राष्ट्रीय
RAMESH VERMA
फ़ैसल मोहम्मद अली
"बिलकिस बानो पसमांदा समाज से ही संबंध रखती हैं, उनके बलात्कारियों और परिवार की हत्या करने वालों को बीजेपी ने टिकट देकर जिताया, मोदी चाहते हैं पसमांदा मसले का इस्तेमाल कर मुसलमानों को अगड़ों-पिछड़ों में बांटकर राजनीतिक लाभ लिया जाए."
पसमांदा मुस्लिम महाज़ के नेता और जनता दल यूनाइटेड के राज्यसभा सांसद रहे अली अनवर अंसारी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान पर कुछ इस तरह की प्रतिक्रिया दी.
पिछले हफ़्ते हुई भारतीय जनता पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री ने बीजेपी कार्यकर्ताओं से कहा, "आप लोग पसमांदा मुसलमान, बोहरा समुदाय के लोगों और शिक्षित मुसलमानों से वोट की चिंता किए बिना मिलें."
पसमांदा मुसलमान जैसे जुलाहे, धुनिया, घासी, क़साई, तेली और धोबी वग़ैरह, जिन्हें भारतीय परिवेश में निचली जातियों में गिना जाता है, लंबे समय से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ़ोकस में रहे हैं, लेकिन पार्टी की पिछली दो कार्यकारिणियों, 2022 में हैदराबाद और जनवरी 2023 में दिल्ली में ख़ास तौर पर उन्होंने उनका ज़िक्र किया.
पसमांदा मुस्लिम समाज के इर्द-गिर्द राजनीति भारत में नई नहीं है, बल्कि बीसवीं सदी से ही अंजुमन-ए-इस्लाह बिलफ़्लहा, फ़लाह-उल-मोमिनीन और जमीयत-उल-मोमिनीन जैसे संगठनों के रूप में सामने आती रही है.
जमीयत-उल-मोमिनीन ही बाद में ऑल इंडिया मोमिन कॉंफ्रेंस की शक्ल में सामने आया जिसके सबसे बड़े नेताओं में से एक थे अब्दुल क़यूम अंसारी. इन दिनों बीजेपी उन्हें अपने एक आइकन के रूप में अपनाने की ओर बढ़ रही है.
अब्दुल क़यूम अंसारी पिछड़े मुसलमानों के नेता थे, बिहार से आने वाले अंसारी ने लंबे समय तक भारत के विभाजन का विरोध किया था, उन्होंने भारत के विभाजन को अशराफ़ (ऊँची जाति) मुसलमानों का प्रोजेक्ट बताया था.
अब्दुल क़यूम अंसारी की पुण्यतिथि और बीजेपी
बिहार विधान परिषद सभागार में अब्दुल क़यूम अंसारी की पुण्यतिथि पर 18 जनवरी को एक कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसकी देख-रेख बीजेपी विधायक संजय पासवान कर रहे थे. संजय पासवान की ही देख-रेख में पिछले साल दिसंबर में पसमांदा मुस्लिम समाज से जुड़ा एक कार्यक्रम हुआ था जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राम माधव शामिल हुए थे.
दूसरी तरफ़, पसमांदा समाज के मौजूदा वरिष्ठ नेता, अली अनवर अंसारी समुदाय को नरेंद्र मोदी और बीजेपी से दूर रहने की चेतावनी दे रहे हैं.
वे कहते हैं, "मोदी को न तो मुसलमानों से प्रेम है, न ही पसमांदा से, उनके लोग गाय व्यापार के नाम पर जो लिंचिग करते हैं उसे लेकर बुलडोज़र चलाने और फल-सब्ज़ी वाले लोगों के बायकॉट का सबसे ज़्यादा असर पसमांदा समाज से ताल्लुक़ रखने वाले मुसलमानों पर ही पड़ता है."
