संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : केन्द्र और कोर्ट में अब आमने-सामने बातचीत
20-Jan-2023 3:45 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : केन्द्र और कोर्ट में अब आमने-सामने बातचीत

सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार के बीच का टकराव कल एक नई ऊंचाई पर पहुंच गया जब मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने अपने छांटे गए जजों के नाम पर केन्द्र की आपत्ति को सार्वजनिक किया, और उसका सार्वजनिक रूप से जवाब भी दिया। केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू पिछले कुछ महीनों से लगातार एक या दूसरी वजह निकालकर सुप्रीम कोर्ट पर हमले कर रहे थे, और सुप्रीम कोर्ट ने उनसे जख्मी होने के बजाय सार्वजनिक रूप से उनका सामना करना तय किया। अदालत से मिली जानकारी के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने जजों के नाम तय करने वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के बाकी सदस्यों से चार दिनों तक चर्चा करने के बाद यह फैसला लिया कि उसके भेजे नामों पर केन्द्र की आपत्ति को सार्वजनिक कर दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की आपत्ति में शामिल खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट को भी उजागर कर दिया। यह एक अभूतपूर्व कदम है, और मौजूदा सीजेआई के बाद जो सीजेआई बनेंगे, वे भी इस कॉलेजियम में शामिल थे, इसलिए इसे सुप्रीम कोर्ट जजों के बीच एक व्यापक सहमति से की गई आपत्ति माना जाना चाहिए। 

केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के भेजे गए नामों पर लंबे समय तक बैठने की आदी रही है, और जिन नामों से वह सहमत नहीं रहती है, उन्हें अंतहीन समय तक रोकते रही है। पिछले कुछ दिनों में कानून मंत्री ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट जजों को लिखा है कि जज छांटने वाले कॉलेजियम में केन्द्र सरकार का प्रतिनिधि भी रहना चाहिए। एक दूसरी बात यहां पर यह भी प्रासंगिक है कि देश के अलग-अलग बहुत से तबकों के जानकार लोग भी यह मानते हैं कि संविधान निर्माताओं की ऐसी कोई सोच नहीं थी कि जजों को छांटने का काम जज ही करें। इस पर केन्द्र सरकार से परे भी कई लोग लिखते और बोलते आए हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जज छांटने के लिए कॉलेजियम की जो व्यवस्था खुद तय कर ली है, वह संविधान की भावना के अनुकूल नहीं है, और इसके लिए कोई दूसरी व्यवस्था होनी चाहिए। इसलिए केन्द्रीय कानून मंत्री की यह ताजा मांग बहुत अटपटी, अनोखी, और अभूतपूर्व नहीं है। लेकिन पिछले काफी समय से केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच जो तनातनी चल रही है, उसे देखते हुए कल का सुप्रीम कोर्ट का जनता की अदालत में जाने का फैसला पूरी तरह से अनोखा और अभूतपूर्व है। खासकर दिल्ली हाईकोर्ट के लिए एक वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ कृपाल के नाम को कॉलेजियम ने डेढ़ बरस से भी पहले केन्द्र सरकार को भेजा था, और केन्द्र ने इस नाम पर इसलिए आपत्ति की थी कि सौरभ कृपाल एक स्वघोषित समलैंगिक हैं, और उनका साथी स्विस नागरिक है। केन्द्र की इस आपत्ति पर कॉलेजियम ने कल सार्वजनिक रूप से कहा कि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि जज-उम्मीदवार का साथी जो स्विस नागरिक है, हमारे देश के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करेगा क्योंकि उसका मूल देश भारत का एक मित्रराष्ट्र है। कॉलेजियम ने केन्द्र सरकार को यह भी याद दिलाया कि संवैधानिक पदों पर मौजूदा और पिछले कई ऐसे लोग रहे हैं जिनके पति-पत्नी विदेशी नागरिक थे, और हैं। 

हम इस बहस के सार्वजनिक होने के पहलू को लेकर खुश हैं। हम बार-बार इसी जगह जजों की नियुक्ति के लिए अमरीकी व्यवस्था का हवाला देते आए हैं जिसमें वहां के सुप्रीम कोर्ट के लिए अमरीकी राष्ट्रपति अपनी पसंद से जज छांटते हैं, लेकिन फिर ऐसे उम्मीदवारों को संसद की एक समिति के सामने लंबी खुली सुनवाई का सामना करना पड़ता है जिसमें उनकी पिछली जिंदगी, पिछले काम, पिछली और मौजूदा सोच, ऐसे हर पहलू पर सवालों का सामना करना पड़ता है, और जवाब देना पड़ता है। इसके बाद संसदीय कमेटी ही ऐसे उम्मीदवार को जज बनाना पसंद या नापसंद करती है। यह खुली सुनवाई अमरीकी टीवी पर भी आती है, और वहां की जनता को यह अच्छी तरह मालूम रहता है कि अगर इस व्यक्ति को जज बनाया गया तो उनकी सोच क्या रहेगी, उनके पहले के फैसले कैसे रहे हैं, वे गर्भपात से लेकर महिला अधिकारों और रंगभेद के मुद्दों पर क्या सोचते रहे हैं। जनता को जजों के इतिहास और उनकी सोच के बारे में सब पता रहे, यह एक अधिक पारदर्शी व्यवस्था है। इस हिसाब से हम सुप्रीम कोर्ट के इस अभूतपूर्व फैसले से सहमत हैं कि जजों के बारे में कॉलेजियम और केन्द्र के बीच जो कुछ चर्चा होती है, वह देश की जनता के सामने रखी जानी चाहिए। हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने कुछ हफ्ते पहले ही ठीक यही सिफारिश की थी कि इन बातों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। 

देश में सूचना का अधिकार लागू है। इसके तहत जनता सरकार और सार्वजनिक संस्थाओं से कई किस्म की जानकारी मांग सकती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने आपको इसकी पहुंच से भी बहुत हद तक बाहर रखा था, इसलिए जनता अदालतों के रहस्य से दूर ही रह जाती है। अब यह वक्त आ गया है कि देश में सूचना पाने के अधिकार को बदलकर सूचना देने की जिम्मेदारी बनाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को भी जनता को यह बताना चाहिए कि किन लोगों के नाम जज बनाने के लिए किस वजह से छांटे गए हैं, और सरकार को भी यह बताना चाहिए कि उसे इनमें से कौन से नाम किस वजह से नामंजूर हैं। इसे कॉलेजियम के एकाधिकार और केन्द्र सरकार के एकाधिकार के खोल से ढांककर नहीं रखना चाहिए। केन्द्र सरकार आज यह मांग कर रही है कि कॉलेजियम में उसका प्रतिनिधि भी होना चाहिए। हमारा मानना है कि जजों के नाम तय करने में सरकार के बजाय संसद का प्रतिनिधि होना बेहतर होगा, और जिस तरह सीबीआई के डायरेक्टर, और कुछ दूसरे लोगों को चुनने के लिए प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता एक कमेटी में होते हैं, उसी तरह संसद की एक कमेटी होनी चाहिए जिसकी कि जजों के चयन में हिस्सेदारी हो। अब हमारी यह भावना किस तरह अमल में आ सकती है, इसके लिए एक संवैधानिक व्यवस्था जरूरी होगी, और देखना होगा कि यह नौबत कैसे लाई जा सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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