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जब शरद यादव को वह एक चुनाव मजबूरन लडऩा पड़ा
14-Jan-2023 4:24 PM
जब शरद यादव को वह एक  चुनाव मजबूरन लडऩा पड़ा

-पुष्य मित्र
शरद यादव के बारे में कल से बहुत सारे किस्से कहे गये हैं, मगर इस किस्से का जिक्र बहुत कम आया कि कैसे एक बार उन्हें राजीव गांधी के खिलाफ चुनावी मैदान में उतार दिया गया था। 

यह 1981 की बात है। संजय गांधी के निधन के बाद अमेठी की सीट खाली हुई थी। जनता पार्टी की दोनों सरकारों के गिर जाने के बाद इंदिरा गांधी की अच्छे खासे बहुमत से सत्ता में वापसी हो चुकी थी। मनमौजी हरकतें करने वाले अपने एक बेटे के चले जाने के बाद वे अब अपने दूसरे और बड़े बेटे पर दाव खेलना चाहती थीं, इसलिए राजीव गांधी को अमेठी उपचुनाव में उतार दिया गया था। 

तब तक पूर्व हो चुके प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और जनसंघ के नेता नानाजी देशमुख चाहते थे कि शरद यादव अमेठी से राजीव गांधी को टक्कर दें। राजीव गांधी का वह पहला चुनाव था, मगर जबलपुर में 1974 में ही जनता का उम्मीदवार बनकर शानदार जीत हासिल कर चुके शरद यादव उन दिनों देश में किसी चमकदार सितारे की तरह मशहूर हो गये थे। समाजवादी पार्टी के तमाम दिग्गज नेताओं के वे चहेते थे। 

चरण सिंह और नानाजी देशमुख को लगता था कि शरद आसानी से राजीव गांधी को पटखनी दे देंगे। मगर शरद यादव को समझ आ रहा था कि यह मुकाबला आसान नहीं होगा। उनके राजनीतिक कैरियर के लिए खतरनाक भी हो सकता है। वे इनकार कर रहेे थे। तब चरण सिंह उन्हें एक ज्योतिषी के पास ले गये, उस ज्योतिषी ने कहा कि शरद यादव यह चुनाव जीत जायेंगे और इसके बाद इंदिरा गांधी की सरकार गिर जायेगी। मगर शरद यादव फिर भी नहीं माने।

एक बार चरण सिंह तो ढीले पडऩे लगे, मगर नानाजी देशमुख ने उन पर दवाब बनाना शुरू कर दिया। फिर चरण सिंह ने उन्हें यह भी कह दिया कि तुम डरपोक हो। मजबूरन शरद यादव को वह चुनाव लडऩा पड़ा। चुनाव में शरद यादव बुरी तरह हारे और उन्हें 21 हजार के करीब वोट मिले। फिर उन्होंने अगला चुनाव बदायूं से लड़ा, जहां उन्हें जीत मिली। फिर मधेपुरा आये तो यहीं के रह गये। 

एक जमाने में फायरब्रांड युवा नेता के रूप में मशहूर शरद यादव फिर किंगमेगर बने। पहले लालू को सीएम बनाया, फिर नीतीश के साथ जुड़े। कहते हैं कि दोनों ने उन्हें धोखा दिया, मगर सच तो यह है कि ये खुद दोनों के लिए असहज स्थिति पैदा करते थे। वे हमेशा कोशिश करते थे कि जिन्हें उन्होंने सीएम बनाया है वे उनकी मर्जी से चलें। हर बात उनके हिसाब से करें। कहते हैं, एक बार तो उन्होंने लालू यादव को हटाकर रामसुंदर दास को सीएम बनाने की भी प्लानिंग कर ली थी। 

शरद दिल्ली के पत्रकारों के बहुत प्रिय रहे हैं, समाजवादी विचारों के आईडियोलॉग रहे हैं। मगर इसके बावजूद उन्हें भाजपा और संघ से कभी परहेज नहीं रहा। मगर उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी चूक रही, जब उन्होंने महिला आरक्षण के मसले पर सदन में यह टिप्पणी कर दी कि यह सिर्फ परकटी औरतों की लड़ाई है। महिला आरक्षण में आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग तर्कसंगत हो सकती है, मगर उन्होंने औरतों को लेकर जो टिप्पणी की, उस पर उन्हें संभवत: बाद में खुद भी ग्लानि होती होगी।

पिछले दिनों पटना में महिला आरक्षण की प्रबल पैरोकार गीता मुखर्जी की याद में आयोजन हुआ था। गीता मुखर्जी वही महिला थीं जिन्होंने विधायिका में महिला आरक्षण के लिए केंद्रीय मंत्री तक का पद ठुकरा दिया था। पिछली सदी के आखिरी दशक में जब इस आरक्षण को लेकर सबसे अधिक सक्रियता थी, तब वे पार्टी के दायरे से बाहर निकलकर हर सांसद से इस आरक्षण को समर्थन देने कहती थीं। मगर आरक्षण लागू नहीं हुआ, आज तो वह ठंडे बस्ते में चला गया है। तब शरद यादव जैसे नेता चाहते तो सहमति के साथ महिला आरक्षण लागू हो सकता था। मगर उन्होंने महिलाओं के आरक्षण के सवाल को परकटी औरतों का मुद्दा कहकर उसकी खिल्ली उड़ायी।

खैर, हर नेता से चूक होती है। हमारे दौर का एक अनूठा नेता कल अपना भरा-पूरा जीवन जीकर चला गया। उसके जीवन में कई रंग थे। उन रंगों से गुजरते हुए आज की पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है।

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