अली अनवर अंसारी ने प्रधानमंत्री को इस मामले में हैदराबाद बीजेपी बैठक के बाद ही एक लंबी चिट्ठी लिखी थी.
इस पत्र में उन्होंने दलित मुसलमानों के लिए शिक्षण संस्थानों-नौकरियों में आरक्षण के सवाल को उठाया था, मंत्रियों की हेट-स्पीच का ज़िक्र किया गया था. इसमें आरोप लगाया गया था कि बीजेपी की पूरी पसमांदा पहल वोट बैंक पॉलटिक्स के सिवा कुछ नहीं है, जिसे मुसलमानों को मुसलमानों से लड़ाकर हासिल करने की कोशिश की जा रही है.
अली अनवर मांग करते हैं कि मुसलमानों में हलालख़ोर, धोबी, मोची, भटियारा, गदेही जैसे दर्जनों समुदाय हैं जिन्हें सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमेटी ने अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने की सिफ़ारिश की थी उसे तुरंत लागू किया जाए.
वो पूछते हैं कि क्या सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में नहीं कहा है कि वो इन सिफ़ारिशों को नहीं मानेगी?
बीबीसी से फ़ोन पर हुई एक लंबी बातचीत में उन्होंने कहा कि पत्र के प्रधानमंत्री कार्यालय में पहुँचने की रसीद उनके पास है, लेकिन साल भर बीत जाने के बावजूद उन्हें किसी तरह का जवाब हासिल नहीं हुआ है.
जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर मुजीब-उर-रहमान कहते हैं, "जवाब है ही नहीं तो मिलेगा कैसे? जिस पार्टी के मूल विचार में एंटी-मुस्लिम एजेंडा रहा है वो अचानक से इसे कैसे छोड़ देगी और अगर ऐसा हुआ तो उसके कोर वोटर का क्या होगा?"
मुजीब-उर-रहमान मानते हैं कि बीजेपी ने कुछ दलित और धर्मनिरपेक्ष संगठनों की रणनीति की काट खोजी है, जिसमें वो दलितों और मुसलमानों को साथ लाकर भारतीय समाज-राजनीति में उच्च वर्ग के दबदबे को चैलेंज करना चाहते थे, मोदी ने प्रगतिशील वर्ग (लिबरल्स) को उन्हीं के शब्दों में इसका जवाब दे दिया है.
अली अनवर कहते हैं उन्हें अभी तक पीएम नरेंद्र मोदी को लिखी चिट्ठी का जवाब नहीं मिला है
बिना मुसलमान के हिंदुत्व नहीं: संघ
बात सिर्फ मोदी के पसमांदा, मुसलमानों तक पहुँच की नहीं है, ये भी याद रखा जाना चाहिए कि हिंदुत्व की विचारधारा के सबसे बड़े संगठन, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) के मोहन भागवत भी कह रहे हैं कि बिना मुसलमानों के हिंदुत्व नहीं.
एक ओर नरेंद्र मोदी जहाँ बार-बार 'पिछड़े मुसलमानों का हिस्सा सैयदों-पठानों ने हड़प लिया', की बात कर रहे हैं और 'अल्पसंख्यकों के साथ नए सामाजिक समीकरण तैयार करने' का मुद्दा उठा रहे हैं. वहीं आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत लेफ्टिनेंट जनरल ज़मीरूद्दीन शाह, पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई क़ुरैशी, उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार शाहिद सिद्दीक़ी से लेकर जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद के मौलाना अरशद मदनी तक से मिलते रहे हैं.
संघ का संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच पिछले लगभग 15 वर्षों से समुदाय के भीतर पहुंच बनाने में लगा है.
