनाने, पहाड़ काटकर सडक़ों को चौड़ा करने का खतरनाक काम नहीं किया जाना चाहिए। लोगों ने इस पहाड़ी राज्य में जंगल और पेड़ बचाने के लिए अपनी जिंदगी दे दी, लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार दोनों ने दीवारों पर लिखे धरती और कुदरत के संदेशों को पढऩे से इंकार कर दिया, और नेता, अफसर, ठेकेदार, तीनों की पहली पसंद, कांक्रीट और कंस्ट्रक्शन को अंधाधुंध बढ़ाया गया। जिस प्रदेश में आज कस्बे के कस्बे धसक रहे हैं, उस प्रदेश में सरकारों ने सौ के करीब सुरंगें बनाने का बीड़ा उठाया है, बिना यह समझे कि इसके कितने दाम चुकाने होंगे। आज यह दाम चुकाने के लिए सरकार के नोट कम पडऩे वाले हैं क्योंकि खोखले कर दिए गए एक पहाड़ी राज्य को फिर से भरने के लिए न तो दुनिया में सीमेंट काफी है, न ही इसकी टेक्नालॉजी मौजूद है, और न ही यह सरकार के बस में है। अंधाधुंध निर्माण का दाम उत्तराखंड की जनता अपने घर, अपनी जमीन, अपनी जिंदगी देकर चुका रही है। दुनिया में कहीं भी पड़ी हुई दरार बढ़ती ही चली जाती है, और इस वक्त जब हम इस पर लिख रहे हैं, उत्तराखंड में जगह-जगह लोग घर छोडक़र अपने ही वतन में शरणार्थियों की तरह दूसरी जमीन पर तम्बुओं में जा रहे हैं, तब भी रात-रात जागकर कंस्ट्रक्शन कंपनियों की क्रेन और बुलडोजर धरती को हिलाने में, छेदने और पार करने में लगे हुए हैं। एक टीवी समाचार पर यह देखना भयानक था कि बस्तियों में लोग सर्द रातें कहीं तम्बुओं में बैठे हुए हैं, और दूसरी तरफ सरकारी प्रोजेक्टों में ठेकेदारों की दानवाकार मशीनें जमीन हिलाने में लगी हुई हैं।

दरअसल इंसान जिस रफ्तार से धरती और कुदरत को दुह लेना चाहते हैं, धरती और कुदरत उस मुताबिक बनी नहीं हैं। हिन्दुस्तान के इन पहाड़ी प्रदेशों में जिस रफ्तार से पेड़ काटे गए, जिस रफ्तार से जल-बिजली के लिए बांध और उसके तालाब बनाए गए, सडक़ों को चौड़ा करने के लिए जिस रफ्तार से पहाडिय़ां काटी गईं, अधिक से अधिक सैलानियों को लाने, ठहराने, और घुमाने के लिए होटलों और गाडिय़ों का समंदर खड़ा कर दिया गया, जगहों को एक-दूसरे से करीब लाने के लिए सुरंगों का जाल बनाना शुरू किया गया, इन सबके खिलाफ पर्यावरण के जानकार लोग, और गैरपर्यावरणवादी तकनीकी विशेषज्ञ भी चेतावनी देते आए थे, लेकिन हर कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट में बंटने वाले कमीशन और रिश्वत के चलते सरकारों को हांकने वाले लोगों ने सारी चेतावनियों को अनसुना कर दिया। इस रफ्तार से हिमालय के किनारे बसे इस इलाके को तबाह किया गया कि मानो ये इलाके अगली सदी न देख लें। 

दुनिया के दूसरे हिस्सों से भी ऐसी खबरें सामने आ रही हैं कि इंसान जैव विविधता को इस रफ्तार से खत्म करने में लगे हुए हैं कि उसकी भरपाई लाखों बरस भी नहीं हो पाएगी। दो दिन पहले बीबीसी पर एक रिपोर्ट थी कि मेडागास्कर के टापू पर पेड़-पौधों और पशु-पक्षी जैसी तमाम किस्म की जैव विविधता पिछले बहुत थोड़े से समय में इस रफ्तार से खत्म हुई है कि उतनी विविधता दुबारा बनने में तीस लाख बरस लगेंगे, और अगर इसी रफ्तार से यह विविधता कुछ और समय तक बर्बाद हुई तो उसकी भरपाई में दो सौ लाख बरस लगने का वैज्ञानिक अंदाज है। खतरनाक बात यह है कि बहुत थोड़ी आबादी वाले इस टापू पर इंसानों का इतिहास बहुत छोटा है, लेकिन गिनी-चुनी आबादी ने इस रफ्तार से जैव विविधता को खत्म कर दिया है कि यह इंसान के खूनी मिजाज की एक जलती-सुलगती मिसाल दिख रही है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि कुदरत के हिस्सों को तबाह करना, अंधाधुंध शिकार, और जलवायु परिवर्तन के रास्ते इंसानों ने जैव विविधता को कुछ दशकों में ही इतना खत्म कर दिया है कि दसियों लाख साल उसकी भरपाई नहीं होने वाली है। 

कुछ ऐसा ही हाल हिन्दुस्तान में पांच-पांच बरस के लिए आने वाली सरकारों ने पहाड़ी इलाकों का किया है। हर निर्वाचित सरकार को यह हड़बड़ी रहती है कि वह अधिक से अधिक कितने कंस्ट्रक्शन-ठेके दे सके, कितनी कमाई कर सके। कुदरत की गोद में हर इंसान के लिए जरूरत का तो काफी है, लेकिन इंसान बेहिसाब हवस के लिए उसके पास उतना कुछ नहीं है। यह नौबत हिन्दुस्तान जैसे देश के सम्हलकर बैठने की है, और दरारों वाले मकान गिराकर किसी दूसरे इलाके में कुछ दूसरे कच्चे-पक्के मकान बनाना तो हो सकता है, लेकिन हिमालय की तराई, उसके बदन पर आई दरारों को पाटना इंसानों के बस के बाहर का है। ये इलाके न इतने निर्माण के लायक हैं, और न ही इतने सैलानियों के लायक हैं। अगले किसी अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ अध्ययन तक उत्तराखंड जैसे प्रदेश में सारे बड़े प्रोजेक्ट पर काम पूरी तरह रोक देना चाहिए, ऐसा न करना एक ऐतिहासिक खुदकुशी होगी, जिसमें मौत आज के नेताओं की नहीं होगी, ऐसे प्रदेशों की अगली कई पीढिय़ों की होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news