नरेंद्र मोदी ने पहली बार सीधे तौर पर मुसलमानों के भीतर पिछड़े समुदाय का ज़िक्र साल 2017 में यानी प्रधानमंत्री का पद समंभालने के दो साल बाद ही पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में किया था, जिसमें उन्होंने कहा था "मुसलमानों और दूसरे धर्मों में भी पिछड़ी जातियाँ मौजूद हैं. पिछड़ी जातियों को मिलने वाली सुविधाएं मुसलमानों के पिछड़े वर्गों तक भी पहुंचनी चाहिए. सैयद और पठान इन सुविधाओं को हथिया लेते हैं."
साल 2022 में हैदराबाद में उन्होंने कहा कि समुदायों को केवल एक वर्ग के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि उसके भीतर भी समाज में स्थान के आधार पर अलग-अलग हित और विचार होते हैं.
हैदराबाद में पसमांदा मुसलमानों में पार्टी के प्रति भरोसे की कमी को 'स्नेह यात्राओं' के ज़रिए पाटने की बात कही गई थी.
नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के पसमांदा मुसलमानों के एक प्रतिनिधि मंडल से लंबी मुलाक़ात की थी जिसके कुछ ही माह बाद पार्टी की यूपी इकाई ने अपने यहाँ बुनकर सेल की स्थापना कर दी थी.
दर्जनों पसमांदा संगठन कार्यरत
बेंगलुरू स्थित अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर ख़ालिद अनीस अंसारी कहते हैं कि सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास वाला नरेंद्र मोदी का नारा काम करता दिख रहा है, उत्तर प्रदेश में 2022 के चुनाव में अंदाज़न आठ फीसदी मुसलमान वोट पार्टी के खाते में गए हैं.
ख़ालिद अनीस अंसारी कहते हैं कि बीजेपी को अगर आठ या उससे अधिक फ़ीसद मुसलमान वोट हासिल हो जाते हैं तो उनके लिए तो ये दोनों हाथों में लड्डू वाली बात होगी क्योंकि ये वोट तो दूसरे दलों का रहा है, जैसे समाजवादी, कांग्रेस या बहुजन समाज पार्टी से छिनकर ही उनके खाते में जाएगा.
इस समय उत्तर से लेकर पश्चिम भारत तक ऑल इंडिया बैकवॉर्ड मुस्लिम मोर्चा, पसमांदा फ्रंट, पसमांदा समाज, महाराष्ट्र की अखिल भारतीय मुस्लिम मराठी साहित्य सम्मेलन जैसी दर्जनों से अधिक संस्थाएँ काम कर रही हैं. इसके अलावा बीजेपी के उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष कुंवर बासित अली आधे दर्जन पसमांदा समूहों का नाम गिनवाते हैं जो उनके साथ काम कर रही हैं.
बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा पिछले साल से लेकर अब तक दो बड़े पसमांदा सम्मेलन लखनऊ और रामपुर में सीधे तौर पर कर चुकी है, उससे जुड़े संगठन भारतीय मुस्लिम पसमांदा मंच, उत्तर प्रदेश मुस्लिम पसमांदा काउंसिल जैसे संगठनों के अलावा.
बासित अली कहते हैं कि जल्द ही काशी, मुरादाबाद, सहारनपुर, संभल, गोरखपुर में पसमांदा सम्मेलनों की योजना है जिसमें वो समुदाय के लोगों से कहेंगे कि हुकूमत ने जो 45 लाख मकान बनाकर दिए उसमें से 19 लाख मुसलमानों के हिस्से में गए. वही स्थिति आयुष्मान भारत के तहत मिलने वाले लाभ, शौचालय निर्माण और शिक्षा के लिए स्कॉलरशिप की है.
प्रधानमंत्री मोदी के उस बयान को बासित अली सामने रखते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि वो मुसलमानों के एक हाथ में क़ुरान और दूसरे में लैपटॉप देखना चाहते हैं.
पसमांदा समुदाय केरल में और तमिलनाडु में ओसान (नाई) और पुसुलार (मछुआरे) ख़ुद अपनी तंज़ीमें बनाकर आवाज़ उठाने की कोशिश में हैं.
ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ में भी फूट
इधर अली अनवर अंसारी की ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ में भी फूट दिखती है.
ख़ुद को पसमांदा मुस्लिम महाज़ के एग्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर बताने वाले मुहम्मद यूनुस मोदी के कार्यकारिणी में दिए गए बयान का स्वागत करते हुए कहते हैं कि लाभार्थी के तौर पर ये पसमांदा समाज को और अधिक मात्रा में समर्थन देने के लिए प्रेरित करेगा.
मोहम्मद यूनुस ने दावा किया कि महाज़ ने अपनी शाखाएँ बिहार के बाद उत्तर प्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड, दिल्ली, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र को मिलाकर दस राज्यों में शुरू कर दी हैं.
सब चाहते हैं 'हमारी बोली लगे', ख़ालिद अनीस अंसारी हंसते हुए कहते हैं.
मोहम्मद यूनुस कहते हैं ''हम विधायक, सासंद का पद नहीं चाहते, हमारी मांग है कि सरकार पसमांदा समाज को शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरियाँ दे.''
मगर उनसे सवाल किया गया कि सरकार तो दलित मुसलमानों को रिज़र्वेशन देने के पक्ष में नहीं, जबकि सवर्ण हिंदुओं तक को आर्थिक आधार पर आरक्षण दे दिया गया तो उनका कहना था कि आरक्षण के मामले को उन्होंने सरकार से अलग से उठाया है.
कामकाज के लिए वो चाहते हैं कि कम-से-कम छोटा-मोटा क़र्ज़ ही बैंक से मिल जाए ताकि पसमांदा समाज के लोग रोज़गार शुरू कर पाएँ.
हिंदू वोट एकजुट, मुसलमान वोट में फूट
नरेंद्र मोदी जब गुजरात में मुख्यमंत्री थे तब उनके बेहद क़रीबी समझे जाने वाले, लेकिन अब दूर हो गए ज़फ़र सरेशवाला का भी मानना है कि पीएम की पहल को स्वीकार करना ही होशमंदी का काम होगा.
सुन्नी बोहरा समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाले ज़फ़र सरेशवाला कहते हैं, "बहुत सारी बातें आज मुसलमानों के दायरे से बाहर चली गई हैं, जैसे नागरिकता क़ानून बनवाना या ख़त्म करवाना, राजनीति में उनकी हिस्सेदारी इस तरह ख़त्म कर दी गई है मानो मुसलमानों के वोट की कोई औक़ात नहीं. समुदाय को शिक्षा, रोज़गार इन दो चीज़ों पर ध्यान केंद्रित कर देना चाहिए, और इनमें जो मदद मिल सके वो किसी भी तरह से सरकार के माध्यम से ही हासिल करने की कोशिश करें."
जफ़र सरेशवाला कहते हैं कि छवि के उलट उनकी जानकारी में नरेंद्र मोदी ने बहुत सारे काम किए हैं जो पसमांदा मुसलमानों के हित के रहे हैं.
सरेशवाला कहते हैं, "उन्होंने बहुत सारे मुस्लिम युवकों को जेल से बाहर करवाने में हमारी मदद की. साल 2009 में शाहपुर दरवाज़े के बाहर जब साढ़े तीन सौ मकान टूटने की नौबत आई तो उन्होंने म्युनिसिपल कमिश्नर से मेरे सामने फ़ोन कर उसे रुकवाया."
पेशे से बड़े व्यवसायी ज़फ़र सरेशवाला मानते हैं कि हो सकता है कि मोदी का हालिया बयान राजनीति से प्रेरित हो. वे कहते हैं, "हिंदुओं का वोट तो उनके पास है ही, कम या ज़्यादा होगा वो भी तो उसी में से होगा, अगर कमी हुई तो उसे तो कहीं-न-कहीं से पूरा करना होगा."
इस्लामिक स्टडीज़ के जाने-माने विद्वान अ़ख्तरूल वासे नरेंद्र मोदी-आरएसएस की पूरी पहल के बारे में कहते हैं, "एक तरफ़ हिंदू समाज की खाइयों को पाटने की कोशिश हो रही है, दूसरी तरफ़ मुस्लिमों में उसे बढ़ाने की."
अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर अली ख़ान महमूदाबाद के मुताबिक़, "इसका असली मक़सद है मुसलमान आपस के झगड़ों में उलझा रहे और वोट बंटता रहे."
पहले शिया-दरगाही, अब पसमांदा
ये पहली बार नहीं कि बीजेपी-आरएसएस ने मुसलमानों के भीतर किसी ख़ास वर्ग को साधने की कोशिश की हो, पहले वो सूफ़ी-ख़ानकाहों से जुड़े लोगों और फिर शिया समुदाय से जुड़ने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन दोनों में उसे कोई बड़ी सफलता नहीं हासिल हुई.
बीजेपी के कई नेता लखनऊ में मोहर्रम के माह में जलसा-जुलूसों में शामिल रहे हैं और शिया समुदाय को लेकर बयान भी दिए हैं, लेकिन शायद अब ये एहसास हो चला है कि उनकी तादाद कुल मुस्लिम आबादी में बहुत थोड़ी है.
हालांकि पसमांदा मुस्लिम समुदाय की आबादी को लेकर काई ठोस आंकड़ा फ़िलहाल मौजूद नहीं क्योंकि 1931 के बाद जातिगत जनगणना का काम बंद कर दिया गया है लेकिन एक अनुमान है कि पसमांदा मुसलमान, कुल मुस्लिम आबादी का 80 से 85 फ़ीसदी तक हो सकता है.
मंडल कमीशन ने कम-से-कम 82 सामाजिक समूहों की पहचान की थी जिसे उसने पिछड़े मुसलमानों की श्रेणी में रखा था.
नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइज़ेशन (एनएसएसओ) के अनुसार, मुसलमानों में ओबीसी जनसंख्या 40.7 फ़ीसद है जो कि देश के कुल पिछड़े समुदाय की तादाद का 15.7 फ़ीसदी है.
अली अनवर अंसारी ने प्रधानमंत्री को ख़त भेजने के साथ ही विपक्षी दलों को भी चिट्ठी भेजी थी जिसमें उन्होंने पसमांदा वर्गों के प्रतिनिधित्व की बात उठाई थी, साथ ही, ये भी पूछा था कि वो दलित मुसलमानों-ईसाइयों के आरक्षण के मुद्दे पर ख़ामोश क्यों हैं?
विपक्ष की ओर से भी चिट्ठी का जवाब अब तक नहीं आया है.
अली अनवर दावे करते हैं, "मुसलमानों का वोट बीजेपी के खाते में नहीं जाएगा, दलित मुसलमान भी रेलवे के कंपार्टमेंट की तरह है, जनरल, एसी वन, टू, थ्री. हो सकता है कुछ लोग बिक जाएँ".
उनके अनुसार पसमांदा लोगों को बीजेपी वालों के ज़रिये तीन-चार बातें समझाई जा रही हैं -'हम हाथ बढ़ा रहे हैं, तुम भी बढ़ाओ, जिसको वोट दे रहे थे अब तक वो तो तुम्हारा नाम भी लेने से डरता है, तीसरा, हम तो जानेवाले नहीं 2024 में फिर आएंगे...'
संजय पासवान कहते हैं कि ये सही है कि मुसलमान अब तक बीजेपी को वोट नहीं दे रहा मगर ये जो नोटा की श्रेणी में मतपत्रों पर ठप्पे लग रहे हैं ये कांग्रेस और सोशलिस्टों को रिजेक्ट कर रहे वोटर हैं.
वो थोड़ा रूककर कहते हैं, "और किसने सोचा था, यादव कभी मोदी को वोट देगा?" (bbc.com/hindi)